‘जातीय चुनावी कार्ड’ के खतरे
punjabkesari.in Wednesday, Dec 06, 2023 - 05:53 AM (IST)

अब यह गिनवाने का कोई मतलब नहीं कि हाल की विश्वकर्मा जयंती पर शुरू हुई विश्वकर्मा योजना की क्या प्रगति है, या पांच राज्यों के चुनाव के ठीक पहले बड़ी धूमधाम से शुरू हुई इस योजना की चर्चा चुनाव के दौरान क्यों नहीं हुई। अर्थव्यवस्था में अपने हुनर से योगदान करने वाली और आज की राजनीति में पिछड़ा या ओ.बी.सी. गिनी जाने वाली जातियों के लोगों को उनके काम के लिए सुविधाजनक शर्तों पर पूंजी/ऋण उपलब्ध कराने वाली इस योजना को मोदी सरकार द्वारा विपक्ष के जातिवार जनगणना अभियान की काट के तौर पर पेश किया गया था।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा अदालती लड़ाई जीतकर अपने यहां जातिवार जनगणना कराने (और फिर उसके अनुसार आरक्षण का कोटा बढ़ाने) जैसे फैसले के बाद भाजपा बैकफुट पर लग रही थी। बिहार में तो उसने जातिवार जनगणना का समर्थन किया था, लेकिन विरोध भी उसकी तरफ से ही हुआ, जो पहले अदालत में चुनौती, फिर सॉलिसीटर जनरल के बयान और फिर गरीब को पिछड़ा मानने और मैरिट को बढ़ावा देने का दावा तब राजनीतिक रूप से उसे बैकफुट पर ला रहा था।
जातिवार जनगणना कराने और उसके आंकड़े प्रकाशित होने के बाद जैसी प्रतिक्रिया बिहार, उत्तर भारत और देश में मिलती लग रही थी, उससे नीतीश कुमार ही नहीं, कांग्रेस, खासकर राहुल गांधी बहुत उत्साहित लग रहे थे और उस उत्साह में वे सारे राज्यों में जातिवार जनगणना और ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ जैसे समाजवादी नारे भी लगाने लगे थे। जब विपक्ष का ‘इंडिया’ गठबंधन बना तो इसके सूत्रधार नीतीश कुमार जातीय जनगणना की मांग को गठबंधन का मुख्य एजैंडा बनाकर भाजपा को बैकफुट पर लाना चाहते थे, जबकि ‘इंडिया’ नाम देने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विरोध से यह प्रस्ताव रुक गया गया। ऐसी खबर आई कि चुनाव प्रचार के दौरान हवा का रुख भांप कर मध्य प्रदेश में कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दावेदार कमलनाथ ने इस मुद्दे पर ज्यादा जोर न देने की सलाह दी। उन्होंने ऐसा किया हो या नहीं, पर यह मसला चुनाव प्रचार आगे बढ़ाने के साथ मद्धम पड़ता गया।
उधर चुनाव में महादेव एप और कन्हैयालाल मर्डर जैसे मसले उठाकर मोदी भी रोज नया बम धमाका करते गए। पर उन्होंने हवा भांपकर जाति के सवाल पर खुलकर बोलना शुरू किया और विपक्ष को जातिवादी बताने से भी नहीं चूके। जब रंग थोड़ा और जमता लगा तब गरीब, नौजवान, महिला और आदिवासी जैसी चार जातियों की बात उठाने लगे। बताना न होगा कि इस बीच ‘इंडिया’ गठबंधन भी सो गया था और उसके सूत्रधार नीतीश कुमार भी अपने ही बयानों और व्यवहार को लेकर बैकफुट पर आ गए थे। और फिर भाजपा ने जैसी सफलता पाई है, उससे साफ है कि मोदी कार्ड चला, नीतीश या जाति-कार्ड नहीं। बल्कि मध्य प्रदेश में तो इससे खास नुकसान हुआ लगता है क्योंकि वहां भाजपा के लंबे शासन से ऊब सबको लग रही थी। अब मण्डल तक विरोध में रही भाजपा ने अगर अपनी सोच न बदलकर स्थितियों के अनुसार रणनीति बदली है और सफल हो रही है तो मण्डल वालों को भी कुछ और बातों पर गौर करना होगा, कुछ बदलाव करने होंगे। अगर मोदी, ममता या नवीन पटनायक (इधर नवीन भी कुछ बदले हैं) या योगी आदित्यनाथ इसका विरोध करके भी अच्छी राजनीतिक सफलताएं पा रहे हैं तो उन कारणों पर भी गौर करना होगा।
पहला कारण तो प्रशासन की चौकसी और गरीबों को उसका लाभ देना है। दूसरी वजह जाति का जोर धीरे-धीरे कम होना भी है। फिर यह भी है कि जाति की राजनीति भी त्याग तपस्या मांगती है, वह कोई ऐसा मंत्र नहीं है कि मुंह से निकाला और असर हो गया। अगर बिहार और उत्तर प्रदेश ही नहीं, दक्षिण भारत में असरदार बनना है तो वहां एक लंबा इतिहास रहा है पिछड़ा ध्रुवीकरण का, सुधार आंदोलनों का, राजनीति का और एक से एक त्याग-तपस्या वाले नेताओं का।
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इस कार्ड का इस्तेमाल करने से पहले कांग्रेस को यह बुनियादी बात याद नहीं रही कि मण्डल के एक बड़ेे नेता शरद यादव मध्य प्रदेश के होकर भी कभी वहां से चुनाव लडऩे की हिम्मत नहीं कर पाए। 1974 में पहला चुनाव जीतने के बाद वह लगातार उत्तर प्रदेश और बिहार में ही जगह तलाशते रहे। मोहन प्रकाश राजस्थानी से ज्यादा बनारसी पहचान के लिए जाने जाते हैं। नारायण स्वामी, फुले, पेरियार और करुणानिधि का जीवन संघर्ष और काम ही नहीं, कर्पूरी ठाकुर, रामानंद तिवारी, अनूप मण्डल, जगदेव महतो, राजनारायण, बी.पी. मौर्या, कांशीराम और अर्जुन सिंह भदौरिया जैसों का काम ही मुलायम सिंह, लालू यादव और नीतीश कुमार के उछल-कूद करने का आधार बना।
बिहार में निरंतर चल रहे 35 साल के पिछड़ा राज का आधार बना और बाद के नेताओं ने पिछड़ा गोलबंदी बढ़ाई और स्वाभिमान बढ़ाया लेकिन न प्रशासन के स्तर पर बढिय़ा काम किया, न अपना जीवन सामान्य रखा। सब नए राजा-महाराजा बन गए, सबने परिवार से उत्तराधिकारी बनाया, सबने दौलत इकट्ठी की। पिछड़ा राजनीति बढ़ाने की जगह अपना साम्राज्य बढ़ाया, मजबूत किया। इससे जाति व्यवस्था के समर्थकों को नया हथियार मिला। इस चुनाव में जाति के सवाल को भी पिटवाकर राहुल गांधी (नीतीश तो सामने आए नहीं) और उनके भक्तों ने साबित किया कि उनको अभी बहुत कुछ सीखना है।
इंदिरा गांधी ने भी ‘जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर’ का नारा लगाकर अपनी पार्टी के लिए जीत का आधार बनाया था, यह भी वे भूल गए। इस बार की हार की वजह जाति को जरूरत से ज्यादा महत्व देना भी है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, बंगाल, असम और ओडिशा जैसे राज्यों में जातिगत ध्रुवीकरण वैसा नहीं है, जैसा बिहार, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में है। इसका मतलब जाति के साथ उसका ध्रुवीकरण होना भी महत्वपूर्ण है और यह एक राजनीतिक काम है, मंत्र जपने का नहीं। और अगर यह कहीं प्रभावी बना है तो उसे बनाने में त्याग तपस्या और कुर्बानी देनी पड़ी है।-अरविन्द मोहन