‘गुड गवर्नैंस’ एक नेक विचार लेकिन लागू कैसे हो

punjabkesari.in Saturday, Jan 13, 2018 - 01:03 AM (IST)

2014 के आम चुनाव में विराट जन-फतवे की लहर पर सवार होकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘मैक्सिमम गवर्नैंस, मिनिमम गवर्नमैंट’’ का राग छेड़ा था। उन्होंने समाज के हर वर्ग को प्रसन्न करते हुए बेहतर गवर्नैंस उपलब्ध करवाने का भी वायदा किया था।

25 दिसम्बर को ‘गुड गवर्नैंस डे’ के मौके पर प्रधानमंत्री का संदेश बिल्कुल स्पष्ट और दो-टूक था। उन्होंने कहा था : ‘‘सुशासन यानी गुड गवर्नैंस ही राष्ट्र की प्रगति की कुंजी है।

हमारी सरकार ऐसा पारदर्शी और जवाबदेह प्रशासन उपलब्ध करवाने को प्रतिबद्ध है जो आम नागरिक की बेहतरी और कल्याण हेतु काम करेगा। मेरा सदा से यह सपना रहा है कि सरकार को नागरिकों के समीप लाया जाए।’’

ये विचार सचमुच बहुत खूबसूरत हैं। समस्या यह है कि इन नेक विचारों को जमीनी स्तर पर कार्यान्वित कैसे किया जाए। पता नहीं उनके बारे में मेरी अवधारणा आपको कैसी लगे परन्तु मेरा मानना है कि भाजपा नीत मोदी सरकार की अवधारणा थी कि प्रशासन की अक्षम कार्यप्रणाली को सही किया जाए और इसके साथ ही आमतौर पर नेहरूवादी समाजवाद के नमूने से संबंधित आर्थिक नीतियों के गैर-उपजाऊ ‘कंट्रोल तंत्र’ को भी दुरुस्त किया जाए।

अभी तक उन्होंने मात्र यह किया है कि बाबुओं को समय के पाबंद बनाने, योजना आयोग की जगह नीति आयोग लाने इत्यादि जैसे कुछ कदम उठाए हैं। दफ्तरों में समय की पाबंदी लागू करना बहुत बढिय़ा है लेकिन इतने मात्र से न तो बेहतर कार्य संस्कृति सुनिश्चित होती है और न ही हताश आम नागरिकों की याचिकाओं पर कोई त्वरित प्रतिक्रिया होती है क्योंकि आम लोग अपनी शिकायतों के निवारण हेतु सत्ता के गलियारों में किसी तत्काल जुगाड़ की व्यवस्था नहीं कर पाते।

इस बात को यहीं छोड़ते हुए हम देश को दरपेश गंभीर मुद्दों पर आते हैं- पारदॢशता कैसे सुनिश्चित की जाए; प्रशासकीय तंत्र को जवाबदेह और संवेदनशील कैसे बनाया जाए; सत्ता का विकेन्द्रीकरण तथा सत्तारूढ़ वर्ग की आम लोगों के प्रति उदासीनता का क्या समाधान निकाला जाए कि लोगों को दफ्तरों के एक मेज से दूसरे तक ठोकरें न खानी पड़ें।

मेरा मानना है कि नीतियों का वह तंत्र जो आम नागरिकों की कठिनाइयों में बढ़ौतरी ही करता हो उसे किसी भी कीमत पर लोकतंत्र में ‘गुड गवर्नैंस’ नहीं कहा जा सकता। लेकिन गत वर्ष नोटबंदी दौरान ग्रामीण और शहरी भारत में यही नजारा बहुत बड़े पैमाने पर देखने को मिला। सार्वजनिक गतिविधियों के प्रत्येक क्षेत्र में आधार नम्बर की शर्त लागू करने से भी ऐसी व्यवस्था सृजित हुई है जिससे लोगों की तकलीफें बढ़ी ही हैं और यहां तक कि उनकी प्राइवेसी खतरे में पड़ गई है।

प्रत्येक सार्वजनिक गतिविधि के क्षेत्र में राजनीतिज्ञों की ही तूती बोलती है। यही कारण है कि गवर्नैंस के छोटे-छोटे और सरल से मुद्दों का राजनीतिकरण हो जाता है और वे शब्दों की जादूगरी के माध्यम से ऐसे अर्थ धारण कर लेते हैं जिनका न तो कोई वैचारिक आधार होता है और न ही वे जनकल्याण के प्रति किसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता से जुड़े होते हैं।

ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं कि देश का राजनीतिक बाजार अवसरवादिता, क्षेत्रवादिता, व्यक्ति पूजा, जाति और सम्प्रदाय से विभेद की झांकी प्रस्तुत करता है। लेकिन मतदाता भी जानते हैं कि निर्णायक कदम कैसे उठाना है और संवेदनहीन सरकार को कैसे उखाड़ फैंकना है।

राजनीति आज एक बड़ा व्यवसाय बन चुकी है और मोदी इस व्यवसाय में मात्र एक पात्र ही हैं। ऐसे में यह बिल्कुल हैरानी की बात नहीं कि उनकी निर्णय प्रक्रिया तथा रोजमर्रा की गतिविधियों पर कारोबार और अर्थव्यवस्था के व्यापक आयाम हावी होते हैं।

नरेन्द्र मोदी निश्चय ही बड़ी-बड़ी बातें सोचते हैं और बड़े-बड़े काम करना चाहते हैं। वह योग और डिजीटल इंडिया के सपनों को समर्पित हैं लेकिन गवर्नैंस का कारोबार तो तभी कारगर ढंग से आगे बढ़ सकता है यदि ग्रामीण और शहरी भारत की जमीनी हकीकतों को सही ढंग से समझा-बूझा जाए। मैं महसूस करता हूं कि मोदी को अभी तक यह अनुभूति नहीं हुई कि पूरे भारत को ‘गुजरात माडल’ से संचालित नहीं किया जा सकता।

भारत एक ऐसा देश है जो बिल्कुल जमीन से जुड़ी हुई बुद्धिमता से प्राण वायु हासिल करता है और जो लोग आम आदमी की इस बुद्धिमता को समझने में विफल रहते हैं या इसकी अनदेखी करते हैं उन्हें चुनावी प्रक्रिया निश्चय ही कूड़े के ढेर पर फैंक देती है। मैं भारत को बहुत भव्य ढंग से आगे ले जाने के मोदी के इरादों पर कोई सवाल नहीं उठा रहा हूं लेकिन भारतीय राजनीतिक तंत्र बहुआयामी विचलनों के नागपाश में जकड़ा हुआ है।

सत्ता धन्ना सेठों की तिजौरियों में से निकलती है और सत्ता से तिजौरियां भरती हैं लेकिन जिन करोड़ों लोगों को इस लूटपाट में से कोई हिस्सा नहीं मिला वे अधीर हो रहे हैं। उनके आक्रोश और अधीरता का लाभ ऐसे लोग उठा रहे हैं जो सत्तातंत्र का हिस्सा हैं और वास्तव में वंचित और गरीब लोगों की दुख-तकलीफों के प्रति उनमें कोई संवेदना नहीं।

संवेदनाहीन शासन व्यवस्था के चलते जुगाड़बाजों और दलालों द्वारा चांदी कूटी जा रही है। भारत के ऐसे स्वरूप का तो भी किसी ने भी सपना नहीं लिया था। आज हमारे सामने सवाल यही है कि इस पतन को कैसा रोका जाए? -   हरि जयसिंह
 


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