स्कूली शिक्षा में आपात स्थिति पर ध्यान दे सरकार

punjabkesari.in Thursday, Sep 09, 2021 - 03:55 AM (IST)

देश में कोविड के मामलों की संख्या में स्वागतयोग्य गिरावट दर्ज की गई है लेकिन निश्चित तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि कोविड महामारी का अंत हो रहा है। अमरीका, आस्ट्रेलिया, इसराईल तथा अन्य ऐसे देशों जहां अधिकतर जनसंख्या का पहले ही टीकाकरण हो चुका है, में संक्रमण की वर्तमान उच्च दर को देखते हुए हमें देश में महामारी की तीसरी लहर की संभावना के मद्देनजर सतर्क रहना चाहिए। 

कोविड महामारी ने कई तरह से इतना अधिक नुक्सान किया है कि विकास तथा वृद्धि की कोविड से पहले की स्थिति हासिल करने के लिए वर्षों और संभवत: दशकों लग सकते हैं।  एक विशेष क्षेत्र है स्कूली शिक्षा, जहां पर जो क्षति हुई है वह दीर्घकालिक है जिसका देश की प्रगति पर विपरीत प्रभाव पडऩा लाजिमी है। 

एक हालिया स्वतंत्र सर्वेक्षण ने एक झलक उपलब्ध करवाई है कि कैसे महामारी ने ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा को प्रभावित किया है। इसमें पाया गया  कि ग्रामीण क्षेत्रों में महज 8 प्रतिशत   स्कूली बच्चों ने नियमित रूप से ऑनलाइन क्लासों में हिस्सा लिया। इसमें यह भी पता लगा कि 37 प्रतिशत ने पहुंच तथा स्रोतों के अभाव के कारण ऑनलाइन क्लासें नहीं लगाईं।

अर्थशास्त्रियों जीन ड्रेज, रीतिका खेड़ा तथा विपुल पैक्रा द्वारा आयोजित ‘लॉक आऊट : एमरजैंसी रिपोर्ट ऑन स्कूल एजुकेशन’ नामक सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि महामारी के कारण पैदा वित्तीय दबाव के चलते निजी स्कूलों में पंजीकृत एक चौथाई से अधिक विद्यार्थी लॉकडाऊन के डेढ़ वर्ष के दौरान सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित हो गए। यह सर्वेक्षण 15 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में किया गया और इसके अंतर्गत 1 से 8वीं कक्षा के 1400 बच्चों को शामिल किया गया। 

ग्रामीण क्षेत्रों से अधिकतर बच्चे उभरता हुआ निम्न तथा मध्यमवर्ग बनाते हैं। बढ़ती साक्षरता दर अधिक रोजगार तथा अर्थव्यवस्था की वृद्धि का कारण बनती है। विश्व में वर्तमान में सबसे युवा देश होने तथा 50 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या के 25 वर्ष की आयु से कम होने के चलते ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा पर विपरीत प्रभाव कहीं अधिक व्यापक हो सकता है। मिड-डे मील योजना में व्यवधान भी उनके पोषक विकास, मानसिक स्वास्थ्य तथा सकल विकास को जोखिम में डालने का कारण बन सकता है। कोविड ने शहरी क्षेत्रों में भी स्कूली शिक्षा को प्रभावित किया है लेकिन स्थिति उतनी खराब नहीं है जितनी कि ग्रामीण क्षेत्रों में। 

इसी सर्वेक्षण में पाया गया कि शहरी क्षेत्रों में केवल 24 प्रतिशत बच्चों ने नियमित रूप से ऑनलाइन शिक्षा में हिस्सा लिया। यह निश्चित तौर पर एक उत्साहजनक आंकड़ा नहीं है। इसमें वे परिवार शामिल हैं जिनकी स्मार्टफोन्स तथा लैपटॉप्स तक पहुंच है। हालांकि  कुछ सीमाएं हैं तथा इन उपकरणों को इस्तेमाल करने के लिए परिवार में बड़ों को ही प्राथमिकता दी जाती है। एक अन्य सर्वेक्षण में पाया गया कि क्लासें न लगने तथा सरकार द्वारा उचित परीक्षाएं आयोजित किए बिना बच्चों को अगली क्लासों में प्रोमोट करने के निर्देशों के कारण स्कूली बच्चों के सीखने के कौशल में गिरावट आई है जिसमें पाया गया कि कक्षा पांच में पढऩे वाले केवल आधे बच्चे दूसरी कक्षा के लिए बने पाठ्यक्रम को पढऩे में सक्षम थे। 

गत अगस्त में एक संसदीय समिति की रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि डेढ़ वर्ष के लॉकडाऊन के दौरान शिक्षण के अभाव ने ‘विद्याॢथयों की आधारभूत जानकारी को कमजोर कर दिया, विशेषकर गणित, विज्ञानों  तथा स्कूल स्तर पर भाषाओं की।’ ये सब संकेत देते हैं कि देश एक शिक्षण आपातकाल का सामना कर रहा है। सरकार को अध्यापकों को पुन: प्रशिक्षित करके, पाठ्यक्रम में उचित बदलाव लाकर, ब्रिज कोॢसज तैयार करके, सरकारी स्कूलों के स्तर को ऊंचा करके तथा विद्याॢथयों के स्वास्थ्य तथा कल्याण में सुधार करके विशेषकर उनके जो समाज के वंचित वर्गों से संबंध रखते हैं, पर पूरा ध्यान देकर स्थिति से निपटना चाहिए। समयबद्ध सुझाव देने के लिए क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त लोगों की एक अधिकार प्राप्त समिति का अवश्य गठन करना चाहिए।-विपिन पब्बी
 


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