बलात्कार के मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किए जाएं
punjabkesari.in Friday, Aug 23, 2024 - 05:24 AM (IST)
कोलकाता में एक युवा डाक्टर के साथ बलात्कार और हत्या के बर्बर मामले ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया है। मामले और उसके बाद की घटनाओं को ठीक से न संभाल पाने के कारण उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और सी.बी.आई. जांच का आदेश देना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय ने भी हस्तक्षेप किया और चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा के लिए उपाय सुझाने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन करने के अलावा राज्य सरकार के खिलाफ सख्त कदम उठाए। आज के समाचार पत्रों में उपरोक्त शीर्षक के साथ-साथ एक और परेशान करने वाली खबर थी। अजमेर में सैंकड़ों लड़कियों से सामूहिक बलात्कार और यौन शोषण के मामले में 6 आरोपियों को दोषी करार दिया गया और सजा सुनाई गई। दुखद विडंबना यह थी कि अपराध के 32 साल बाद दोषसिद्धि हुई।
हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में अभियोजन की यह धीमी प्रक्रिया आंशिक रूप से ऐसे बर्बर अपराधों की आवृत्ति और अपराधियों में कानून के डर की कमी को स्पष्ट करती है। जबकि सैंकड़ों लड़कियों का यौन शोषण किया गया था, पुलिस ने 18 पुरुषों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया था। केवल 30 पीड़ित ही शिकायत दर्ज कराने के लिए आगे आए और उनमें से केवल 2 ने ही अंत तक लड़ाई लड़ी। सैंकड़ों या शायद हजारों स्थगन और सुनवाई के बाद अदालत ने आखिरकार 32 साल की लंबी देरी के बाद 6 आरोपियों को दोषी ठहराया और सजा सुनाई। कोलकाता बलात्कार और हत्या मामले में हस्तक्षेप करते हुए सुप्रीम कोर्ट को खुद के साथ-साथ न्यायिक प्रणाली की ओर भी ध्यान देना चाहिए था कि सिस्टम में क्या गलत है। जाहिर है कि यह कोई अपवाद नहीं है। अक्सर ऐसी खबरें आती हैं कि न्यायिक प्रक्रिया में सालों-साल लग जाते हैं जिससे अपराधियों को रोकने का उद्देश्य विफल हो जाता है।
2012 में दिल्ली में एक छोटी लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार और अत्याचार के कुख्यात निर्भया मामले के मद्देनजर देश ने काफी आघात झेला था। पूरे देश का ध्यान इस पर होने के बावजूद, 2020 में मामले के 6 आरोपियों में से 4 को फांसी पर लटकाए जाने में 8 साल लग गए। बलात्कार और हत्या के मामले अक्सर मीडिया में आते हैं और बलात्कार के कई मामले ऐसे होंगे जो रिपोर्ट नहीं किए जाते होंगे। आज के अखबारों में भी ठाणे के बदलापुर में एक सफाई कर्मचारी द्वारा स्कूल में दो 4 साल की मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार की खबर है। ऐसा लगता है कि इस तरह के अपराध करने वालों की बर्बरता की कोई सीमा नहीं है। कई मामलों में आरोपियों के बच्चे पीड़ितों से बड़े होते हैं। निर्भया मामले में आरोपी की तरह कम उम्र के अपराधी भी होते हैं। जाहिर है कि हमारे समाज में और बच्चों के लालन-पालन और उन्हें संस्कार देने के तरीके में कुछ गंभीर गड़बड़ है।
दुर्भाग्य से हमारे समाज के बड़े हिस्से में लड़के और लड़की के बीच भेदभाव एक कठोर वास्तविकता है। लड़के को लड़की पर अधिकार दिए जाने की भावना हावी होने और लड़कियों को कमतर समझने के अधिकार में बदल जाती है। माता-पिता अपने बच्चों की मानसिकता को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और कम से कम बच्चों के वयस्क होने तक उन्हें अपने कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। समग्र रूप से समाज, तथा विशेष रूप से राजनीतिक नेता भी, इस बीमार समाज के लिए उत्तरदायी हैं जिसमें हम रह रहे हैं। बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार मामले में दोषियों की रिहाई पर माला पहनाने तथा मिठाई बांटने को कैसे उचित ठहराया जा सकता है, जबकि न तो सरकार, न ही भारतीय जनता पार्टी या आर.एस.एस. (जिससे बलात्कारियों का स्वागत करने वाले लोगों का समूह जुड़ा था) ने घटना की निंदा की।
सुप्रीम कोर्ट और सरकार एक और समिति गठित करके अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते। ऐसी दर्जनों समितियों की रिपोर्ट उपलब्ध हैं और उन पर अमल नहीं किया गया है। अब समय आ गया है कि कार्रवाई की जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि इस तरह के अपराधों के दोषियों को इस उद्देश्य के लिए गठित विशेष फास्ट ट्रैक अदालतों के माध्यम से समयबद्ध अवधि के भीतर दंडित किया जाए। इससे भले ही पूरी तरह से रोकथाम नहीं हो पाए, जिसके लिए पूरे समाज को संवेदनशील बनाना होगा, लेकिन इससे बीमार अपराधी तत्वों के दिलों में कानून का डर पैदा करने में काफी मदद मिलेगी।-विपिन पब्बी