हमारे बचपन के समय की खेती-किसानी
punjabkesari.in Friday, Nov 08, 2024 - 06:10 AM (IST)
संभव है आज के मशीनी युग के नौजवान किसान ने हमारे बचपन के किसान को नहीं देखा होगा? तब के खेती-औजारों का भी आज के युवा किसान को पता नहीं होगा। आज किसान के पास ट्रैक्टर-ट्राली, खेती के नए यंत्र, माडर्न तकनीक, नई खादें, नए बीज हैं, खेती करने के नए-नए ढंग सीख लिए हैं। आज के किसानी हाथों को नई क्रांति मिल गई है। खेती संबंधी नए-नए कालेज और विश्वविद्यालय नए-नए अनुसंधान कर रहे हैं।
हमारे वक्त किसान के सामने अंधेरा ही अंधेरा था। वह कर्ज और साहूकार के बही-खातों से डरा-सहमा था। यदि मेरे वक्त के किसान की दशा देखनी है तो आज का किसान मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ को पढ़ लें। किसान के गंभीर हालात को और गंभीरता से जानना है तो बॉलीवुड के महान लेखक, निर्देशक और निर्माता स्वर्गीय महबूब खान की कालजयी फिल्म ‘मदर इंडिया’ के एक किसानी दृश्य को देखकर 1940 से 1955 तक के किसानी हालात को अवश्य देख लें।
तब किसान के पास दो बैल, एक हल पंजाली और दो अरलियां ही उसकी ‘जोत’ थी। दो घुमां खेती में सारा किसान परिवार लगा रहता। अनपढ़ किसान के लिए तब खेती व्यापार नहीं, अपितु गुजर-बसर करने का एक साधन था। ऊपर से अफसोस यह कि किसान की पकी फसल सुखीलाल जैसा साहूकार अपने झूठे बही-खातों से लूट लेता था। अगर फसल से कर्जा न चुक सकता तो सुखीलाल उसके बैल हांक ले जाता अथवा किसान की पत्नी का ‘मंगलसूत्र’ वापस न करता। है न तब के किसान की मानस विडम्बना?
आज तो किसान कर्ज तले दब कर आत्महत्या कर लेता है, तब तो पंडित लोग ‘गोदान’ किए बिना मरने भी नहीं देते थे। आज का बी.ए. पास नौजवान ट्रैक्टर चलाने में शर्म महसूस करता है, तब युवा किसान वर्षा के लिए चौबीस घंटे आसमान और भगवान को देखता रहता था। जिस गांव थरियाल (माधोपुर) में मेरे चाचू छोटी-मोटी खेती करते थे उसमें 6 ‘बन्ड्रों’ की जनता के लिए सिर्फ एक प्राचीन कुआं था जिसमें 37 हाथ लज्ज पड़ती थी। सिर पर घड़े उठाए महिलाओं का उस कुएं से पीने के पानी के लिए सतत् मेला लगा रहता था। घर की एक महिला तो सिर्फ पानी ढोने में ही लगी रहती थी।
खेती में चाचू का हाथ बंटाते-बंटाते लोगों के पशु भी चराने होते थे क्योंकि चाचू की खेती से परिवार पालना मुश्किल था। हम तीन-चार लड़के गांव के पशु चराते और बारी-बारी से ‘मोडिय़ां’ भी करते। 1950 में 60 रुपए जोड़ कर थरियाल के पास पड़ते जैनी गांव से जाट परिवार से दो बैल भी जोतने के लिए खरीद लाए। सेहत-सुविधाओं का तब किसी को ज्ञान तक नहीं था। तब स्कूलों में लड़कियां कतई नहीं पढ़ती थीं। गांव के 90 प्रतिशत लोग अनपढ़ थे। उस गांव में सिर्फ गेहूं की फसल साल भर में होती। कुछेक धनी किसान चावल की खेती के लिए तब ‘अठघड़’ इलाके में अपनी जोतें लेकर चले जाते। आज तो उस गांव में सिंचाई के साधन उपलब्ध हो गए हैं।
जब हम खेती करते तो मुतफरके का एक बड़ा तालाब तथा तीन छोटे-छोटे तालाब थे। आज के किसानों ने कुएं बेकार कर दिए, गांव की बावडिय़ां और तालाबों पर किसानों ने ही कब्जे कर लिए। जो तालाब हैं उनमें गांव का गंदा पानी भर दिया। तालाब का पानी अब पशु भी नहीं पीते। इसे समय का फेर समझो, आज गांव की धरती का स्वरूप ही नहीं बदला, किसानी स्वभाव भी बदल गया। किसी में संवेदना, प्यार-मोहब्बत रही ही नहीं। तब किसानों के पास गांवों में केवल झोंपडिय़ां ही होती थीं। झोंपडिय़ों में स्नेह बहुत देखा। फिर कृषि क्षेत्र में असमानता का दौर चल पड़ा।
गांव की शादी में महिलाएं लड़के वालों को सिठनियां देतीं, बारातियों को लोट-पोट कर देतीं। कभी लड़के वालों को मीठी गालियां भी देतीं। विदाई के वक्त रोती विवाहित लड़की की झोली में चवन्नी और ठूठी डाली जाती। सारे गांव का माहौल गमगीन हो जाता। विवाह से पहले महीना भर ‘सुहाग’ गाए जाते। घर वाले ‘गुड़ की रेवड़ी’, ‘बताशे’ या ‘मूंगफली’ सुहाग गाने वालियों की झोलियों में भर देते। अब वह शादियां कहां? वह बारातें कहां? बारात गांव से लड़के को बिहाने जाती तो बारातियों का रौब ही अलग होता। बारात में घोड़े, ऊंट सजाकर उन पर बाराती बैठकर जाते मैंने स्वयं देखे। विवाह समारोह में सारा गांव भागीदार बनता। दहेज की प्रदर्शनी लगाई जाती। गाय-भैंस दहेज में दी जातीं।
आज गांवों में बड़े-बड़े रिजोर्ट बन गए हैं। मिनटों में शादी की सभी रस्में पूरी कर दी जाती हैं। विवाह पढ़ाने वाला पंडित पोथी वाचने ही लगता तो दूल्हा-दुल्हन हनीमून को चल देते। चट मंगनी, पट विवाह। डोली पर पैसे फैंकने, दूल्हे को शगुन डालना गांव की शान था। आधुनिक किसान यह भी जान ले कि खेती बीजने सर्दी में सुबह ‘कुक्कड़ बांग’ पर उठ जाता। खेत पहले ही उपज को तैयार करने वाला बना होता। हम पंजाली के दोनों रस्सों को ठीक कर बैलों को हांक देते। चाचू मेरा हल चलाता और मैं पीछे-पीछे ‘केरा’ डालता चलता, हाथ सुन्न हो जाते। पर किसानी धुन पक्की। कभी-कभार दूसरे किसानों के खेतों से तरबूज चुरा लाते। क्या मजेदार किसानी थी। तब किसानी व्यवसाय नहीं परिवार पालने की एक पद्धति थी। गेहूं की फसल तैयार हुई तो ‘वाढियां’ (कटाई) शुरू हो जातीं। गेहूं की भरियों के अखाड़े बन जाते।
कर्ज में डूबे किसान के घर बही खाते लिए साहूकार आ जाते। झूठे बही खातों से किसान लुट जाते। तीन हिस्से तो किसान की उपज के साहूकार ले जाता। फिर कर्ज वहीं का वहीं रहता। खेती में किसान का सारा परिवार साल भर पसीना बहाता। आज के मशीनी युग में आधुनिकता का जामा पहने किसान को 1955 के पहले के किसानों की आॢथक दशा का अनुभव नहीं है। आज का किसान सिर्फ भूसा ही बेचे तो कृषि के खर्चे निकाल सकता है।
हमारे वक्त की खाद भी गड्डे खोद कर तैयार करके खेतों में बिखेरी जाती थी। आज नई-नई खादों, नए-नए खेती करने के ढंग, नए-नए बीज तैयार किए जा रहे हैं। आज खेतों की मिट्टी रासायनिक खादों से कड़वी और कसीली हो गई। पंजाब की मालवा बैल्ट तो बंजर हो गई। सेम वहां की धरती से जाती ही नहीं। बढ़ती आबादी और सिमटती जाती जमीन समस्या बन गई है। यदि वनों का इसी तरह से बेरोक-टोक काटना चलता रहा तो पंजाब रेगिस्तान बन जाएगा। पंजाब में मौसम पहले ही बेरहम बना हुआ है। सरकारों को वातावरण, पर्यावरण की कोई सुध ही नहीं। पंजाब का किसान कराह रहा है। दूध, दही, पनीर, सब्जियां, मिठाइयां, सब बनावटी। मनुष्य मर रहा है। प्रैस मीडिया को सरकार का गुणगान करने के सिवाय कुछ आता ही नहीं। -मा. मोहन लाल (पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)