बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा

punjabkesari.in Monday, Sep 26, 2022 - 06:32 AM (IST)

मशहूर शायर नवाब मुस्तफा खां शेफ्ता का शे’र हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम, बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा। काफी लोकप्रिय हुआ। इसका अर्थ है जिन्हें शोहरत की भूख होती है वो शोहरत पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं। ऐसा करने पर यदि उन्हें बदनामी भी मिले तो वे उसी में शोहरत के अवसर खोज लेते हैं।

सुप्रीमकोर्ट की मीडिया एंकरों को पड़ी फटकार का कुछ ऐसा ही अर्थ निकाला जा सकता है। दरअसल हेट स्पीच के एक मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीमकोर्ट ने टी.वी. एंकरों को कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने कहा कि नफरती भाषा एक जहर की तरह है जो भारत के सामाजिक ताने-बाने को नुक्सान पहुंचा रही है।

पिछले कुछ समय से चैनलों पर बहस बेलगाम हो गई है। देश के राजनीतिक दल इस सबमें भी लाभ खोज रहे हैं। अदालत ने कहा कि ऐसी नफरत फैलाने वाले दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। केंद्र सरकार से जवाब मांगते हुए सुप्रीमकोर्ट ने पूछा कि क्या इसको लेकर सरकार का कानून बनाने का इरादा है या नहीं, मौजूदा कानून ऐसे मामलों में निपटने के लिए अपर्याप्त है। न्यायमूर्ति के.एम.जोसेफ और ऋषिकेश रॉय की खंडपीठ ने कहा कि हेट स्पीच के मामलों में केंद्र को ‘मूक दर्शक’ नहीं बने रहना चाहिए।

कोर्ट ने आगे कहा कि  पूरी तरह से स्वतंत्र प्रैस के बिना कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता है। एक मुक्त बहस होनी चाहिए। आपको यह भी पता होना चाहिए कि बहस की सीमा क्या है। बोलने की स्वतंत्रता वास्तव में श्रोता के लाभ के लिए है। एक बहस को सुनने के बाद श्रोता अपना मन बनाता है। लेकिन हेट स्पीच सुनने के बाद वह कैसे अपना मन बनाएगा।

आपको याद होगा कि जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है, यकीनन टी.वी. चैनल ही इस अराजकता फैलाने के गुनहगार हैं। जो अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लालच में आए दिन इसी तरह के विवाद पैदा करते रहते हैं। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते हैं जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते हैं जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों।

टी.वी. एंकर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल-कूद करते हैं। जिस किसी ने बी.बी.सी. के टी.वी. समाचार सुने होंगे उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहे विषय कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गंभीर क्यों न हो, बी.बी.सी. के एंकर संतुलन नहीं खोते। हर विषय पर गहरा शोध करके आते हैं और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते हैं जो विषय के जानकार होते हैं। हर बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का संतोष मिलता है।

आज की स्थिति में मैं मानने लगा हूं कि टैलीविजन समाचारों पर नियंत्रण जरूरी है। खबरों को फूहड़ और बिकाऊ बनाने के लिए टी.आर.पी. को बहाना बनाया जाता है और खबरों के नाम पर ज्यादातर चैनल जो कुछ परोस रहे हैं उसे झेलना बेहद मुश्किल हो गया है। एक समय था जब रात में सिर्फ एक बार नौ बजे खबरें प्रसारित होती थीं। पहले रेडियो पर और फिर टी.वी. पर। उस समय खबरें सुनने या जानने में जो दिलचस्पी होती थी वह क्या अब किसी में रह गई है। तब खबरें नई होती थीं वाकई खबर होती थीं। पर अब दिन भर चलने वाली खबरों को जानने के लिए वो उत्सुकता नहीं रहती है।

एक तो संचार के साधन बढऩे और लगातार सस्ते होते जाने से लोगों तक सूचनाएं बहुत आसानी से और बहुत कम समय में पहुंचने लगी हैं। ऐसे में दर्शकों को खबरों से जोडऩे के लिए कुछ नया और अभिनव किए जाने की जरूरत है। पर ऐसा नहीं करके ज्यादातर चैनल फूहड़पन पर उतर आए हैं। दूसरी ओर नए और अपरिपक्व लोगों को समाचार संकलन और संप्रेषण जैसे काम में लगा दिए जाने का भी नुक्सान है। किसी भी अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी आती है। नए और युवा लोग अधिकार तो मांगते हैं पर जिम्मेदारी निभाने में चूक जाते हैं।

उन्हें मीडिया की आजादी तो मालूम है पर इस आजादी के प्रभाव का अनुमान नहीं है। आपने देखा होगा कि दिन भर चलने वाले समाचार चैनल अपने प्रसारण में ङ्क्षहसा और अपराध की खबरें खूब दिखाते हैं और कई-कई बार या काफी देर तक दिखाते रहते हैं। दर्शकों को आकॢषत करने के लिए ये अपने हिसाब से अपराधी तय कर लेते हैं और अदालत में मुकद्दमा कायम होने से पहले ही किसी को भी अपराधी साबित कर दिया जाता है। बाद में अगर वह निर्दोष पाया जाए तो उसकी कोई खबर दिखाई नहीं जाती है।

ऐसी खबरों से आहत होकर लोगों के आत्म हत्या कर लेने के भी मामले सामने आए हैं पर टैलीविजन चैनल संयम बरत रहे हों, ऐसा नहीं लगता है। जब भारत में कोई प्राईवेट टी.वी. चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी वीडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टी.वी. पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किए थे। बिना किसी औद्योगिक घराने या राजनीतिक दल की आॢथक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया था। नौकरशाही या लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर, पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गंभीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके करने से देश के जनमानस में मंथन होगा।-विनीत नारायण


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