जोहरान ममदानी से नेहरू तक आजादी का भूला हुआ सूत्र

punjabkesari.in Saturday, Nov 08, 2025 - 05:31 AM (IST)

न्यूयॉर्क सिटी ने इतिहास रच दिया है। भारतीय मूल के डैमोक्रेटिक सोशलिस्ट जोहरान ममदानी ने मंगलवार रात न्यूयॉर्क के मेयर चुनाव में जीत दर्ज की है। ममदानी के विजय भाषण में, यूजीन वी.डेब्स और जवाहरलाल नेहरू के दो प्रमुख संदर्भ, पहली नजर में अलग-अलग, असंबद्ध आह्वान लग सकते हैं। एक तेज-तर्रार आंदोलनकारी थे तो दूसरे राष्ट्र-निर्माण और राजनेता के रूप में ऊंचाइयों पर पहुंचे। डेब्स ने संयुक्त राज्य अमरीका में समाजवाद की एक सशक्त परंपरा बनाने में मदद की। वे उपनिवेशवाद-विरोध के अग्रणी व्यक्तियों में से एक हैं। फिर भी ये संदर्भ न तो बेतरतीब हैं और न ही अलंकारिक अलंकरण। वैचारिक और ऐतिहासिक रूप से ये आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं। डेब्स और नेहरू को जोडऩे वाला आश्चर्यजनक सूत्र ‘अमरीकन सिविल लिबर्टीज यूनियन’ (ए.सी.एल.यू) के संस्थापक रोजर बाल्डविन हैं। बाल्डविन और नेहरू घनिष्ठ मित्र थे। बाल्डविन ने अमरीका के बारे में नेहरू के कई विचारों को आकार दिया और उन्हें कांग्रेस पार्टी की अमरीकी रणनीति पर सलाह दी।

दोनों ने साम्राज्यवाद विरोधी लीग में तब तक साथ काम किया जब तक कि बाल्डविन ने साम्यवादी प्रभाव की चिंताओं के कारण इससे नाता नहीं तोड़ लिया। एक ऐसा रुख जो नेहरू स्वयं भी सांझा करते थे। बाल्डविन ने डेब्स के साम्राज्यवाद-विरोध और उनके विवेकपूर्ण आपत्ति के बचाव में काम किया था और वे उनसे गहराई से जुड़े थे। डेब्स नस्लवाद और अप्रवासियों के बहिष्कार को विचलन के रूप में नहीं, बल्कि पूंजीपति स्वार्थ के औजारों के रूप में देखते थे। उनके लिए, यह श्रमिक वर्ग था न कि विशेषाधिकार प्राप्त अभिजात वर्ग, जिसने वास्तव में एक खुले और महानगरीय समाज की शुरूआत की। समकालीन भाषा में, कोई कह सकता है कि शहर का महानगरीयवाद श्रम का महानगरीयवाद है, पूंजी का नहीं।

नेहरू स्वयं इस बात में रुचि रखते थे कि क्या ए.सी.एल.यू. भारत में राजनीतिक कैदियों के मुद्दे को उठा सकता है। इन हस्तियों को जोडऩे वाला वैचारिक सूत्र एक ऐतिहासिक क्षण से संबंधित था जिसे हम काफी हद तक भूल चुके हैं, जब नागरिक स्वतंत्रता, नस्लवाद-विरोध, समाजवाद, खुले समाज और उपनिवेशवाद-विरोध, सभी को एक ही मुक्ति आंदोलन का हिस्सा माना जाता था। स्वतंत्रता और न्याय अविभाज्य थे। बाल्डविन ने नेहरू को चेतावनी दी थी कि भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई दो मोर्चों पर लडऩी होगी- ‘‘अमरीकी सरकार द्वारा समर्थित वॉल स्ट्रीट के छिपे हुए दुश्मन और ब्रिटेन के खिलाफ’’। उन्होंने कहा कि ब्रिटेन हमेशा भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के राजस्व के स्रोत के रूप में बनाए रखने की कोशिश करेगा। इस दृष्टिकोण से, नागरिक स्वतंत्रताएं वामपंथ का एक कारण थीं जो इसे साम्यवाद से अलग करती थीं जो आज के स्वतंत्रतावादी विनियोग से कोसों दूर है। 

इस संबंध की सबसे महत्वपूर्ण बात यह याद दिलाना है कि नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ कभी उन लोगों के अधिकारों की रक्षा करना भी था जिन पर कत्र्तव्यनिष्ठा से आपत्ति और राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। ऐसे युग में जब राजद्रोह की परिभाषा इस हद तक विस्तृत हो गई है कि ‘राजनीतिक कैदी’ का विचार ही अर्थ खो चुका है, यह इतिहास याद रखने योग्य है। इतिहास विचित्र तरीकों से अपना चक्र पूरा करता है। यह उचित ही है कि अंतिम नेहरूवादी मनमोहन सिंह की पुत्री अमृत सिंह, ए.सी.एल.यू के अग्रणी प्रकाश स्तंभों में से एक के रूप में उभरीं। ममदानी, डेब्स और नेहरू को जोड़ते हुए, किसी नई गढ़ी हुई जैनरेशन जैड प्रगतिशील शब्दावली का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, वे 20वीं सदी की राजनीति के एक पुराने, भुला दिए गए मुहावरे को फिर से दोहरा रहे हैं। राजनीति में मार्मिक क्षण दुर्लभ होते हैं। सत्ता की क्रूरता उन्हें आसानी से ग्रहण लगा देती है। फिर भी, ममदानी द्वारा नेहरू का आह्वान नेहरू के अपने जीवन के एक महत्वपूर्ण प्रसंग की याद दिलाता है। 34 वर्ष की आयु में नगर प्रशासन से उनका पहला जुड़ाव हुआ, जब वे इलाहाबाद नगर निगम बोर्ड के अध्यक्ष चुने गए। यही वह उम्र है जब ममदानी महापौर बनते हैं। जैसा कि मोहम्मद अकील के शोध से पता चलता है, नेहरू की नगरपालिका प्राथमिकताएं, आश्चर्यजनक रूप से, हाशिए पर पड़े लोगों जैसे वेश्याओं, इक्कावालों और शहरी गरीबों के संपत्ति अधिकार पर केंद्रित थीं। यह शहर ही था जिसने नेहरू की भारत की समस्याओं की समझ को और ठोस बनाया।

परिवहन नीति मुफ्त सवारी प्रदान करने और इक्कावालों की मजदूरी बढ़ाने के बीच तनाव का केंद्र बन गई। विडंबना यह है कि भारत के बाद के राजकोषीय इतिहास को देखते हुए, नेहरू ने चुंगी का एक प्रतिगामी टैक्स के रूप में कड़ा विरोध किया। अमरीकी नेताओं और भू-राजनीति के साथ नेहरू के संबंध अक्सर तनावपूर्ण रहे। हम अक्सर अमरीकी जीवन पर गांधी के प्रभाव को याद करते हैं लेकिन नेहरू की बौद्धिक उपस्थिति को भूल जाते हैं और इसके बजाय भावी पीढ़ी की आलसी कृपालुता में भाग लेना पसंद करते हैं। मार्टिन लूथर किंग जूनियर,जिन्होंने स्वयं नेहरू को एक प्रेरणा माना, ने नेहरू की स्थायी उपस्थिति के लिए शायद सबसे भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की-‘‘मानव जाति के एक सच्चे सभ्यता के स्तर तक पहुंचने के इन सभी संघर्षों में, नेहरू का विशाल व्यक्तित्व अदृश्य रूप से विराजमान है लेकिन सभी परिषदों में महसूस किया जाता है। दुनिया उन्हें याद करती है और क्योंकि उनकी इतनी आवश्यकता है, वे आज की कांपती दुनिया में एक जीवंत शक्ति हैं।’’-प्रताप भानु मेहता


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