भारत-पाक संबंधों को लेकर बहुत आशावादी न हों

punjabkesari.in Tuesday, Oct 22, 2024 - 05:23 AM (IST)

भारत-पाकिस्तान के बीच व्याप्त गतिरोध को क्षेत्रीय और बहुपक्षीय बैठक में भारत की भागीदारी के आड़े नहीं आना चाहिए, यह तर्कसंगत और आवश्यक भी लगता है। लेकिन हाल ही में उनके संबंधों के पहलुओं को लेकर इतनी विषाक्तता और नकारात्मकता रही है कि किसी तरह से एस.सी.ओ. बैठक में भाग लेना अपने आप में कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। इसके विपरीत को फिर से दोहराना उचित है। इसमें भाग न लेने का मतलब यह होता कि भारत अपने ही क्षेत्र में अलग-थलग पड़ जाता। इसलिए इस तथ्य के बावजूद कि बैठक में द्विपक्षीय सामग्री कम थी (क्रिकेट संबंधों को फिर से हवा देने की अनौपचारिक बातचीत के साथ)फिर भी यह बैठक हुई जो भारत-पाकिस्तान संबंधों के वर्तमान प्रक्षेपवक्र में एक तरह से एक संकेतक है। जिसके अंतर्गत एस.सी.ओ. शिखर सम्मेलन में हमारी भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है।

क्या कोई व्यापक संदर्भ है जिसके भीतर एस.सी.ओ. शिखर सम्मेलन में हमारी भागीदारी देखी जा सकती है? आशावादी लोग तर्क दे सकते हैं कि इससे अन्य संभावनाओं के लिए, भले ही थोड़ा-बहुत, द्वार खुलते हैं। दक्षिण एशियाई  क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) का वाॢषक शिखर सम्मेलन 2016 में पाकिस्तान में होने वाला था क्योंकि संघ की अध्यक्षता नेपाल से पाकिस्तान को मिल गई है। हालांकि, 2016 से देशों के बीच मतभेद लगातार बढ़ रहे हैं और 2019 में जम्मू-कश्मीर विधायी परिवर्तनों के बाद इसमें और बढौ़तरी हो गई है जिसका मतलब है कि भारत पाकिस्तान में ऐसी बैठक में भाग लेने के लिए सहमत नहीं होगा। परिणामस्वरूप सार्क 2014 से अपने पारंपरिक वार्षिक शिखर सम्मेलन के बिना रहा है। यह तकनीकी और नौकरशाही के संदर्भ में जीवित है, लेकिन अन्यथा एक तरह से अधर में है। सार्क शिखर सम्मेलनों में कुछ समय के लिए देरी होना असामान्य नहीं है।

क्या यह तथ्य कि जयशंकर बहुपक्षीय क्षेत्रीय बैठक के लिए पाकिस्तान की यात्रा कर सकते हैं, सार्क शिखर सम्मेलन के लिए एक मिसाल पेश करता है? यहां दो बिंदु प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। पहला, सार्क शिखर सम्मेलनों में पारंपरिक रूप से प्रधानमंत्री शामिल होते हैं और इसलिए, दोनों आयोजनों का पैमाना तुलनीय नहीं है। दूसरा, दुनिया में कहीं भी विदेश नीति और कूटनीति शायद ही कभी मिसालों या ताॢकक स्थिरता से निर्देशित होती है। इसलिए, इस सवाल का जवाब कि क्या अब भारत के लिए सार्क शिखर सम्मेलन में भाग लेने का द्वार खुला है, इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत वर्तमान दक्षिण एशियाई संदर्भ में शिखर सम्मेलन के महत्व का आकलन कैसे करता है और, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या उसे लगता है कि पाकिस्तान के संबंध में अब कुछ बदलाव वांछनीय हैं।

भारत-पाकिस्तान के बीच संबंधों में उतार-चढ़ाव दोनों देशों के गठन के बाद से ही देखने को मिल रहे हैं। यह हमारे लगभग सभी पड़ोसियों या वास्तव में दुनिया में कहीं भी पड़ोसी देशों के साथ हमारे संबंधों जैसा ही है। अंतर यह है कि मौजूदा गिरावट अब तक की सबसे लंबी है। उरी और बालाकोट के बाद से, राजनयिक प्रतिनिधित्व में कमी आई है, कोई उच्चायुक्त नहीं है, व्यापार पर प्रतिबंध है, अंतर-देशीय यात्रा पर लगभग रोक है आदि। 1965 और 1971 के युद्ध, कारगिल संघर्ष और दिसंबर 2001 में हमारी संसद पर आतंकवादी हमले के बाद की रुकावट, लंबाई और अवधि के मामले में मौजूदा गिरावट से मेल नहीं खा सकती। कश्मीर मुद्दा 1947 से ही समय के साथ रुका हुआ लगता है। 

फिर भी पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध, स्थिर होने से बहुत दूर, लगातार बदल रहे हैं, जिसमें पानी और नदी जल बंटवारे जैसे नए मतभेद मौजूदा पोर्टफोलियो में जुड़ रहे हैं। साथ ही, जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों की तीव्रता बढ़ रही है, जिसके लिए न्यूनतम संबंध और किसी प्रकार के क्षेत्रीय सहयोग की आवश्यकता है। भविष्य की घटनाओं की दिशा इस बात पर निर्भर करेगी कि दो अलग-अलग अनिवार्यताओं का मूल्यांकन और समाधान कैसे किया जाता है। एक ओर, क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देना स्पष्ट रूप से भारत के हित में है।

दूसरी ओर, पाकिस्तान के साथ फिर से जुडऩा अल्पावधि में राजनीतिक और अन्य जोखिमों से रहित नहीं है इससे होने वाले लाभ केवल लंबी अवधि में ही प्राप्त किए जा सकते हैं और तब भी वे हमेशा मात्रात्मक नहीं हो सकते, हालांकि फिर भी वे बहुत मूल्यवान हैं। भारत-पाक संबंधों में अधिक स्थिरता दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग पहलों को गति प्राप्त करने के लिए एक मंच प्रदान करती है। यदि हाल ही में एस.सी.ओ. बैठक ने इन मुद्दों की फिर से जांच करने के लिए एक रास्ता बनाया है, तो इसमें भाग लेना निश्चित रूप से इसके लायक था। -टी.सी.ए.राघवन (राघवन पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त हैं) (साभार टी.ओ.आई.)


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