‘आर्थिक मंदी’ की सच्चाई से मुंह चुरा रही सरकार

punjabkesari.in Thursday, Aug 22, 2019 - 12:41 AM (IST)

क्या देश आर्थिक मंदी की तरफ बढ़ रहा है? अब इस सवाल को और टाला नहीं जा सकता। जहां एक ओर पूरा देश जम्मू और कश्मीर के सवाल पर उलझा हुआ है, वहीं अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे सरकती जा रही है। पहले जो छोटी समस्या दिखती थी अब वह एक संकट का रूप लेती जा रही है। हाल ही में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने देश को चेताया कि आॢथक मंदी के लक्षण ङ्क्षचताजनक हैं, इस पर जल्द ही कुछ करने की जरूरत है। यहां गौरतलब है कि रघुराम राजन वह अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने पूरी दुनिया में 2008 की मंदी की समय रहते भविष्यवाणी कर ख्याति अर्जित की थी इसलिए उनकी चेतावनी को ध्यान से सुनना चाहिए।

पिछले कुछ दिनों से अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों से बुरी खबरें आ रही हैं। ऑटो उद्योग में मंदी और मजदूरों की छंटनी की खबर तो अब आम हो गई है। हालात इतने गंभीर हैं कि राहुल बजाज जैसे उद्योगपति को खुलकर कहना पड़ा कि अर्थव्यवस्था में मांग नहीं है और निवेश भी नहीं है तो फिर विकास कहां से होगा। किसानों के संगठन और डेयरी उत्पादक भी काफी समय से अपनी बदहाली का रोना रो रहे हैं। अब कपड़ा उत्पादकों ने बाकायदा विज्ञापन निकाल कर यह कहा है कि कपड़ा क्षेत्र में हालत दिनोंदिन बदतर होती जा रही है। प्रॉपर्टी का धंधा कई साल से मंदा चल रहा है। नोटबंदी के समय से खुदरा व्यापारी भी अपना धंधा चौपट होने की शिकायत कर रहे हैं।

आंकड़ों से पुष्टि
फिर भी लोगों की कही-सुनी पर भरोसा करने की बजाय वस्तुगत आंकड़ों के आधार पर अपनी राय बनानी चाहिए। हाल ही में कई आंकड़े आए जो मंदी के डर की पुष्टि करते हैं। हर तीन महीने के बाद सरकार अर्थव्यवस्था के आंकड़े जारी करती है। पिछले 9 महीने से इन आंकड़ों के हिसाब से हमारी आॢथक वृद्धि की दर कम होती जा रही है। हमारी अर्थव्यवस्था जो कभी 9 प्रतिशत से 10 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही थी वह अब 5.8 प्रतिशत की रफ्तार पर आ पहुंची है। पिछले 20 साल में ऐसा पहले सिर्फ दो बार हुआ है कि लगातार तीन तिमाही में वृद्धि दर गिरी हो। बेशक फिलहाल आॢथक वृद्धि की सालाना दर में कमी आई है, आर्थिक वृद्धि रुकी नहीं है या अर्थव्यवस्था का संकुचन शुरू नहीं हुआ लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए वृद्धि की दर का बना रहना बेहद जरूरी है इसलिए  यह खबर चिंताजनक है। 

अगर पिछले साल 2018 में जनवरी से मार्च की तिमाही और इस साल इन्हीं तीन महीनों की तुलना करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लगभग सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था में मंदी आई है। कारों की बिक्री में पिछली बार 18 प्रतिशत की बढ़ौतरी हुई थी, इस बार 23 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। स्कूटर और अन्य दोपहिया वाहनों में पिछली बार 16 प्रतिशत की बढ़ौतरी थी तो इस बार 12 प्रतिशत की गिरावट हुई है। रोजमर्रा के इस्तेमाल के उपभोक्ता माल की बिक्री में पिछली बार 12 प्रतिशत की बढ़ौतरी के मुकाबले में इस बार केवल 5 प्रतिशत की बढ़ौतरी हुई है। 

निवेश में भी यही रुझान
यही रुझान निवेश में देखा जा सकता है। पिछले साल पहली तिमाही में नए निवेश प्रोजैक्ट की राशि में 13 प्रतिशत की बढ़ौतरी हुई तो इस साल की पहली तिमाही में 80 प्रतिशत कमी आई। मंदी का मुकाबला करने में सरकारी खर्च की महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन उसमें भी कमजोरी आई है। पिछले साल की पहली तिमाही में सरकार की टैक्स आय 22 प्रतिशत बढ़ी थी इस साल मात्र 1.5 प्रतिशत ही बढ़ी। निर्यात और आयात का अंतर पिछली बार 15 प्रतिशत बढ़ा था तो इस बार 1 प्रतिशत घटा है। सारे आंकड़ों का लब्बोलुआब यह है कि मंदी की सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता। अगर यही रुझान दो तिमाही और चला तो यह पिछले तीन दशक की सबसे गंभीर स्थिति बन जाएगी। 

जी.डी.पी. के आंकड़ों में हेरफेर
मंदी से निपटा जा सकता है लेकिन उसके लिए सबसे पहले इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा। दुर्भाग्यवश सरकार अभी तक इस सच्चाई से मुंह चुरा रही है। बुखार का इलाज करने की बजाय थर्मामीटर को तोडऩे पर ध्यान दे रही है। भारत के सांख्यिकीय विभाग की यह उपलब्धि रही है कि दुनिया भर में उसके आंकड़ों की साख है लेकिन पिछले कुछ समय से सरकार जी.डी.पी. के आंकड़ों में हेरफेर कर रही है। बेरोजगारी के सर्वेक्षण के आंकड़ों को दबाया गया। स्वयं मोदी सरकार के मुख्य आॢथक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यन का मानना है कि भारत की जी.डी.पी. कम से कम दो से अढ़ाई प्रतिशत बढ़ाकर दिखाई जा रही है। 

ऐसे में और भी गहरी ङ्क्षचता की बात यह है कि धीरे-धीरे सभी अच्छे अर्थशास्त्री इस सरकार को छोड़कर जा रहे हैं। पिछले कार्यकाल में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन गए, फिर उॢजत पटेल भी बीच रास्ते में छोड़कर चले गए। अरविंद सुब्रमण्यन ने भी कार्यकाल पूरा होने से पहले सरकार को छोड़ दिया और अब आॢथक सलाहकार समिति के अध्यक्ष विवेक देवराय भी अलग हो रहे हैं। बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीति के निपुण खिलाड़ी हैं और जैसा चाहते हैं वैसे परिणाम हासिल कर सकते हैं लेकिन अर्थशास्त्र एक बिल्कुल अलग मामला है। नोटबंदी के प्रकरण ने यह दिखा दिया कि समझदार अर्थशास्त्रियों की राय के बिना काम करने का कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। एक नेता के अज्ञान और अहंकार की कीमत पूरा देश चुकाता है। मरीज का शरीर तप रहा है। तीमारदार दूसरी तरफ मुंह करके बैठा है। थर्मामीटर को तोड़ दिया गया है और अब डॉक्टर को भी भगाया जा रहा है। नतीजा क्या होगा, आप खुद ही सोच लीजिए।-योगेन्द्र यादव
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News