द्रौपदी मुर्मू : देश को गौरवान्वित करने वाली एक प्रेरणादायक कहानी

punjabkesari.in Wednesday, Jul 27, 2022 - 04:56 AM (IST)

यह कहानी न केवल भारत को गौरवान्वित करती है, अपितु प्रतिकूल परिस्थितियों, व्यक्तिगत त्रासदियों, संघर्ष, दृढ़निश्चय और अनेक विषमताओं से जूझते हुए सफलता, हमारे लोकतंत्र की भावना का प्रतिबिंब, संभावनाओं को पूर्ण करने का प्रमाण तथा आशाओं और नए भारत का प्रतिनिधित्व करने की एक प्रेरणाप्रद कहानी है।

एक संथाली आदिवासी महिला की ओडिशा के गरीब रैरंगपुर क्षेत्र से दिल्ली के रायसीना हिल में सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचना भारतीय लोकतंत्र की मजबूती को दर्शाता है। जी हां, मैं भारत की 15वीं और दूसरी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की बात कर रही हूं। 

64 वर्षीय द्रौपदी मुर्मू अब तक भारत की सबसे कम उम्र की राष्ट्रपति हैं। मुर्मू एक छोटे से गांव में पैदा हुईं, जहां पर प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना भी एक सपने के समान था और वह अपने गांव से पहली स्नातक थीं। उन्होंने अपने जीवन की शुरूआत एक अध्यापिका के रूप में की और 1997 में भाजपा में शामिल हुईं तथा एक बार पार्षद से लेकर ओडिशा में 2 बार विधायक, फिर मंत्री बनना, फिर 2015 से 2021 तक झारखंड की पहली महिला राज्यपाल बनीं। 

उनके धैर्य और साहस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि किस प्रकार वह व्यक्तिगत त्रासदी से उबरीं। जब 2009 में उनके ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु हुई और वे पूरी तरह टूट चुकी थीं तथा अवसाद का शिकार हो चुकी थीं। फिर उन्होंने योग और ध्यान का सहारा लिया। 2013 में उनके छोटे बेटे और बाद में उनके भाई और मां की मृत्यु हो गई। उन्होंने कहा मैंने अपने जीवन में बड़े दुखों का सामना किया और 6 माह के भीतर अपने परिवार के 3 सदस्यों की मौत देखी। उसके बाद मेरे पति की मृत्यु हुई और एक समय ऐसा था जब मुुझे लगा कि मैं किसी भी समय मर सकती हूं। 

राजनीतिक दृष्टि से, राष्ट्रपति पद के लिए उनके नामांकन को एक मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है, जिसने विपक्ष की एकता को बिखेर दिया और यह आदिवासी क्षेत्रों में अपने जनाधार को बढ़ाने के भाजपा के निरंतर प्रयासों को भी दर्शाता है। भाजपा ग्रामीण और सीमान्त पृष्ठभूमि वाली अधिक से अधिक महिलाओं को अपनी विचारधारा में लाना चाहती है और अपने प्रतिनिधित्व को बढ़ाना चाहती है। 

उनकी जीत इस बात को रेखांकित करती है कि जिन मुद्दों का विपक्ष पर कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं पड़ता, उन पर वे एकजुट नहीं हो सकते और यह इस बात से सिद्ध हो जाता है कि विपक्ष के 17 सांसदों और 126 विधायकों ने मुर्मू को अपना मत दिया। फलस्वरूप धर्मनिरपेक्ष बनाम सांप्रदायिक के नए भारत के लिए वैचारिक संघर्ष में विपक्ष न केवल वास्तविक मायनों में, अपितु प्रतीकात्मक अर्थों में भी पराजित हुआ। 

इस सबके मद्देनजर आदिवासी महिला का राष्ट्रपति चुना जाना हमारे लोकतंत्र के लिए एक नई आशा है और यह इस बात का द्योतक है कि सीमान्त व्यक्ति को भी गरिमा मिल सकती है। दस करोड़ से अधिक आदिवासी समुदाय के प्रतिनिधि, जिनकी जनसंख्या देश में 9 प्रतिशत के लगभग है और जो अनेक ढांचागत असमानताओं का सामना कर रहा है, उस समुदाय से एक महिला का राष्ट्रपति बनना भारत के लोकतंत्र की दृढ़ता का परिचायक है। आशा की जाती है कि मुर्मू सार्वजनिक क्षेत्र में नैतिक स्तरों, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा में गिरावट आदि पर ध्यान केन्द्रित करेंगी। 

यह सच है कि राष्ट्रपति का पद अपनी संवैधानिक सीमाओं में बंधा हुआ है और एक राष्ट्राध्यक्ष के रूप में राष्ट्रपति अपनी मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है, किंतु उसे सलाह, चेतावनी और प्रोत्साहन देने का अधिकार है। वह सरकार द्वारा लिए गए किसी भी निर्णय पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। इस तरह राष्ट्रपति को संविधान की रक्षा करने का अधिकार दिया गया है और वह किसी भी दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने से पूर्व केन्द्र से संगत प्रश्न पूछ और अपनी पूर्ण संतुष्टि कर सकता है। 

देश स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। वर्ष 2022 का भारत 1947 का भारत नहीं है। संसदीय लोकतंत्र सामन्तशाही सत्ता के दलालों में परिवर्तित हो गया है। सरकार और विपक्ष के बीच गहरे मतभेद, अविश्वास है, साथ ही देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार, धन-बल, बाहुबल, व्यवस्था का धराशायी होना आदि देखने को मिल रहा है और एक नई शुरूआत की आवश्यकता है। इस स्थिति में राष्ट्रपति की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है। 

कुल मिलाकर नई राष्ट्रपति को भारतीय लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के लिए महत्वपूर्ण प्रश्नों का निराकरण करना होगा। हमें यह बात ध्यान में रखनी होगी कि राष्ट्रपति एक औपचारिक राष्ट्राध्यक्ष नहीं हैं, न ही, जैसा कि उनके बारे में कह सकते हैं कि रबर स्टैंप हैं। राष्ट्रपति महोदया को समझना होगा कि राष्ट्र के एक निर्वाचित प्रमुख के रूप में उनकी भूमिका वंशानुगत राजाओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। 

आशा है कि राष्ट्रपति महोदया हमारी राजनीति के भीतर बढ़ रहे विरोधाभासों को संतुलित करने का प्रयास और बिना किसी भय या पक्षपात के अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा करेंगी। उनका नैतिक दायित्व है कि जब लोगों के हित में निर्णय न लिए जा रहे हों, वे अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन करें। क्या वह एक रोल मॉडल बनेंगी? क्या वह भारत की स्थिरता और एकता का आश्वासन देंगी? क्या वह एक ऐसी विरासत छोड़ेंगी, जो उनके राष्ट्रपति पद तक पहुंचने के क्षण के शक्तिशाली वायदों के साथ न्याय करे, या एक रबर स्टैंप बनी रहेंगी। 

इस संबंध में अब्राहम लिंकन की प्रसिद्ध उक्ति उल्लेखनीय है, ‘‘जनता की राय सब कुछ है। जनता की भावना के साथ कुछ भी विफल नहीं हो सकता और इसके बिना कुछ भी सफल नहीं हो सकता। फलत: जो जनता की राय को अपने पक्ष में करता है, वह उन लोगों से अधिक प्रभावी होता है, जो कानून बनाते हैं या निर्णयों की घोषणा करते हैं।’’-पूनम आई. कौशिश
 


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