अफगानिस्तान में गजनी की फैलाई विषैली मानसिकता आज भी जीवित

punjabkesari.in Friday, Jul 13, 2018 - 04:01 AM (IST)

यूं तो अशांत अफगानिस्तान में आतंकवादी हमला कोई नई बात नहीं है, किंतु गत दिनों यहां अल्पसंख्यक हिंदुओं और सिखों को निशाना बनाकर किए गए आतंकी हमले ने उस कटु सत्य को फिर से रेखांकित कर दिया, जिस पर भारत सहित शेष विश्व का प्रबुद्ध वर्ग आज भी मुखर रूप और ईमानदारी से विवेचना करने से परहेज करता है। 

सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी ने 16वीं शताब्दी में जिन स्थानों का भ्रमण कर उपदेश दिया था, उनमें मान्यताओं के अनुसार अफगानिस्तान का जलालाबाद भी शामिल था इसलिए वह क्षेत्र सिखों के लिए अत्यंत पवित्र है। इन यात्राओं को पंजाबी में ‘उदासियां’ कहा जाता है। अब यह किसी त्रासदी से कम नहीं कि उसी जलालाबाद में उनके अनुयायियों को मजहबी यातनाओं और हमलों का शिकार होना पड़ रहा है और संभवत: निकट भविष्य में उनका नाम लेने वाला कोई बचेगा भी नहीं। 

एक जुलाई को अफगानिस्तान के जलालाबाद में आतंकी हमला हुआ, जिसमें संसदीय चुनाव के एकमात्र अल्पसंख्यक प्रत्याशी अवतार सिंह खालसा सहित हिंदू और सिख समुदाय के 17 लोग मारे गए। यह फिदायीन हमला उस समय हुआ जब उनका एक प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति अशरफ गनी से मिलने जा रहा था और सिख बहुल बाजार से गुजर रहा था। हमले की जिम्मेदारी आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट ने ली है, जिसमें पाकिस्तानी खुफिया एजैंसी आई.एस.आई. का भी हाथ बताया जा रहा है, क्योंकि वह अफगानिस्तान में भारत के बढ़ते प्रभाव से असहज है। 

इस घटना के सामने आने पर अनेकों समाचारपत्रों और न्यूज चैनलों ने यह तो बताया कि कैसे अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों की संख्या निरंतर घट रही है, किंतु किसी ने भी इस स्थिति के मुख्य कारणों और जिम्मेदार दर्शन पर चर्चा करने का साहस नहीं दिखाया। 1970 के दशक में अफगानी ङ्क्षहदुओं और सिखों की संख्या लगभग अढ़ाई लाख थी, जो 1990 में गृहयुद्ध के बाद निरंतर घटते हुए आज केवल 300 परिवार- अर्थात् करीब 1000 लोगों तक पहुंच गई। इतने लोग कहां गए? 

तालिबानी शासन के समय अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों को चिन्हित करने हेतु बांह पर पीले रंग का पट्टा बांधने का निर्देश था। आज जब उन्हें वहां राजनीतिक प्रतिनिधित्व और पूजा-पाठ की घोषित स्वतंत्रता प्राप्त है, तब भी आतंकी हमलों और उत्पीडऩ से तंग आकर हजारों अल्पसंख्यक दूसरे देशों में पलायन कर रहे हैैं। जलालाबाद की आतंकी घटना के बाद कुछ सिखों ने भारतीय वाणिज्य दूतावास में शरण मांगी है। वहां पहुंचे लोगों का कहना है कि हमारे पास केवल 2 विकल्प हैं- या तो हम भारत चले जाएं या फिर इस्लाम स्वीकार कर लें। इससे मुस्लिम बहुल कश्मीर का स्मरण होता है, जहां 1980-90 दशक में मजहबी उत्पीडऩ, सामूहिक हत्या और महिलाओं से सार्वजनिक बलात्कार के बाद 5 लाख से अधिक हिंदू घाटी छोडऩे के लिए विवश हुए थे। वर्षों बीत जाने के बाद भी इस भयावह स्थिति का बीजारोपण करने वाली जहरीली मानसिकता-सार्वजनिक विमर्श का केन्द्र बिंदु नहीं बन पाई है। 

लगभग 1,400 वर्ष पूर्व सांस्कृतिक-वैदिक भारत का प्रभाव अफगानिस्तान से लेकर श्रीलंका तक और दक्षिण पूर्व में वियतनाम, कंबोडिया, मलेशिया और इंडोनेशिया तक था। आज खंडित भारत को छोड़कर उस संस्कृति के जीवंत अवशेष श्रीलंका, नेपाल, भूटान और इंडोनेशिया में कुछ ही मात्रा में पाए जाते हैं। इस्लाम के आगमन के बाद कालांतर में भारत की सांस्कृतिक सीमा सिकुड़ती गई और उसका भौगोलिक-राजनीतिक मानचित्र छोटा होता गया। अफगानिस्तान में आज जिस स्थिति से हिंदू और सिख गुजर रहे हैं, ठीक वैसा ही अनुभव गैर-मुस्लिमों ने गत वर्षों में इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान और बंगलादेश में किया है। स्वतंत्रता के समय पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों की आबादी 24 प्रतिशत तो पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) में हिंदुओं और बौद्धों की संख्या 30 प्रतिशत थी। अब यदि इसी अनुपात को आधार बनाया जाए, तो आज पाकिस्तान की कुल जनसंख्या 20 करोड़ में हिंदू और सिख 4.8 करोड़ और बंगलादेश की कुल आबादी 17 करोड़ में हिंदू और बौद्ध 5.1 करोड़ होने चाहिए थे, किंतु 71 वर्ष बाद भारत की कोख से जन्मे पाकिस्तान में आज जहां वे 1.5 प्रतिशत रह गए, वहीं  बंगलादेश में उनका आंकड़ा 9 प्रतिशत से भी नीचे चला गया। 

दोनों देशों में 2 करोड़ से भी कम हिंदू हैं। आखिर शेष कहां गए? नि:संदेह, कालांतर में उन्हें इस्लाम अपनाने के लिए विवश होना पड़ा, मजहबी उत्पीडऩ से बचने के लिए भारत सहित अन्य देशों में पलायन करना पड़ा और जिन्होंने पहले दोनों विकल्पों की अवहेलना की, उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। वास्तव में, 7वीं शताब्दी से भारतीय उपमहाद्वीप में पूर्व इस्लामी सभ्यता-सांस्कृतिक अवशेषों, प्रतीकों से घृणा और उन सभी को मिटाने का दुष्चक्र जारी है। नवम्बर 971 में जन्मा महमूद गजनी जब 17 वर्ष की आयु में खलीफा बना, तब उसने प्रतिवर्ष भारत के विरुद्ध जेहाद छेडऩे की प्रतिज्ञा ली। 32 वर्ष के शासनकाल में वह एक दर्जन से अधिक बार भारत पर हमला करने में सफल रहा, जिसमें उसने काफिर-कुफ्र को तलवार के बल पर इस्लाम अपनाने के लिए विवश किया, बुतपरस्तों को मौत के घाट उतारा और लूटपाट के बाद मंदिरों-मूर्तियों को खंडित कर दिया। 

अप्रैल 1030 में गजनी की मृत्यु के बाद उसका मजहबी उद्देश्य अपरिवर्तित रहा। उसकी मानसिकता से प्रेरित होकर बामियान में चौथी-पांचवीं शताब्दी में निर्मित भगवान बुद्ध की जिस विशालकाय मूर्ति को 18वीं शताब्दी में औरंगजेब और तत्कालीन अफगान राजा अब्दुर रहमान खान ने क्षति पहुंचाई थी, उसे तालिबानियों ने 21वीं सदी के प्रारम्भ अर्थात् मार्च 2001 में मुल्ला उमर के निर्देश पर पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। 12वीं शताब्दी तक वर्तमान समय का अफगानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर घाटी मुख्य रूप से हिंदू-बौद्ध बहुल थे। 

इतिहास विशेषज्ञ विल्लेम वोगेल्संग अपनी पुस्तक ‘अफगानिस्तान: लोग, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, पर्यावरण’ में लिखते हैं, ‘8वीं और 9वीं शताब्दी में आधुनिक अफगानिस्तान का पूर्वी भाग गैर-मुस्लिम शासकों के अधीन था, यद्यपि उनमें से कई हुन्निक या तुर्की वंशीय थे, फिर भी मुस्लिम उन्हें हिंदू ही मानते थे क्योंकि वे सभी सांस्कृतिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप की मूल संस्कृति से जुड़े हुए थे। उनमें से अधिकतर हिंदू और बौद्ध थे।’ इस कालखंड में सिस्तान (वर्तमान ईरान का पूर्वी हिस्सा) के सफ्फारीद राजवंश, जिसकी स्थापना याकूब इब्न अल-लेथ अल-सफर ने की थी, अफगानिस्तान के कुछ क्षेत्रों में विजय प्राप्त कर चुके थे। 

वैदिक काल में वर्तमान अफगानिस्तान-भारत के पौराणिक 16 महाजनपदों में से एक गांधार था, जिसका वर्णन महाभारत, ऋग्वेद आदि हिंदू ग्रंथों में मिलता है। यह मौर्यकाल और कुषाण साम्राज्य का भी हिस्सा रहा, जहां बौद्ध मत फला-फूला। चौथी शताब्दी में कुषाण शासन के बाद छठी शताब्दी के प्रारम्भ में हिंदू-बौद्ध बहुल काबुलशाही वंश का शासन आया, जो नौवीं शताब्दी के आरम्भ तक रहा। इसके बाद हिंदूशाही वंश की स्थापना राजा लगर्तूमान के मंत्री कल्लर ने की। 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक हिंदूशाही वंश में कल्लर के अतिरिक्त जयपाल, आनंदपाल, त्रिलोचनपाल और भीमपाल शासक रहे। इस दौरान हिंदूशाही राजवंशों और महमूद गजनी के बीच जबरदस्त संघर्ष हुआ। 

गजनी से हारने के उपरांत जयपाल ने 1001 में आत्महत्या कर ली। बाद में उनके पुत्र आनंदपाल भी परास्त हो गए। जब सन् 1013 में पूर्वी अफगानिस्तान पर हमले के पश्चात गजनी ने राजा त्रिलोचनपाल और बाद में भीमपाल को पराजित किया, तब इस भू-खंड का मजहबी स्वरूप और चरित्र बदलना प्रारम्भ हो गया, जिसमें सुन्नी इस्लाम का वर्चस्व स्थापित हुआ, जिसका प्रभाव वर्तमान अफगानिस्तान और पाकिस्तान में है। भले ही महमूद गजनी 988 वर्ष पहले मर चुका हो, किंतु उसकी विषाक्त मानसिकता अफगानिस्तान के बड़े जनमानस में आज भी जीवित है। जलालाबाद में हुआ हालिया घातक आतंकी हमला उसी सदियों पुरानी रुग्ण शृंखला का हिस्सा है।-बलबीर पुंज


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Pardeep

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