गिलगित स्काऊटस ने ‘गवर्नर को कैद कर लिया और अस्थायी सरकार बनाई गई’

punjabkesari.in Friday, Nov 13, 2020 - 04:04 AM (IST)

‘‘आजादी की इच्छा से कश्मीर में बगावत शुरू हो गई। इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि यह बगावत रियासत की अखंडता के खिलाफ थी एक ही झटके में भारतीय दखल ने विरोध के पूरे किरदार को ही बदल कर रख दिया। ऐसा लगा जैसे लोगों की सारी उम्मीदों का दरवाजा बंद हो गया हो। क्या भारत ने अमन की बहाली की खातिर अपनी सेना में गैर-जालबदार-फोर्स को भेजा, जिसने कश्मीर की सियासी हैसियत को नहीं छुआ, इसका अलग असर हो सकता था। ऐसी हालत में पाकिस्तान कानून और शांति की बहाली में साथ खड़ा हो सकता था और रियासत के लोगों में विरोध जारी रखने के लिए कोई और कारण नहीं दिख सका।’’ 

‘‘इसलिए इसका फौरी नतीजा यह हुआ कि यह संघर्ष विरोध और मांग से तबदील होकर इस मोड़ पर पहुंचा ताकि उनको ऐसा लगे कि उनकी भलाई के लिए पुरानी रियासत से स्वयं को अलग कर लें। ‘‘दूर उत्तर में गिलगित, हुनजां, बंजी और असटर आदि के पूरे इलाकों में, जो 17500 वर्गमील पर आधारित हैं, ने स्वयं को अलग कर लिया। विलय के 4 दिन बाद 31 अक्तूबर की दरमियानी रात को गवर्नर के निवास स्थान को गिलगित स्काऊट ने घेर लिया और अगली सवेर उसे कैद कर लिया और एक अस्थाई हुकूमत बनाई गई।’’ 

‘‘अन्य दूर-दराज इलाकों में असर एक जैसा था। बौद्धमत को मानने वाले अधिक गिनती वाले लोगों के क्षेत्र लद्दाख में भी प्रभाव पड़ा। आजादी के आसार स्पष्ट हो गए थे फिर बाल्तिस्तान की राजधानी स्कर्दू के उत्तरी इलाके अभी तक शांतिपूर्ण थे। कुछ बागी नफरी फौजी श्रीनगर आबादी को धमकाने के लिए जोजिला और बलजीर के पहाड़ी रास्तों की ओर बढ़े। बाग के पश्चिमी क्षेत्र में रियासत की छावनी को बंद कर दिया गया। 

आजादी के संघर्ष का और केंद्र बनाते हुए दक्षिणी कार्रवाई बहुत तेज हो गई। यही वो इलाका था जिसने ब्रिटिश भारतीय फौज को विश्व युद्ध के दौरान 80,000 जवानों को फौजी भर्ती के लिए उपलब्ध किया था और अब यहां आजादी के लिए सबसे बड़ी फोर्स उभरी थी। यहां पर बहुत से कबायली भी साथ थे जो तोरसकरम से थे, एक लश्कर दीर से था, जेदान और ताजिक अफगानिस्तान से थे, जो सबसे बड़ा हिस्सा बना रहे थे। यहां पर दरास सबसे ज्यादा दलेरी से लड़े और उन्होंने एक भारतीय इकाई को तलवार से अपना निशाना बनाया और उसे क्रियात्मक रूप से खत्म कर दिया।’’ 

‘‘इसी बीच और भारतीय सेना कश्मीर आ रही थी। श्रीनगर में फोर्स ब्रिगेड से डिवीजन बन गई। जम्मू से अन्य ब्रिगेड पश्चिमी दिशा नौशहरा और मीरपुर की सड़क से होकर बढऩे लगी। अब यह बात स्पष्ट हो गई थी कि भारत अपनी ताकत बढ़ाएगा और अब इस बढ़ते खतरे से निपटना था।’’ ‘‘इसलिए यथा शीघ्र बिखरे हुए आजाद तत्वों के यत्नों में तालमेल बिठाना हमारा काम था। यह तो कल्पना नहीं थी कि हम भारत को कश्मीर से बाहर निकाल सकें। हमें जो करना था वह यह कि इस बात को यकीनी बनाया जाए कि भारत अब इस अंदोलन को, संघर्ष को मलियामेट न कर दे। इस दिशा में पहला कदम यह था कि साधनों को 3 महीने तक संघर्ष जारी रखने के लिए जमा किया जाए, तब तक यह एहसास था कि यह संघर्ष विश्वव्यापी रूप से स्वीकृत हो जाएगा और राष्ट्रसंघ इसमें दखल दे सकता है।’’ 

‘‘लेकिन संघर्ष को तीन महीनों तक चलाए रखने के लिए गोला-बारूद की दिक्कत थी। 10,000 से ज्यादा भारतीय जवान पहले से ही रियासत में आ चुके थे और ऐसी संभावना थी कि शीघ्र ही वे अपनी गिनती 30 से 40 हजार तक बढ़ाएंगे। इसलिए आजादी की लहर को कुचले जाने से बचाने के लिए हमारी ओर लगभग 10,000 हथियारबंद जवानों का होना जरूरी था। लोगों की कमी नहीं थी, कमी तो राइफल की थी इसलिए 10,000 की गिनती ज्यादा थी। अगर हर व्यक्ति ने केवल 100 राऊंड गोला-बारूद हर महीने खर्च करना हो तो 3 महीनों के लिए यह गिनती 30 लाख राऊंड हो जाएगी और अभी जो कुछ नजर आ रहा था वह तो 10 लाख का पांचवां हिस्सा ही था।’’ 

‘‘इसलिए आगे की कार्रवाई की मंसूबाबंदी में हमारे स्तर पर इसके सिवाय ओर कोई चारा नहीं था कि हमला और घात लगाने आदि तक की कार्रवाई सीमित रखी जाए और इस  प्रतिक्रिया का असर पूरे संघर्ष में रहता।’’ ‘‘गोला-बारूद के संबंध में भारी दोष लगाए गए। शिकायत यह कि अपने गोला-बारूद ज्यादातर हिस्सा कश्मीर से बाहर ले गए। असलियत और सच्चाई यही थी, लेकिन इसे रोकने के तो कोई साधन ही नहीं था। कबायलियों के पास आमदनी का तो कोई साधन ही नहीं था। सिवाय इसके कि जो वे दुश्मन से छीनकर बेचें अथवा वह गोला-बारूद जो उन्हें वहां हासिल हुआ अंत में इसका कुछ हिस्सा दुश्मनों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया और इसी के साथ जो नतीजा हासिल हुआ वह काफी संतोषजनक था।-पेशकश: ओम प्रकाश खेमकरणी
 


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