निजी विद्यालयों को ‘दुश्मन’ न माने सरकार

punjabkesari.in Wednesday, Apr 08, 2020 - 04:55 AM (IST)

हमारी विद्या भारती उत्तर क्षेत्र की कल हुई बैठक की प्रमुख चिंता विद्यालयों में फीस न आ पाने पर अध्यापकों को वेतन की व्यवस्था पर केंद्रित रही। अत्यंत सामान्य फीस में संस्कार एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने का प्रयास विद्या भारती कर रही है। हमारी ही नहीं इस समय अधिकांश सामाजिक संस्थाओं द्वारा संचालित विद्यालयों की प्रबन्ध समितियों की यही चिंता है। सरकार द्वारा चिंता का समाधान करने की बजाय सरकार ने कोरोना महामारी में निजी विद्यालयों को फीस न लेने की चेतावनी देकर चिंता को और बढ़ा दिया है। इतना ही नहीं, कुछ विद्यालयों को नोटिस जारी कर सरकार ने अपनी चेतावनी के संबंध में गम्भीरता भी दिखाने की कोशिश की है। ऐसा लगता है कि सरकार सस्ती राजनीति के कारण निजी विद्यालयों को अपने दुश्मन जैसा समझती है। 

जहां तक कोरोना महामारी में सरकार की समाज के सब अंगों को राहत पहुंचाने की कोशिश है तो यह स्वागत योग्य कदम है। निजी विद्यालय सरकार की ङ्क्षचता में उसके साथ हैं। ध्यान में आता है कि गत कुछ वर्षों से स्वयं को जनता का हितैषी दिखाने की होड़ में राजनीतिक दलों में निजी विद्यालयों को निशाने पर लेने का प्रचलन-सा हो गया है। बिडम्बना देखिए, एक ओर कोरोना की मार से बिलबिला रही सरकार खुद आॢथक संसाधनों की किल्लत के कारण अपने कर्मचारियों को आधा या इसके आसपास वेतन देने की बात कर रही है, वहीं निजी विद्यालयों को फीस न लेने का आदेश देकर लाखों अध्यापकों के वेतन पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है। विचारणीय प्रश्न है कि सर्वशक्तिमान समझी जाने वाली सरकार भी जब इस स्थिति में कर्मचारियों को वेतन देने में कठिनाई अनुभव कर रही है तो निजी विद्यालय बिना फीस के अपने अध्यापकों को वेतन कैसे दे पाएंगे? क्या व्यावसायिक घरानों द्वारा संचालित 5-7 प्रतिशत महंगे व शिक्षा का व्यापारीकरण करने में जुटे विद्यालयों की सजा शेष 90-95 प्रतिशत विद्यालयों एवं उनके अध्यापकों को देना उचित है? 

सेवा का माध्यम हैं निजी विद्यालय
अगर हम पंजाब के शिक्षा जगत का अध्ययन करें तो ध्यान में आएगा कि अधिकांश विद्यालय आर्थिक संसाधनों से जूझ रहे हैं। जहां तक शिक्षा में योगदान की बात है तो सामान्य फीस पर बहुत बड़े वर्ग को शिक्षा निजी विद्यालय ही प्रदान कर रहे हैं, सरकारी विद्यालय तो असीमित संसाधनों के बावजूद छात्र संख्या के लिए जूझ रहे हैं। संतोष का विषय है कि गत कुछ वर्षों से पंजाब में सरकारी विद्यालयों में भी शिक्षा का स्तर ऊंचा उठा है। यह स्थिति स्वागत योग्य है। शिक्षा को समॢपत देश की सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था विद्या भारती का मानना है कि किसी एक व्यक्ति, संस्था, यहां तक कि सरकार के लिए भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध करवाना सम्भव नहीं है। सरकार को यह समझना होगा कि सरकारी व निजी विद्यालय परस्पर दुश्मन नहीं बल्कि परस्पर पूरक हैं। विद्या भारती, सनातन धर्म सभा, आर्य समाज, एस.जी.पी.सी. जैसी अनेक संस्थाएं हैं जहां विद्यालय शुद्ध सेवा का माध्यम हैं। मैं अनेक प्रबन्ध समितियों के लोगों को जानता हूं जो जेब से पैसा डालकर विद्यालय चलाते हैं। इतना ही नहीं, कुछ अपवाद छोड़कर  व्यवसाय के रूप में विद्यालय चलाने वाले अधिकांश लोग भी विद्यालय की आर्थिक आवश्यकताओं के लिए हमेशा चिंतित रहते हैं। 

व्यावसायिक घरानों ने निजी विद्यालयों की छवि को पहुंचाया नुक्सान
जब से व्यावसायिक घरानों ने शिक्षा क्षेत्र में कदम रखा है तब से सारा शैक्षिक परिदृश्य ही बदल गया है। व्यावसायिक विद्यालयों ने शिक्षा को शुद्ध व्यवसाय में बदल दिया है। आधुनिक सुविधाओं से युक्त पांच सितारा भवन, बसें एवं भरपूर दिखावा... और फिर भारी-भरकम फीस! इसके बाद विद्यालय में लगाए करोड़ों रुपए वसूलने का खेल शुरू हो जाता है। लेकिन क्या सारी गलती इन्हीं व्यावसायिक घरानों की है? सच्चाई तो यह है कि सरकार की नीतियां एवं अभिभावकों की सोच ही इस सबके लिए उत्तरदायी है। ऐसे बड़े विद्यालयों में प्रवेश लेना स्टेटस सिंबल हो जाता है। 

सेवा एवं व्यावसायिक विद्यालयों में अंतर करना आवश्यक
सरकार एवं समाज को सामाजिक संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे विद्यालयों के प्रति अपनी सोच बदलनी होगी। समाज एवं सरकार को ऐसे विद्यालयों के रास्ते में कांटे बिछाने की बजाय उनके सहयोग की मुद्रा में आना होगा। सरकार को इन विद्यालयों का धन्यवाद करना चाहिए कि सरकार का बड़ा कार्य ये विद्यालय कर रहे हैं। अगर सरकार और समाज ने अपनी सोच और व्यवहार में परिवर्तन नहीं लाया तो अधिकांश निजी विद्यालय मैदान छोड़ जाएंगे। विद्या भारती शिक्षा को समाज आधारित रखना चाहती है। सरकार अगर कर सकती है तो बस इतना करे कि इन विद्यालयों के रास्ते में बाधाएं खड़ी न करे। सामाजिक संस्थाओं की तरह हमारे सभी विद्यालयों के भवन निर्माण एवं विद्यालयों का संचालन समाज के सहयोग से हो रहा है। अधिकांश विद्यालय सामान्य फीस लेकर तंगहाली में चलते हैं। कार्यकत्र्ता विद्यालयों में योग्य भौतिक एवं मानवीय संसाधन जुटाने के लिए जी-तोड़ परिश्रम करते हैं। 

हजारों की संख्या में समाज के प्रतिष्ठित लोग तन, मन एवं धन से अपनी सेवाएं विद्यालयों को देते हैं। सरकार की ओर सहायता के लिए हमने कभी हाथ नहीं पसारे। 500-700 रुपए फीस, उसमें भी फीस माफी का दबाव और रही-सही कसर सरकार के अव्यावहारिक निर्देश। कुल मिलाकर विद्यालय चलाना दिन-प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। हमारे ही नहीं बल्कि अधिकांश निजी विद्यालयों की यही स्थिति है। हमें तो फीस लेने के बाद भी विद्यालय के सारे खर्चे निकालकर अध्यापकों का वेतन देना कठिन होता है, ऐसे में बिना फीस के 2-3 महीनों के वेतन की व्यवस्था करना लगभग असंभव-सा है। आज सरकार की असफलता का ही परिणाम है कि एक अनुमान के अनुसार 56 प्रतिशत छात्रों को निजी विद्यालय तथा मात्र 44 प्रतिशत छात्रों को सरकारी विद्यालय शिक्षा दे  रहे हैं। सरकार अपनी असफलता की खीज निजी विद्यालयों को अनावश्यक तंग कर न निकाले। समाज को भी सेवा की भावना से चलाए जा रहे इन विद्यालयों के सहयोग के लिए आगे आना होगा। (लेखक विद्या भारती उत्तर क्षेत्र के क्षेत्रीय संगठन मंत्री हैं)-विजय नड्डा


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News