समय ‘कैसे-कैसे रंग’ बदलता है

punjabkesari.in Saturday, Aug 22, 2020 - 02:53 AM (IST)

समय कैसे-कैसे रंग बदलता है पता ही नहीं चलता सिराय रॉक्सन शाह का जन्म ग्रेट लॉकडाऊन के मध्य 6 अगस्त 2020 को हुआ। उसके पिता की ओर से उसके पास पड़दादा-पड़दादी तथा उसकी मां की ओर पडऩाना-पडऩानी हैं। दोनों ओर से जैसा कि आशा की जाती है लॉकडाऊन द्वारा अनुमति दिए जाने से परे उनकी कानूनी आयु है। उन्होंने अपने शहरी फ्लैटों के द्वारों को पार कर नई जन्मी बच्ची की झलक पानी चाही। आज ऐसा समय है जबकि लम्बी उम्र की उपस्थिति वाले दादा-दादी या नाना-नानी बहुत कम देखने को मिलते हैं। पुराने बुजुर्ग लम्बे समय से हैं और उन्होंने अपनी भूमिका निभाई। 

सिराय रॉक्सन के पड़दादा (पिता की ओर से) पारसी जोरास्ट्रियन हैं तथा मां की ओर से गोवा के कैथोलिक हैं। दोनों बुजुर्ग अपने धर्मों का पालन कर रहे हैं। पिता की ओर से बच्ची का दादा एक गुजराती ङ्क्षहदू है। दादी एक पारसी जोरास्ट्रियन थी क्योंकि वह एक सड़क दुर्घटना में मारी गई इसलिए बच्ची के नाम से उनका नाम भी जोड़ दिया गया। 

सिराय रॉक्सन के नाना एक पारसी जोरास्ट्रियन थे जबकि नानी बपतिस्मा प्राप्त रोमन कैथोलिक थी। इस कारण रॉक्सन की उत्पत्ति एक ङ्क्षहदू, गुजराती, पारसी जोरास्ट्रियन की है क्योंकि एक नानी तथा एक नाना उस धर्म से संबंधित थे। उसकी रगों में मेरी पत्नी तथा मेरे में से ईसाई खून भी बह रहा है। ऐसा उस समय था जब धर्म तथा समुदाय जीवनसाथी को चुनने की सीमाओं में बंधा नहीं था। अब यह बात तेजी से प्रासंगिकता खो रही है। नई नागरिक  को जनगणना तथा अन्य सरकारी प्रपत्रों को भरने के लिए मुश्किल आएगी क्योंकि वे बच्ची को अपना धर्म बताने के लिए कहेंगे। मुम्बई सोसाइटी के कई हिस्सों में धर्म कोई मायने नहीं रखता। 

सिराय कोई हिंदू नाम नहीं न ही यह जोरास्ट्रियन और न ही ईसाई है। बच्ची की मां जोकि मेरी पड़पोती है। स्पष्ट तौर पर यह चाहती थी कि नवजन्मी बच्ची को एक अलग ही नाम दिया जाए। ऐसा एक नया ट्रैंड भी तो है, युवा अभिभावक ऐसे नामों को तलाशते हैं जिसके बारे में उनके दोस्तों ने कभी सोचा ही न हो। इसके लिए बहुत कुछ पढऩा पड़ता है तथा खोज करनी पड़ती है जो युवाओं के ज्ञान में बढ़ौतरी करता है।  मेरी पड़पोती के मामले में उसने मुझे फोन पर बताया कि सिराय को हिब्रू भाषा में सरहा से पुकारा जाता है जोकि अब्राहम की पत्नी थी तथा मेरी पड़पोती यहूदी नहीं। 

बच्ची को दूसरा नाम देने के लिए मां-बाप ने रीति-रिवाजों से परे देखा। पारम्परिक तौर पर गुजरात में तथा पारसियों में पिता का नाम साथ दिया जाता है। मगर मां-बाप बच्ची की दिवंगत नानी के नाम को याद रखना चाहते थे। मुझे यकीन नहीं है कि वह रॉक्सन को अच्छी तरह से बोल पाएगी। 

मैं और मेरी पत्नी अपनी पहली पड़पोती को देखना चाहते हैं। महामारी ने कई मान्य नियमों को बदल कर रख दिया है। मैंने अपनी बेटी के घर को मार्च के अंत से नहीं छोड़ा। बिल्डिंग की सोसाइटी के नियम किसी भी घरेलू मदद पाने को रोकते हैं क्योंकि यहां पर वायरस के फैलने का जोखिम है। 2 वृद्ध लोगों को खाना पकाने का अनुभव नहीं। मेरी पत्नी की शारीरिक हालत उसे रसोई में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देती। जहां हम रहते हैं उससे हमारी बेटियां ज्यादा दूर नहीं रहतीं और दोनों बेटियां हमेशा ही अपने वृद्ध मां-बाप के लिए उपस्थित हो जाती हैं। 

लॉकडाऊन से पहले मैंने पी.सी.जी.टी. के कार्यालय की सप्ताह में 5 दिन यात्रा की। जब लॉकडाऊन की घोषणा हुई तो इसकी निरंतरता में बाधा पड़ी मगर 2 महीनों के बाद हमने जूम पर छात्रों के साथ मुलाकात की और उनसे विचार-विमर्श किया कि अपने आपको खतरे में डाले बिना पी.सी.जी.टी. कोविड महामारी के ऐसे दिनों में कैसे मदद कर सकती है। लगभग प्रत्येक तीसरे दिन जूम पर वैबीनार में मैंने उनकी बात सुनी तथा अपनी हिस्सेदारी बांटी। इन वैबीनार्स को पी.सी.जी.टी. कैंपस अम्बैसेडर ने स्थापित किया। 

वैबीनार्स पर ऑनलाइन का अनुभव हमारी खुशी से ज्यादा था। यह छात्रों को आत्म संतुष्टि तथा आत्मविश्वास देता है। कालेज के प्रतिभागी ज्ञान पाते हैं तथा उन्हें अपने विचार रखने का एक मौका मिलता है। मेरा मानना है कि इसका उपयोग हम महामारी को पीछे छोडऩे के बाद भी कर सकते हैं। ट्रस्टियों के लिए भी क्रियाशील रहने तथा मददगार बनने के लिए एक नया रास्ता उपलब्ध करवाया है। वृद्धों के लिए भी यह अच्छा है कि वह जान सकें कि धरती पर जो उनके पास थोड़ा समय बचा है वह लॉकडाऊन की समाप्ति के इंतजार में बेकार न जाए। 

क्योंकि रेस्तरां बंद हैं और अच्छा खाना इस महामारी के दौरान उपलब्ध नहीं इसलिए घर पर रह कर खाना ही नियम बन गया है। घर से बाहर हवा के संक्रमित होने के डर से हमने अपने स्वास्थ्य को और ज्यादा सुधारा है। डाक्टर घरों की यात्रा नहीं करते और वे ज्यादातर इस बात को नकारते ही हैं। फोन पर मैडीकल परामर्श तथा दवाइयों का लिखना एक नई प्रणाली बन चुका है जो तेजी से फैल रही है। यह लॉकडाऊन के बाद जारी नहीं रहेगा क्योंकि उस समय मरीज शारीरिक जांच के साथ ज्यादा आरामदायक हो जाएंगे। उत्सुक बुद्धि को यह और ज्यादा उम्मीद देगा। 

मैं उम्मीद तथा दुआ करता हूं कि लॉकडाऊन नियमों के साथ सड़क पर प्राइवेट कारें अपनी अनुपस्थिति बनाए रखें। ज्यादा तादाद में कारों की अनुपस्थिति ने प्रदूषण को कम किया है। मुम्बई वासियों को साफ नीला आसमान देखने को मिला है और वे अच्छी सांस लेने वाली हवा पा रहे हैं। खांसी तथा जुकाम में कमी आई है। लॉकडाऊन का यह सबसे बड़ा आशीर्वाद है। क्या यह आशीर्वाद कायम रह पाएगा? मुझे इस पर शंका है। मेरी आंखें बच्ची सिराय रॉक्सन शाह के ऊपर गढ़ी हुई हैं। मैं उसे अपनी बांहों में लेना चाहता हूं। वह कोई भी संगठित धर्म का अनुसरण नहीं करेगी मगर मैं उससे आशा करता हूं कि वह सभी धर्मों का सम्मान करे फिर चाहे ङ्क्षहदू हो, जोरास्ट्रियन या फिर ईसाई हो।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी) 
 


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