फिर से पुरानी कहानी दोहरा रहा हिमाचल

punjabkesari.in Sunday, Mar 03, 2024 - 05:19 AM (IST)

यह कहने का कोई अच्छा तरीका नहीं है। लेकिन कांग्रेस ने बिना किसी संदेह के साबित कर दिया है कि वह अपनी ही सबसे बड़ी दुश्मन है। हिमाचल प्रदेश में हाल की घटनाएं तो महज एक उदाहरण हैं। चूंकि राज्य में उसकी सरकार गिरने के करीब पहुंच गई है, पार्टी के समर्थक अभी भी सोच रहे हैं कि बात यहां तक कैसे पहुंची, जब उन्हें इस पद पर नियुक्त किया गया था, तो मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने अपना वचन निभाने का वायदा किया था। लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी अपनी बढ़त मजबूत करने में नाकाम रही है। उन पर निर्माण तो बहुत दूर की बात है।

सुक्खू ने उम्मीदें इसलिए बढ़ाईं क्योंकि वह एक ऐसे व्यक्ति हैं जो संघर्ष करके आगे आए हैं और उनका जमीन सेे  सीधा जुड़ाव है। वह शारीरिक श्रम करते हुए बड़े हुए। अपने शुरूआती वर्षों में वह आजीविका चलाने के लिए दूध के कैरेट इकट्ठा करते थे और बाद में दूध बेचने लगे। जब समय कठिन हो गया, तो वह राज्य बिजली विभाग में चौकीदार बन गए, और यहां तक कि राज्य बिजली बोर्ड से उन्हें टीम-मेट (ए.सी. हैल्पर के बराबर पद) के पद के लिए एक प्रस्ताव भी मिला। उनके पिता हिमाचल प्रदेश राज्य परिवहन निगम में बस ड्राइवर थे। तो, यहां उनके मुंह में कोई चांदी का चम्मच नहीं था।

हिमाचल प्रदेश चुनाव (2022) से पहले, कांग्रेस ने उन्हें अभियान समिति का प्रमुख बनाया, जिसका मतलब था कि उम्मीदवारों के चयन में उनकी हिस्सेदारी थी। इससे अगर वोट कांग्रेस को जाता तो शीर्ष पद पाने में लाभ का संतुलन उनके पक्ष में झुक जाता। वह संगठन को जानते थे। उन्होंने पार्टी की राज्य इकाई का नेतृत्व किया था और नैशनल  स्टूडैंट्स यूनियन ऑफ इंडिया का नेतृत्व किया था। जब कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में 68 में से 40 सीटों के साथ जीत हासिल की, तो आलाकमान को  बुशहर के दिग्गज राजा वीरभद्र सिंह के परिवार से प्रतिभा एम. सिंह/विक्रमादित्य सिंह में से किसी एक को चुनना पड़ा।

वीरभद्र सिंह कई बार मुख्यमंत्री रहे, जिनकी चुनाव से कुछ ही महीने पहले मृत्यु हो गई थी। एक झगड़े के बाद,  सुक्खू को शीर्ष पद मिला, हालांकि विक्रमादित्य लोक निर्माण विभाग मंत्री बने। चूंकि राज्य में केवल मंत्री ही हो सकते हैं, वफादारों को पुरस्कृत करने के लिए अन्य तंत्र अपनाए गए, जैसे कि एक मंत्री से विभाग लेकर दूसरे को देना, जो लोग पद खो देते थे (जैसे विक्रमादित्य को मंत्री रहते हुए भी सार्वजनिक अपमान का सामना करना पड़ता था, जैसा कि उन्होंने समझाया)। घटक बताते हैं कि उन्हें शक्तिहीन नहीं किया गया है, और कुछ समय बाद उन्होंने गुप्त रूप से जल्द से जल्द संभव अवसर पर सुक्खू पर बाजी पलटने का संकल्प लिया।

राज्य में बाढ़ से बड़े पैमाने पर तबाही हुई। राहत त्वरित लेकिन चयनात्मक थी। विधायकों ने भ्रष्टाचार और भेदभाव की शिकायत की। सुजानपुर से विधायक राजिंदर राणा ने शिकायत की कि उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया, हालांकि उन्होंने भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री पी.के. धूमल को हराया था, लेकिन उन्हें भाजपा से सहानुभूति मिली, आखिरकार वह 2006 से भाजपा में थे। वह पिछले 3 महीनों से अपने जिले हमीरपुर में बेरोजगारी और अधूरे कार्यों की शिकायत कर रहे हैं।  सुक्खू ने राणा की बात को अनसुना कर दिया।

कांगड़ा राजनीतिक दृष्टि से हिमाचल प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण जिला है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कांगड़ा की 15 सीटों में से 10 पर जीत हासिल की। लेकिन जिले को सिर्फ एक ही मंत्री मिला और वह शख्स  सुधीर शर्मा नहीं थे जो वीरभद्र सिंह सरकार में मंत्री रहे। वीरभद्र की विधवा प्रतिभा के लोकसभा क्षेत्र मंडी को कोई मंत्री नहीं मिला। इसके विपरीत शिमला को तीन मंत्री मिले।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सुधीर शर्मा ने पहले दिन से ही  सुक्खू द्वारा वीरभद्र के वफादारों को जानबूझकर दरकिनार करने की शिकायत करना शुरू कर दिया और वह उन 5 लोगों में से एक थे जिन्होंने  सुक्खू के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था, उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया है, और वह अपने सहयोगियों के साथ उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं। बहुत कुछ इस तथ्य से पता चलता है कि सुक्खू देहाती और जमीन से जुड़े हुए व्यक्ति हैं। लेकिन उनमें एक महत्वपूर्ण गुण की कमी साबित हुई है वह यह कि सुक्खू कोई राजनेता नहीं हैं। यह दिल्ली में कांग्रेस है जिसे इसे समझना चाहिए था और उन्हें सुधार की सलाह देनी चाहिए थी।

हिमाचल में भाजपा की अपनी समस्याएं हैं। लेकिन यह ऐसी पार्टी नहीं है जो हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे। उसने एक अवसर देखा और उसने कार्रवाई की, जिसके परिणामस्वरूप राज्यसभा की एक सीट शर्मनाक तरीके से कांग्रेस को गंवानी पड़ी, जो कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती होनी चाहिए थी। सुक्खू सरकार पर खतरा किसी भी तरह से अभी टला नहीं है। -आदिति फडणीस 


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