अच्छी बारिश से कृषि आधारित अर्थव्यवस्था होगी मजबूत

Friday, Jun 11, 2021 - 05:33 AM (IST)

कोरोना के संकट में मौसम विभाग ने अच्छी बारिश का संदेश दिया है। जून से सित बर के बीच उत्तर और पश्चिम भारत में अधिक बारिश होने की उम्मीद है। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में 108 प्रतिशत तक बारिश हो सकती है। हालांकि उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश, बिहार, झारखंड और असम के कुछ इलाकों में सामान्य से कम बारिश के संकेत मिले हैं। केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, ओडिशा और गोवा में 93 से 107 प्रतिशत तक बारिश हो सकती है। मध्य-भारत के राज्यों के कुछ क्षेत्रों में सामान्य से अधिक बारिश की संभावना है। 

डेढ़ साल से देश में कोरोना की विभीषिका के बावजूद देश के अन्नदाताओं ने ही अर्थव्यवस्था को गति देने का काम किया है। किसानों ने खेती का रकबा बढ़ा कर प्रचुर मात्रा में दलहन, तिलहन, अनाज और फल-सब्जियों का रिकॉर्ड उत्पादन किया है। वर्ष 2020-21 में 350 मिलियन टन अनाज की पैदावार हुई है। अर्थव्यवस्था के जब अन्य क्षेत्र नकारात्मक विकास दर दिखा रहे हों, तब देश के किसानों का यह योगदान किसी वरदान की तरह है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का योगदान लगभग 45 फीसदी है। इसी वजह से उन प्रवासी मजदूरों को ग्रामों में रोजी-रोजी मिल पाई, जो देश में हुई तालाबंदी के चलते अपने गांव लौट आए थे। 

हालांकि गैर-कृषि कार्यों से देश के 80 करोड़ लोगों की आजीविका चलती है लेकिन इसमें बड़ा योगदान खेती-किसानी से जुड़े उत्पादों का ही रहता है। दरअसल, कृषि ही देश का एकमात्र ऐसा व्यवसाय है, जिससे 60 प्रतिशत आबादी की रोजी-रोटी चलती है। फसल आधारित अनेक ऐसे उद्योग हैं, जिनकी बुनियाद अच्छी फसल पर ही टिकी है। इन उद्योगों में चीनी, कपड़ा, चावल, तिलहन, दाल और आटा उद्योग प्रमुख हैं। इन्हीं उद्योगों के बूते करोड़ों लोगों का जीवनयापन होता है। बावजूद इसके, भारत में सिंचित क्षेत्र महज 40 फीसदी है, इसलिए खेती की निर्भरता अच्छे मानसून पर टिकी है। 

वैसे तो इस बार मौसम विभाग के पूर्वानुमान ने अच्छी बारिश की उ मीद जगाई है लेकिन विभाग की एक अन्य रिपोर्ट चौंकाने वाली है। 50 वर्षों के अध्ययन पर केंद्रित इस रिपोर्ट के अनुसार, मौसम में जो बादल पानी बरसाते हैं, उनकी सघनता धीरे-धीरे घट रही है। इस नाते मानसून कमजोर हो जाता है। इससे आशय यह निकलता है कि देश में मानसून में बारिश का प्रतिशत लगातार घट रहा है। दरअसल जो बादल पानी बरसाते हैं, वे आसमान में 6 से साढ़े 6 हजार फुट की ऊंचाई पर होते हैं। 

इस अध्ययन से देश के नीति-नियंताओं को चेतने की जरूरत है क्योंकि हमारी खेती-किसानी और 60 फीसदी आबादी मानसून की बरसात से ही रोजी-रोटी चलाती है। यदि औसत मानसून आए तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आए तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाइयां देखने में आती हैं। मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार यदि 90 प्रतिशत से कम बारिश होती है तो उसे कमजोर मानसून कहा जाता है। 90-96 फीसदी बारिश इस दायरे में आती है। 96-104 फीसदी बारिश को सामान्य मानसून कहा जाता है। यदि बारिश 104-110 फीसदी होती है तो इसे सामान्य से अच्छा मानसून कहा जाता है। 110 प्रतिशत से ज्यादा बारिश होती है तो इसे अधिकतम मानसून कहा जाता है। 

बादलों के बरसने की क्षमता घट रही है। ऐसा जंगलों के घटते जाने के कारण हुआ है। दो दशक पहले तक कर्नाटक में वनों के 46, तमिलनाडु में 42, आंध्र प्रदेश में 63, ओडिशा में 72, पश्चिम बंगाल में 48, अविभाजित मध्य प्रदेश में 65 फीसदी भू-भाग थे, जो अब 40 प्रतिशत शेष रह गए हैं। इस कारण बादलों की मोटाई और सघनता घटती चली गई। नतीजतन पानी भी कम बरसने लगा और आपदाएं बढऩे लगीं। 

इन्हें चरम, जलवायु, परिवर्तित घटनाएं कहा गया है। 1970 से 2005 के बीच इनकी सं या 250 थी, जो 2005 से 2020 के बीच बढ़कर 310 हो गई हैं। इस चरम बदलाव के चलते जो बारिश पहले 3 दिन में होती थी, वह अब 3 घंटे में हो जाती है। पहले केरल और मुंबई में बाढ़ आती थी, जिसका विस्तार अब गुजरात और राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में भी हो गया है। बारिश के औसत दिन भी कम हुए है। पहले 1 जून से 30 सित बर के बीच 122 दिन की लंबी अवधि तक बारिश होती रहती थी। इसका औसत 880 मिलीमीटर के इर्द-गिर्द रहता था। 

अब बारिश की मात्रा तो लगभग यही रहती है लेकिन बारिश करीब 60 दिन की हो जाती है। इस वजह से बाढ़, भू-स्खलन और बादल फटने के हालात बनते हैं, जो जानमाल की तबाही से भी जुड़े होते हैं। विडंबना यह भी है कि जिन क्षेत्रों में ये हालात बनते हैं, उन्हीं में बेमौसम बारिश, तेज गर्मी और सूखे के हालात भी निर्मित होते हैं।

बरसने वाले बादल बनने के लिए गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाएं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं, तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपॉज तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापें तो करीब 15000 मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सैंटीग्रेड नीचे पाया गया है। 

यही परत धु्रव प्रदेशों के ऊपर कुल 6000 मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है और तापमान शून्य से 50 डिग्री सैन्टीग्रेड नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपॉज के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनाती है। पृथ्वी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं,उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं।

पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तबदील होते हैं और वर्षा के रूप में धरती पर बरसना शुरू होते हैं। बहरहाल मौसम में आ रहे बदलाव और बढ़ती घटनाओं के चलते हमें खेती के तरीकों में ऐसे परिवर्तन लाने होंगे, जो जलवायु में अचानक होने वाले दुष्प्रभावों से सुरक्षित रहे।-प्रमोद भार्गव

Advertising