जहां कम्युनिस्ट विफल हो गए थे वहां अमरीका को सफलता कैसे मिलती

punjabkesari.in Tuesday, Jul 13, 2021 - 06:59 AM (IST)

अमरीकी सेना अफगानिस्तान से पीछे हट रही है क्योंकि तालिबान तेजी से आगे बढ़ रहा है। पिछले ह ते यह रात के अंधेरे में काबुल के पास बगराम एयरबेस से अपने अफगान सहयोगियों को सूचित किए बिना निकल गया। इस युद्ध के ग भीर अंत के बारे में अजीब बात यह है कि इसके हर पहलू का शुरूआत से ही अनुमान लगाया जा सकता था। फिर भी झूठी धारणाओं और जागरूकता की कमी ने विनाशकारी कदम को बढ़ावा दिया जिसके चलते असंख्य लोगों ने अपना जीवन खोया और सैंकड़ों-अरबों डालर खर्च हुए। यकीनन ऐसी बातों ने अफगानिस्तान को और भी बदतर बना दिया। 

आखिर ऐसा क्यों और कैसे हुआ यह समझना जरूरी है। अमरीका तथा उसके सहयोगियों को एक ऐसे शासन को जोरदार जवाब देना पड़ा जिसने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में 9/11 के आतंकवादी अत्याचार को सक्षम बनाया था। 9/11 के अपराधियों और उनके सहयोगियों के उद्देश्य से एक सैन्य खुफिया अभियान ने न्याय और प्रतिशोध दोनों की मांगों को पूरा किया। अफगानिस्तान में सभी राजनीतिक खिलाडिय़ों को निवारण का एक संदेश भेजा गया। इसकी बजाय बुश प्रशासन ने पूरे देश का राजनीतिक और सैन्य प्रचंड चुना।

यह एक निराशाजनक प्रयास था। कुछ महीनों के लिए सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। तालिबान शासन को बाहर निकालने वाले लोगों ने अपने पश्चिमी मुक्तिदाताओं का स्वागत किया। उन्होंने अपने आपको सही महसूस किया। काबुल तथा 9/11 से पहले अफगानिस्तान को जानने वाले लोगों ने देश के बड़े हिस्सों में तालिबानियों का मुक्तिदाता के रूप में स्वागत किया था। 

तालिबान वास्तव में 1990 के दशक के मध्य में सरदारों और उनकी लूट  से छुटकारा पाने के लिए उभरा था। 2001 तक कई अफगानी तालिबान की अपनी मनमानी व क्रूरता से थक चुके थे। विशेषकर काबुल में जहां सोवियत समर्थित कम्युनिस्ट शासकों ने शैक्षिक मौकों और सामाजिक स्वतंत्रता का विस्तार किया था। जातीय अल्पसं यकों के प्रभुत्व वाली राजधानी और प्रांतों में महिलाएं तालिबान की बेरहम सख्ती का तिरस्कार करने आई थीं। हालांकि ये कठोर सामाजिक रीति-रिवाज पश्तून ग्रामीण इलाके में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। यहां तक कि 2001 के अंत में तालिबान के पिघलने के बाद भी अफगान ग्रामीण समाज में इस संगठन का आधार तथा भूमिका देश के राजनीतिक भविष्य में सुनिश्चित हुई। 

तालिबान एक लचीला संगठन और बेरहम ताकत थी जो युद्ध के मैदान मेें विपक्षियों को राजी करने की क्षमता रखते थे। उन्होंने अपनी ताकत पश्तून ग्रामीण क्षेत्रों से हासिल की जिन्हें पाकिस्तान में सैन्य और खुफिया अधिकारियों का समर्थन प्राप्त था। पाकिस्तान तालिबान को अफगानिस्तान में पश्चिमी और भारतीय प्रभाव के खिलाफ अपना बाड़ा समझता था। 2001 के दशक की शुरूआत में पाकिस्तान और अफगानिस्तान में जिन लोगों की राय का मैं स मान करता था उनमें से सभी को लगभग यकीन हो गया था कि अमरीका विफल होने के लिए अपराधी था। 

सोवियत संघ और काबुल में उसके सहयोगियों ने निर्वाह अर्थव्यवस्था पर दूरदराज इलाकों में रहने वाले भाषाई और जातीय समुदायों ने देश को आधुनिक बनाने और केन्द्रीयकृत करने की बेरहमी से कोशिश की थी। जहां क युनिस्ट विफल हो गए थे वहां अमरीका को सफलता क्यों मिलनी चाहिए थी? इसके प्रतिनिधि और सहयोगी जिनमें कुछ सबसे शातिर और भ्रष्ट अफगान लोग शामिल थे, लोकतंत्र के निर्माण और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने में किस तरह से मदद कर सकते थे? उस समय जिस बात ने मुझे चौंका दिया, वह यह थी कि कितने कम लोग यह सवाल पूछ रहे थे।

अफगानिस्तान में जो दुर्लभ आवाजें सुनी गईं उनमें से लगभग सभी तालिबान की जगह लेने की कोशिश कर रहे एक कुलीन वर्ग की थीं। पेशावर में पश्तून मामलों की गहरी जानकारी रखने वाले पत्रकार थे लेकिन बाद की घटनाओं से उनकी पुष्टि हुई कि अमरीका के पास तालिबान के साथ लगातार बिगड़ती शर्तों पर बातचीत करने के अलावा कोई वास्तविक विकल्प नहीं था। 

अमरीकी पत्रिकाओं के लिए अपने स्वयं के लेखन में मैंने महसूस किया कि अफगानिस्तान पर आक्रमण न्यायपूर्ण, धर्मी और आवश्यक था जिसका उद्देश्य लोकतंत्र को आगे बढ़ाना और अफगानों, विशेषकर महिलाओं को क्रूर उत्पीड़कों से मुक्त कराना था। यही कारण है कि आज अफगानिस्तान में युद्ध एक बड़ी बौद्धिक असफलता प्रतीत होता है। फिर भी अफगानिस्तान में अमरीकी हार से अपेक्षित एक सबक स्पष्ट है कि अमरीका भविष्य में और अधिक विनाशकारी उलझनों से बचना चाहता है।-पंकज मिश्रा


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