लोक-लुभावन ‘वायदे’ कब तक

punjabkesari.in Friday, Oct 25, 2019 - 02:06 AM (IST)

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कुछ समय पूर्व मैट्रो ट्रेन में महिलाओं को 6 महीने तक मुफ्त सफर की सुविधा देने का निर्णय लिया। फिर अब जब आने वाले दिनों में जगत गुरु बाबा नानक की कर्मभूमि करतारपुर साहिब के दर्शनों के लिए गलियारा खुल रहा है तो भारतीय श्रद्धालुओं से ली जाने वाली 12 डालर की फीस अपनी सरकार की ओर से देने का निर्णय कर लिया है। फीस माफी केवल दिल्ली से करतारपुर साहिब के दर्शनों हेतु जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए ही होगी।

केजरीवाल ने यही नहीं, ऐसे कई अन्य फैसले भी लिए हैं। आम व्यक्ति सोचता है कि उनकी सरकार के पास कौन-सा खजाना दबा हुआ है कि वह उखाड़-उखाड़ कर लोगों को ऐसी सुविधाएं दिए जा रही है। जवाब बहुत सीधा है। यह कि वह ऐसे लोक लुभावन वायदे करके निकट भविष्य में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनावों में अपना वोट बैंक पक्का कर रहे हैं। 

केजरीवाल की दयालुता
केजरीवाल से पूछा जा सकता है कि यदि वह महिलाओं के प्रति इतने ही दयावान हैं तो ये सुविधाएं 6 महीनों के लिए ही क्यों? दूसरा, करतारपुर साहिब दर्शनों के लिए विश्व के जिस कोने से भी कोई श्रद्धालु आएगा, उसे 20 डालर की फीस देनी ही पड़ेगी। यदि करतारपुर साहिब की बिल्कुल सीमा पर बसे पंजाब या हरियाणा अथवा किसी अन्य राज्य द्वारा यह फीस माफ  नहीं की जा रही तो उनके इतना दयालु होने का क्या कारण है? 

आपको यह तो याद ही होगा कि केजरीवाल की आम आदमी पार्टी प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे द्वारा देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू किए गए जोरदार सामाजिक आंदोलन में से जन्मी थी। इसका संकल्प यह था कि वह अन्य राजनीतिक दलों के चरित्र से बहुत अलग होगी। देखने में आया है कि दावे चाहे कोई कितने भी करे, मगर गद्दी पर बैठते ही वह वही हथकंडे अपनाने लग जाता है जो अब तक देश की छोटी-बड़ी पार्टियां अपनाती आई हैं। 

बेशक उन्होंने 2013 के दिल्ली चुनावों में इतिहास रच दिया था लेकिन पंजाब के अतिरिक्त इस इतिहास का पन्ना दिल्ली की सीमा नहीं लांघ सका। अब भी उनके लोकसभा सदस्य तथा विधायक केवल पंजाब व दिल्ली से ही हैं। वैसे केजरीवाल ने अपनी गलत नीतियों से 2017 के पंजाब विधानसभा चुनावों में अपनी बनती-बनती सरकार को ब्रेकें लगवा ली थीं। उनका दावा है कि उनकी सरकार ने जो सुख-सुविधाएं दिल्ली वासियों को दी हैं, वैसी किसी अन्य सरकार ने नहीं दीं। स्पष्ट है कि सरकारी खजाने से दी गई इन सुविधाओं के सिर पर ही वह सत्ताधारी बने रहना चाहते हैं। 

करों से भरता खजाना
यह सरकारी खजाना लोगों द्वारा दिए जाते करों से भरा जाता है, ऊपर से वर्षा के रास्ते नहीं आता। इसका स्पष्ट अर्थ है कि हमारे हुक्मरान लोगों द्वारा दिए जाते करों को सबसिडियों-सुविधाओं का नाम देकर शासन चलाते रहना चाहते हैं। कभी सोने की चिडिय़ा कहे जाते इस देश को पहले मुगलों, फिर अंग्रेजों तथा पिछले 70-72 वर्षों में हमारे अपने ही हुक्मरानों ने सबसिडियों के नाम पर कंगाल कर छोड़ा है। केन्द्र सहित राज्य भी आए दिन कर्जाई हो रहे हैं तथा सबसिडियां लेने वालों को इन्होंने मिल-जुल कर घसियारे बना दिया है। 

यह वह देश था जो अत्यंत मेहनती तथा खड्ग भुजा कहलाता था, आज मेहनती हाथों को काम नहीं मिल रहा। मुंहों को जो रोटी दी जाती है वह भी ऐसी सबसिडियों के खाते से जाती है। क्यों नहीं हर हाथ को काम दिया जाता? हर हाथ को काम, जीने की मूलभूत सुविधाएं दें। उससे बाकायदा टैक्स लें। इन टैक्सों को देश-समाज के विकास, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य पर खर्चें। हुक्मरानों के लिए आज के दिन यही सच्ची सेवा होगी। अफसोस कि कोई भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहता। देश सेवा या लोक सेवा के जज्बे वाली बातें अब बहुत दूर रह गई हैं। 

इसमें दो राय नहीं कि यह लोकतांत्रिक देश है जहां हमारे हुक्मरान वोटों के माध्यम से चुने जाते हैं। बड़ी अच्छी प्रणाली है जिसे लोगों की लोगों द्वारा तथा लोगों के लिए चुनी सरकार का नाम दिया गया है। दूसरे शब्दों में, इसे कल्याणकारी स्टेट कहा जाता है, जिसमें लोगों को जीवन की मूलभूत सुविधाएं आसानी से उनके दरवाजे पर मिलें। सोचने वाली बात यह है कि देश की आजादी के बाद क्या यह सब कुछ सम्भव हो सका? उत्तर शायद न में हो। यदि यह सम्भव नहीं हो सका तो क्यों? 

लोकतंत्र के इस संकल्प में कहां कोई कमी रह गई? यह लोगों की ओर से है या फिर हुक्मरानों की ओर से? इसका उत्तर केवल एक पंक्ति में मिल जाएगा कि देश में पिछले 7 दशकों में अमीर तथा गरीब में न केवल बहुत अंतर बढ़ गया है बल्कि दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। ये अमीर कौन हैं और कितने हैं? यदि देश के उद्योग का पहिया चलाने वाले उद्योगपतियों को एक तरफ कर दें तो बाकी वे कौन हैं और कैसे तथा क्यों अमीर हुए। इनमें एक महत्वपूर्ण वर्ग छोटे-बड़े राजनीतिज्ञों का है। इन्होंने राजनीति को कमाई तथा भ्रष्टाचार का माध्यम बना छोड़ा है। गांव के सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, मंत्रियों, विधायकों तथा सांसदों की महज एक दशक में बढ़ी जमीन-जायदादों, कोठियों, शोरूमों, फैक्टरियों तथा विशेषकर बेनामी सम्पत्तियों का जायजा लें तो सामान्य नागरिक दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो जाता है। 

स्वहित अधिक महत्वपूर्ण
जनहितों की बजाय स्वहित अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं तथा कल्याणकारी राज्य में जिन लोगों की सरकार की बात कही गई है वे आज कहीं खड़े नहीं होते। एक बार विधायक या सांसद बन जाओ, पैंशन पक्की। वेतन, सुख-सुविधाएं अलग। यही नहीं, जितनी बार विधानसभा या लोकसभा के लिए चुने जाते रहोगे, उतनी बार की अलग पैंशन। उदाहरण के लिए यदि पांच बार विधायक या सांसद चुने गए तो पांच पैंशनें पक्की। दूसरी ओर आई.ए.एस. व आई.पी.एस. 35-40 वर्ष की नौकरी के बाद केवल एक ही पैंशन का हकदार होता है। ऐसे ही देश के लाखों अन्य सरकारी अधिकारियों तथा कर्मचारी/राजनीतिज्ञों द्वारा सरकारी खजाने के नाम पर यह अंधी लूट क्यों? सदनों में तो शरीकों की तरह खूब ताने तथा आरोप-प्रत्यारोप होते हैं। हां, यदि वेतन अथवा भत्ते बढ़ाने हों तो एक मिनट में विधेयक पारित। कैसी कल्याणकारी स्टेट है यह? 

दूसरी ओर देश की आधी से अधिक आबादी भूख-नंग, गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी तथा स्वास्थ्य-शिक्षा और बिजली-पानी जैसी सुविधाओं से जूझ रही है। वास्तव में लोकतांत्रिक प्रणाली के माध्यम से अनपढ़, नालायक, भ्रष्ट तथा अपराधी प्रवृत्ति वाले लोग चुने जाते और हमारे हुक्मरान बन बैठते हैं। 790 सांसदों तथा 4800 से अधिक विधायकों में से अधिकतर का चरित्र ऐसा ही सामने आ रहा है। फिर इनसे जनकल्याण की आशा कैसे रखें? 

उपरोक्त से सीधा संकेत यह है कि देश में समय-समय पर शासकों ने सत्ताधारी बने रहने के लिए सबसिडियों के नाम पर लोगों को सब्जबाग दिखाए हैं। अधिकतर सबसिडियां ले भी खाते-पीते लोग रहे हैं। जिनको अधिक जरूरत है उनको मिलती ही नहीं। हां, उनका नाम जरूर इस्तेमाल किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, पंजाब के कई मंत्री, विधायक तथा सांसद बिजली सबसिडी ले रहे हैं जबकि किसानों को धान की फसल के लिए 8 घंटे लगातार बिजली भी नहीं दी जाती। पंजाब के लोग बहुत मेहनती हैं, इन्हें सबसिडियों की बजाय रोजगार दें। कृषि, शिक्षा तथा स्वास्थ्य संबंधी ठोस व अमल योग्य नीतियां बनाएं। 

राजनीतिज्ञों की सुख-सुविधाएं कुछ घटाएं। सरकारी खजाना लोगों के विकास/भले के लिए होता है न कि खुद हुक्मरानों के लिए, सबसिडियों को वोट बैंक न बनाओ। इस प्रवृत्ति ने देश को आज आर्थिक मंदी के किनारे ला खड़ा किया है। यदि अब भी न सम्भले तो फिर समय हाथ नहीं आना। गेंद हुक्मरानों के पाले में है, यह निर्णय उन्हीं को करना है कि हमें तरक्की चाहिए या तबाही।-शंगारा सिंह भुल्लर
 


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