क्या मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा अपने उद्देश्य पूरे कर पाई है?

punjabkesari.in Saturday, Oct 04, 2025 - 05:35 AM (IST)

22 सितंबर को संयुक्त राज्य अमरीका से हरजीत कौर के निर्वासन की दर्दनाक कहानी अंतर्राष्ट्रीय मानवीय विवेक और कई बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय संधियों में निहित कानून, जिनका संयुक्त राज्य अमरीका भी एक पक्षकार है,के प्रति तिरस्कारपूर्ण अवमानना का प्रतिनिधित्व करती है। एक संप्रभु राष्ट्र के पास अनिर्दिष्ट प्रवासियों को निर्वासित करने का अधिकार होने के बावजूद, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार व्यवस्था का सम्मान निर्वासित व्यक्ति के सम्मान के अधिकार के अनुरूप निर्वासन प्रक्रियाओं की मांग करता है, जिसे अधिकारों के पदानुक्रम में सर्वोच्च मानवाधिकार के रूप में सार्वभौमिक मान्यता प्राप्त है।  यह तथ्य कि अमरीकी कानून के तहत उसे संयुक्त राज्य अमरीका में रहने पर जोर देने का कोई कानूनी अधिकार नहीं था,उसे न्यूनतम मानवाधिकारों से वंचित करने का आधार नहीं हो सकता जो उसके मानवता के आधार पर उसे प्राप्त हैं।
 
‘बीबी जी’ के नाम से सम्मानित 73 वर्षीय हरजीत कौर जो सैन फ्रांसिस्को बे एरिया के हक्र्युलिस में भारतीय प्रवासी समुदाय के बीच जानी जाती थीं और पिछले 33 वर्षों से वहीं रह रही थीं, के निर्वासन की शैली और तौर-तरीके अमरीका के मानवाधिकार और लोकतंत्र के वैश्विक नेतृत्व के दावों को प्रश्नांकित करते हैं। अमरीकी इमीग्रेशन एंड कस्टम्स एन्फोर्समैंट (आई.सी.ई) एजैंसी द्वारा एक असहाय और वृद्ध महिला के साथ किए गए अमानवीय व्यवहार की स्मृति अमरीकी जनता के विवेक पर हमेशा एक भारी बोझ बनी रहेगी। यह उनके सरकार के दोहरे आचरण की स्थायी निंदा के रूप में दर्ज होगी।

सामान्य आव्रजन जांच के लिए बुलाए जाने पर हरजीत कौर को गिरफ्तार किया गया, हथकड़ी लगाई गई और उनके पैरों में बेडिय़ां डाली गईं। उन्हें माइग्रेन, ब्लड प्रैशर और घुटनों के दर्द की दवाइयां और शाकाहारी भोजन तक से वंचित रखा गया। उन्हें ठंड में ‘एल्युमिनियम फायल’ पर सोने के लिए मजबूर किया गया और पानी तक नहीं दिया गया। परिवार और मित्रों से अलग किए जाने के कारण वे अब बेघर और असहाय हो गई हैं। उन्हें गहरी मानसिक पीड़ा दी गई और अब उनका भविष्य अनिश्चितताओं से घिरा है। एक वृद्ध महिला पर थोपे गए ये अपमानजनक अनुभव उनकी आत्मा में ऐसे अंकित हो गए हैं जैसे खुले घाव में फंसी हुई गोली जो कभी भर नहीं सकती।

यह मामला लोकतांत्रिक समाजों के विकास से संबंधित गंभीर प्रश्न उठाता है। क्या हम वास्तव में बाध्यकारी कानूनी मानदंड स्थापित कर पाए हैं जो राज्य शक्ति के दुरुपयोग को रोक सकें? क्या मानवीय मानदंड राष्ट्र-राज्यों की चेतना में वास्तव में स्थापित हो चुके हैं? क्या अब समय आ गया है कि हम स्वीकार करें कि मानवाधिकार आंदोलन पीछे हट रहा है और हमें इसके मजबूत पुनरुत्थान के लिए पुन: समर्पित होना चाहिए? मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (19 48), नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय करार (1976), शरणार्थियों और प्रवासियों के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा की न्यूयॉर्क घोषणा (2016)और अन्य कई संधियां क्या अपने उद्देश्य पूरे कर पाई हैं या फिर राजनीति द्वारा संचालित पुलिस शक्ति के सामने असहाय हो चुकी हैं?

भारत के लिए भी यह आत्ममंथन का विषय है कि क्या ‘विकसित भारत’ जो अपनी सॉफ्ट पावर के आधार पर ‘विश्व गुरु’ बनने की आकांक्षा रखता है, ने स्वयं को मानवीय गरिमा का रक्षक और अपने नागरिकों के सम्मान का संरक्षक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त रूप से प्रयास किया है। हमें यह भी तय करना होगा कि ‘रणनीतिक आत्म-संयम’ हमें किस सीमा तक दूसरे देशों के संदर्भ में अपनी संवैधानिक उद्देश्यों की पूर्ति में सीमित कर सकता है। जर्मन दार्शनिक गोएथे के शब्द प्रासंगिक हैं, ‘‘मनुष्य, जिस पर अर्ध-देव होने का घमंड है, उसके सामथ्र्य तब क्यों चूक जाते हैं जब उन्हें सबसे अधिक प्रयोग की आवश्यकता होती है?’’

हरजीत कौर की पीड़ा ने पूरे राष्ट्र को झकझोर दिया है और एक गर्वित राष्ट्र ने इसका तीव्र विरोध दर्ज किया है। यह उन शक्तिशाली देशों और नेताओं को याद दिलाता है कि उत्पीडऩ हमेशा उत्पीड़क की अंतिम निंदा का कारण बनता है। आज के चुनौतीपूर्ण समय में हमारे लिए अपनी सभ्यतागत आदर्शों के प्रति सच्चे बने रहना एक बड़ी कसौटी है। अन्याय के सामने निष्क्रियता गलत को स्थायी बनाती है और लोकतांत्रिक शक्ति की नैतिक नींव को कमजोर करती है। हरजीत कौर का निष्कासन अमरीकी पुलिस शक्ति के खुले दुरुपयोग का एक उदाहरण है,जिसने सभी सभ्यता मानदंडों की अवहेलना की। यह हमें चेतावनी देता है कि यदि हमने मानवीय मूल्यों की उपेक्षा की और उदासीनता अपनाई तो हम लोकतंत्र की बुनियादी आत्मा से ही पीछे हट जाएंगे।-अश्विनी कुमार(पूर्व केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री) 


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