खाद्य और पोषण सुरक्षा : क्या विज्ञान मददगार हो सकता है

punjabkesari.in Wednesday, Nov 30, 2022 - 06:15 AM (IST)

पिछले कुछ दशकों में, विज्ञान ने दुनिया भर में भोजन, चारे एवं पशुग्रास के लिए फसलों में सुधार लाने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। दिलचस्प बात यह है कि फसल और स्वास्थ्य की देखभाल से जुड़ी प्रणाली में लगातार विकासात्मक बदलाव आया है, जिससे हमें हर गुजरते दशक के साथ नई तकनीकों की खोज करने में मदद मिली है। हालांकि वैश्विक स्तर पर, बढ़ती मानव आबादी और अधिक पौष्टिक एवं सुरक्षित तरीके से उत्पादित भोजन की बढ़ती चाहत के कारण भोजन की मांग में वृद्धि हुई है। 

इसके अलावा, हाल की भू-राजनीतिक स्थिति ने खास तौर पर निकट भविष्य में खाद्य और पोषण सुरक्षा संबंधी चिंताओं को बढ़ा दिया है। इस प्रकार, न केवल कैलोरी संबंधी जरूरतों, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों से पोषण संबंधी सुरक्षा की गिरती अवस्था के संदर्भ में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना एक अहम चुनौती बन गया है। इसलिए, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर कृषि अनुसंधान प्रणालियों ने इन जरूरतों को पूरा करने हेतु एक कम समय-सीमा में बेहतर लचीली उच्च उपज देने वाली किस्मों को हासिल करने के लिए लक्ष्य निर्धारित किए हैं। 

अनुवांशिक लाभ की दर में वांछित वृद्धि को पाने के लिए ‘गेम चेंजिंग’ लक्षणों वाले परिवर्तनकारी उपाय मुहैया कराने के लिए आधुनिक फसल प्रजनन प्लेटफार्मों में सटीक पादप प्रजनन (प्रिसिजन प्लांट ब्रीडिंग) को तेजी से कार्यान्वित किया जा रहा है। जैनेटिक इंजीनियरिंग जैसी अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियां और अब क्रिस्पर वैसी संभावनाएं उपलब्ध कराती हैं, जो अधिकांश पारंपरिक प्रजनन तकनीकों की पहुंच से परे हैं। इन तकनीकों का उद्देश्य स्थायी कृषि की ओर अग्रसर होना और बार-बार हो रहे जलवायु परिवर्तन की परिघटनाओं के प्रति लचीलापन प्रदान करना है। 

भारतीय संदर्भ में, वर्ष 1985 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत जैव प्रौद्योगिकी का एक अलग विभाग स्थापित किया गया। यह कदम भारत को खाद्यान्नों का एक प्रमुख वैश्विक निर्यातक बनाने के अलावा भारत को कृषि-जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दुनिया के अग्रणी देशों में से एक बनाने, इस स्वदेशी तकनीकी विकास को भारतीय जरूरतों के अनुरूप ढालने, भारतीय फसल की पैदावार को ‘हरित क्रांति’ के दौरान हासिल की गई ऊंचाइयों तक फिर से पहुंचाने और भारत को भविष्य की खाद्य संबंधी मांगों के अनुरूप आत्मनिर्भर बनाने सहित कई महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित है। 

वैश्विक स्तर पर आनुवंशिक रूप से संवर्धित फसलों का बाजार 6.9 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ते हुए 2021 में 19.72 बिलियन अमरीकी डॉलर से बढ़ कर 2022 में 21.08 बिलियन अमरीकी डॉलर का हो गया। इस बाजार का 2026 में 5.8 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ते हुए 26.38 बिलियन अमरीकी डॉलर का हो जाने की उम्मीद है। यह भारत के लिए वैश्विक प्लांट बायोटैक्नोलॉजी के क्षेत्र में एक प्रमुख प्रतिभागी बनने का एक बड़ा अवसर प्रदान करता है। 

अनुवांशिक रूप से संवर्धित सरसों के व्यवसायीकरण के लिए स्वीकृति सहित कुछ हालिया प्रगति तिलहन क्षेत्र में स्थिरता लाने की ओर अग्रसर है। भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र से आने वाली संकर प्रौद्योगिकी (हाइब्रिड टैक्नोलॉजी) का ऐसा ही एक नवाचार हाल ही में स्वीकृत धारा सरसों हाइब्रिड-11 (डी.एम.एच.-11) है, जो अनुवांशिक रूप से तैयार की गई सरसों की एक किस्म है। भारत अपनी खाद्य तेल की जरूरतों का लगभग 55-60 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है। वर्ष 2020-21 के दौरान लगभग 13.3 मिलियन टन खाद्य तेल का आयात 1.17 लाख करोड़ रुपए की लागत से किया गया था। यह मुख्य रूप से तिलहन सरसों से लगभग 1-1.3 टन प्रति हैक्टेयर की कम उत्पादकता के कारण है, जो 2 दशकों से अधिक समय से स्थिर बनी हुई है। 

प्लांट हाइब्रिड आमतौर पर एक ही प्रजाति के दो अनुवांशिक रूप से विविध पौधों को संकरित करके एक ऐसा पौधा प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है जिसकी पैदावार जैविक रूप से विविध किस्म के माता-पिता की तुलना में अधिक होती है। तीन वर्षों की अवधि में 8 स्थानों पर किए गए अखिल भारतीय समन्वित परीक्षणों से पता चला है कि डी.एम.एच.-11 की उपज अपने मूल वरुण की तुलना में 28 प्रतिशत अधिक है और जोनल चैक की तुलना में 37 प्रतिशत बेहतर। 

इस प्रौद्योगिकी में बार, बार्नेज और बारस्टार जीन प्रणाली शामिल हैं। जहां बार्नेज जीन पुरुष बांझपन पैदा करता है, वहीं बारस्टार जीन उर्वरता को पुनस्र्थापित करता है, जिससे उपजाऊ बीजों का उत्पादन सुनिश्चित होता है। तीसरा जीन बार, ग्लूफोसिनेट के लिए प्रतिरोध प्रदान करता है। इस प्रकार इस विकसित प्रौद्योगिकी के लाभ डी.एम.एच.-11 तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इसे बेहतर गुणवत्ता वाले उन नए संकरों के विकास के लिए एक आधार प्रौद्योगिकी के रूप में माना जा सकता है, जो भारत के बढ़ते खाद्य-तेल आयात खर्च को कम करने के लिए जरूरी हैं। कुल मिलाकर, इस किस्म की नवीन प्रौद्योगिकियां भारत को एक प्रमुख खाद्य प्रदाता के रूप में अग्रणी बनाने वाली भारतीय कृषि के लिए गेम चेंजर साबित हो सकती हैं। इस दिशा में भारत को आगे बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि नवाचार का एक मजबूत ईकोसिस्टम विकसित और उसे समर्थन प्रदान किया जाए।

(लेखिका, द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीच्यूट (टेरी), नई दिल्ली की महानिदेशक व लेखक, प्रोग्राम डायरैक्टर, सस्टेनेबल एग्रीकल्चर, टेरी तथा इंटरनैशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीच्यूट फॉर द सैमी-एरिड ट्रॉपिक्स (इक्रीसैट) के पूर्व डिप्टी डायरैक्टर जनरल फॉर रिसर्च हैं)-विभा धवन एवं किरण कुमार शर्मा


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