रेवडिय़ों की नौटंकी : हमारा पैसा नेताओं ने हड़पा

punjabkesari.in Wednesday, Sep 18, 2024 - 05:01 AM (IST)

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक दलों द्वारा ‘मुझे वोट दो’ के लिए एक अच्छा चुनावी गेम बनाया गया है और उसे ऊपर से मुफ्त चुनावी रेवडिय़ों से सजाया गया है। यह इस आशा के साथ तैयार किया गया है कि लोकप्रिय वायदे और मुफ्त रेवडिय़ां युक्तसंगत नीतियों और सतत् कार्यक्रमों से अधिक चुनावी प्रतिफल देते हैं।

इस राजनीतिक खेल में स्वस्थ आर्थिक सोच को दरकिनार कर दिया गया है और इन मुफ्त रेवडिय़ों का वित्तीय प्रभाव हजारों करोड़ रुपए में है, जिससे पहले से भारी वित्तीय बोझ झेल रहे राजकोष पर और प्रभाव पड़ेगा क्योंकि जनता के पैसे को नेता अपना पैसा समझ कर खर्च करते हैं। इसमें किसानों, बेरोजगारों, महिलाओं, अन्य पिछड़े वर्गों और गरीबी रेखा से नीचे रह रहे परिवारों के लिए रेवडिय़ों और ऋण माफी की योजनाओं की घोषणा करके इसे वोट प्रतिशत बनाने का प्रयास किया गया है। सामाजिक और आर्थिक उत्थान को अब वोट बैंक के राजनीतिक पैमाने पर मापा जा रहा है, चाहे कांग्रेस, भाजपा या कोई भी दल हो। 

हरियाणा भाजपा द्वारा पेश की गई आकर्षक रेवडिय़ों में एक लाख किसानों के 133 करोड़ रुपए का ऋण माफ करना, खरीफ की फसल के लिए प्रति एकड़ 2,000 रुपए की घोषणा, एल.पी.जी. सिलैंडर के दामों में 500 रुपए की कमी करना, आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए मुफ्त बस सेवा, बेरोजगार युवाओं के लिए 1200 रुपए से लेकर 3500 रुपए तक बेरोजगारी भत्ता, आंगनबाड़ी कार्यकत्र्ताओं के लिए 1100 रुपए, 10 रुपए में अटल कैंटीन में खाना उपलब्ध कराना शामिल है। हालांकि स्वयं प्रधानमंत्री ने इस रेवड़ी संस्कृति की आलोचना की है। कांग्रेस ने 1 लाख स्थायी रोजगार देने, बुजुर्गों को 6,000 रुपए पैंशन, 300 यूनिट मुफ्त बिजली, 500 रुपए में गैस सिलैंडर, सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए वन रैंक वन पैंशन का वायदा किया है तो ‘आप’ ने अपनी 5 गारंटियां पेश की हैं, जिनमें प्रत्येक महिला के लिए 1000 रुपए, प्रत्येक बेरोजगार के लिए रोजगार, मुफ्त बिजली, चिकित्सा उपचार और शिक्षा शामिल हैं, हालांकि ‘आप’ अभी पड़ोसी पंजाब में अपने ऐसे ही वायदे पूरे नहीं कर पाई है, जहां पर वह ढाई वर्षों से सत्ता में है। 

जम्मू-कश्मीर में भाजपा ने महिलाओं और युवाओं पर ध्यान केन्द्रित किया है और प्रत्येक परिवार में सबसे वरिष्ठ महिला को 18,000 रुपए प्रति माह, प्रति वर्ष 2 मुफ्त एल.पी.जी. सिलैंडर देने, रोजगार के 5 लाख अवसर सृजित करने, कालेज छात्रों के लिए 3,000 रुपए प्रति वर्ष यात्रा भत्ता, दो वर्ष के लिए 10,000 रुपए कोचिंग शुल्क, दूरदराज के क्षेत्रों के उच्च माध्यमिक कक्षाओं में पढ़ रहे छात्रों को  लैपटॉप देने का वायदा किया है। कांग्रेस ने प्रत्येक परिवार की महिला मुखिया को 3000 रुपए प्रति माह, महिला उद्यमियों को 5 लाख तक का ब्याज मुक्त ऋण, प्रत्येक परिवार को 25 लाख का स्वास्थ्य बीमा, प्रति व्यक्ति को 11 किलो खाद्यान्न, एक लाख रिक्तियों को भरने का वायदा किया है। नैशनल कांफ्रैंस और पी.डी.पी. ने भी ऐसे ही वायदे किए हैं और इस तरह यह ‘रिंगारिंगा रोजेस’ का लोकप्रिय तड़का जारी है। 

प्रश्न उठता है कि क्या हमारी मेहनत की कमाई को किसी पार्टी के वोट बैंक को मजबूत करने के लिए खर्च किया जाएगा? क्या नेताओं और दलों को इन वायदों को पूरा करने के लिए अपनी जेब से नहीं देना चाहिए? बिल्कुल देना चाहिए। क्या ऋण माफ किया जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं। ये वायदे अच्छे हैं या बुरे, इसका निर्णय कौन करेगा? कांग्रेस अध्यक्ष खरगे इसका उत्तर जनता की शक्ति कह कर देते हैं। क्या वास्तव में ऐसा है? आप किसे बेवकूफ  बना रहे हैं?  सच यह है कि पार्टियों का आज लोकप्रिय दिखना उनकी मजबूरी हो गई है। केवल सांकेतिकता या राजनीतिक लॉलीपॉप से मतदाता आकर्षित नहीं होते, किंतु क्या हमारे सत्तालोलुप नेताओं को आधुनिक सामंतवादी महाराजाओं की तरह व्यवहार करना चाहिए, जहां पर भूखे और नंगे गरीब वंचित लोग इन माई-बापों की घंटों तक प्रतीक्षा करें कि वे ऐसे पैसे को बांटें, जो उनका नहीं है? इन नेताओंं के लिए आम जनता केवल एक संख्या है। इसलिए नागरिकों की उपेक्षा की जाती है। तथापि कटु सच यह है कि आर्थिक क्षेत्रों में राजनीतिक वायदों की एक लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए और इन वायदों से अर्थव्यवस्था को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। 

अत्यधिक गरीबी, आर्थिक संकट और बेरोजगारी के आधार पर ऋण माफी, सस्ता चावल उपलब्ध कराना, मुफ्त बिजली देने के आश्वासन को उचित ठहराया जा सकता है। किंतु हम लोग विकास और समृद्धि, बेहतर शिक्षण संस्थानों, स्वास्थ्य सुविधाओं, अस्पतालों, अवसंरचना आदि के लिए कर देते हैं, न कि चुनावी रेवडिय़ों के लिए। लोकप्रिय योजना को लागू करने का व्यय अंतत: या तो अधिक कर लगाकर पूरा किया जाता है, या महंगाई बढ़ाकर। भारत के गरीबों की समस्या उनकी गरीबी नहीं है, जिसमें सुधार हो सकता है, अपितु हमारे नेतागणों की निर्ममता है, जिसमें गरीब के लिए विनम्रता और करूणा नहीं है। देखिए किस तरह हिमाचल प्रदेश की सरकार ऋण के बोझ बढऩे से अपने चुनावी वायदों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रही है और इसके चलते राज्य के मंत्रियों ने निर्णय किया है कि वे 2 माह तक अपना वेतन नहीं लेंगे। मध्य प्रदेश में लाडली बहन योजना के लिए भाजपा के लिए गेम चेंजर बनी हो, किंतु उसके चलते सरकार का वित्तीय बोझ बढ़ा है। अगस्त में राज्य सरकार ने 10,000 करोड़ का ऋण लिया है और इस तरह राज्य का कुल ऋण 4,01,856 करोड़ तक पहुंच गया है। 

यही स्थिति पंजाब की आप सरकार की है जिसकी बकाया देयता 3,51,130 करोड़ है और वह अपने चुनावी वायदों को पूरा नहीं कर पा रही तथा किसानों और लोगों को मुफ्त बिजली देने के लिए उस पर 17,110 करोड़ रुपए का बोझ पड़ रहा है। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार को भी अपनी पांच चुनावी गारंटियों को पूरा करने के लिए 60,000 करोड़ रुपए की आवश्यकता है। राज्य सरकार ने डीजल पर बिक्री कर बढ़ा दिया है। तेलंगाना की कांग्रेस सरकार की भी यही स्थिति है और उसे किसानों का ऋण माफ करने के लिए 2100 करोड़ रुपए की आवश्यकता है। हमारे नेता विकास की रणनीति बनाने में विफल रहे हैं, जिसमें बहुलवाद और आर्थिक विषमताओं को ध्यान में रखा जा सकता था। दूसरी ओर इन मुफ्त रेवडिय़ों का प्रभाव यह पड़ रहा है कि आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है, महंगाई और मुद्रास्फीति बढ़ती जा रही है।

समय आ गया है कि हमारे नेता एक बड़ी तस्वीर पर ध्यान दें, जहां पर त्वरित और व्यापक विकास के माध्यम से गरीबी की समस्या का निराकरण करने में वे अपनी ऊर्जा लगाएं और साथ ही सेवाओं तथा वस्तुओं को पहुंचाने के तंत्र को सुदढ़ किया जाए। हमारे नेताओं को कल्याणकारी और लोकप्रियतावादी सरकारों के बीच अंतर करना चाहिए। आम आदमी मूर्ख नहीं है। प्रत्येक लोकप्रिय नारा उसकी जागरूकता बढ़ा रहा है। जब तक गरीबी की समस्या का निराकरण नहीं किया जाता, तब तक मतदाताओं को लुभाने के लिए फर्जी वायदे किए जाते रहेंगे और इससे हमारा लोकतंत्र भी खतरे में आ सकता है। लोकतंत्र सरकारी पैसे को प्राइवेट पैसे की तरह खर्च करने की अनुमति नहीं दे सकता। आपका क्या मत है?-पूनम आई. कौशिश
 


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