सी.पी.आई. के लिए एक तरफ राष्ट्रवाद तो दूसरी तरफ विचारधारा थी

punjabkesari.in Thursday, Apr 01, 2021 - 04:44 AM (IST)

सोवियत संघ का हिस्से रहे उज्बेकिस्तान में 1920 में बनी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी शुरू से ही विशेषज्ञों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की छांव में रही और इसे उन क्रांतिकारियों ने पाला पोसा जो खुद भारत से अमरीका या यूरोप माइग्रेट कर गए थे। माक्र्स के कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो में एक विचार है ‘वर्किंग क्लास के हितों के लिए बनी अन्य पार्टियों के खिलाफ जाकर कम्युनिस्ट अलग पार्टी नहीं बनाते। लेकिन, भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ यह बात लागू नहीं हुई, बल्कि आजादी के बाद कांग्रेस को चुनौती देने वाली सबसे बड़ी प्रमुख पार्टी यानी सी.पी.आई. दरारों के कारण टूटी थी। सी.पी.आई. के टूटने के बाद ही भारतीय माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ था। लेकिन इस ऐतिहासिक बंटवारे के पीछे कारण क्या था? 

भारत और चीन के बीच 1962 का जो युद्ध हुआ, इतिहास के मुताबिक उसकी भूमिका 21 अक्तूबर 1959 को तब तैयार हो गई थी, जब 10 भारतीय सी.आर.पी.एफ. जवानों को चीनी सेना ने मार गिराया था। लद्दाख के बेहद ठंडे इलाके कोंगका पास  पर हुई इस घटना से भारत को बड़ा झटका तो लगा ही था, लेकिन यही वो घटना भी थी, जहां से देश की लैफ्ट राजनीति में भी दरारों की शुरूआत हुई थी। बेशक, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर विचारधारा और नेतृत्व को लेकर कई तरह की समस्याएं थीं और इसके टूटने के लिए बड़े कारण थे, लेकिन ‘ लोहे पर जो चोट’ की जाती है, वो काम 1962 के युद्ध ने किया और पार्टी टूट गई। 

सी.पी.आई. में शुरू से ही सब कुछ ठीक नहीं था! 
संक्षेप में इतिहास को समझें तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की जड़ें स्थापना से ही विदेशी कम्युनिस्ट आंदोलन में थीं। भारत में सी.पी.आई. का नजरिया काफी भ्रम पैदा करने वाला था क्योंकि यहां राष्ट्रवादी आंदोलन से इसका उदय माना गया। 1940 के दशक में गांधी के ‘भारत छोड़ो’ नारे और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सोवियत संघ द्वारा अंग्रेजों का पक्ष लेने के बाद सी.पी.आई. ने स्वतंत्रता की लड़ाई से मुंह फेर लिया था। 

1950 और 60 के दशक में चीन और सोवियत संघ यानी दो बड़ी कम्युनिस्ट शक्तियों के बीच संबंध तकरीबन टूट जाने की घटना, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए लंबे समय के असर वाली साबित हुई। ये दोनों शक्तियां माक्र्स और लेनिन के सिद्धांतों के पालन को लेकर एक दूसरे पर आरोप लगा रही थीं। तभी सोवियत संघ और भारत के बीच नजदीकियां बढ़ीं तो सोवियत संघ ने सी.पी.आई. से नेहरू की विदेश नीति का साथ देने की अपील की। यहां से कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर धड़े बने। नेहरू की नीतियों का साथ देने के लिए सी.पी.आई. का जो धड़ा तैयार नहीं था, उसने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साये को चुना। 

कोंगका पास घटना से पड़ी फूट 
दलाई लामा के भारत आने और तिब्बत पर चीन के रवैये के बारे में शोधकत्र्ता रॉबर्ट स्टर्न ने 1965 के अपने लेख में लिखा कि सी.पी.आई. ने एक सांझा बयान इस तरह जारी किया कि उसमें चीन का समर्थन था और तिब्बत के विद्रोहियों, भारत के प्रतिक्रियावादियों और पश्चिम के साम्राज्यवादियों का विरोध। 

इधर, लद्दाख और अरुणाचल, जिसे तब उत्तर पूर्व फ्रंटियर एजैंसी कहा जाता था, दोनों जगहों पर चीनी सेना का दखल बढ़ रहा था। कलकत्ता रिजोल्यूशन पार्टी के असंतुष्टों के लिए बड़ा झटका था। तब पार्टी के महासचिव अजय घोष ने जो कोशिशें कीं, उससे कुछ समय के लिए पार्टी बची रही। सिर्फ एक महीने बाद कोंगका पास की घटना हुई और पार्टी के एक धड़े ने खुलकर सीपीआई की नीतियों का विरोध कर दिया। महाराष्ट्र के कम्युनिस्ट नेताओं ने घोषित कर दिया कि मैकमोहन रेखा भारत की कुदरती सीमा है और चीन का रवैया यहां आक्रांता का है। सी.पी.आई. के लिए एक तरफ राष्ट्रवाद था, तो दूसरी तरफ विचारधारा थी। मुम्बई और केरल के प्रभावी कम्युनिस्ट नेताओं ने खुलकर नेहरू की सीमा नीति को समर्थन देने की बात कही थी। एजी नूरानी के विस्तृत लेख के मुताबिक लैफ्ट पार्टी के भीतर वामपंथी और दक्षिणपंथी समर्थकों के गुट बने थे। 

1962 के भारत-चीन युद्ध में ढह गया सी.पी.आई. का किला!  
सी.पी.आई. के संस्थापकों में से एक और लोकसभा में पार्टी के चेहरे रहे एस.ए. डांगे ने साफ शब्दों में कहा कि ‘कोंगका पास जैसी घटनाओं को रोकने के लिए पूरा देश पंडित नेहरू के पीछे खड़ा होगा।’ इस बयान को केरल से उत्तर प्रदेश के बड़े सी.पी.आई. नेताओं का समर्थन मिला तो पंजाब, गुजरात, दिल्ली व अन्य जगहों के नेताओं ने असंतोष जाहिर किया। अगले कुछ दिनों में पार्टी में मतभेद बहुत ज्यादा हो चुके थे और 1961 में घोष के गुजरने के बाद संकट और गहराया। 1962 में जब चीनी सेना ने भारत पर हमला कर दिया, तब डांगे ने सरकार का साथ देकर उन हजारों पार्टी सदस्यों को गिरफ्तार करवाया जो चीन के हिमायती थे। 

वामपंथी द्विजेन नंदी ने डांगे के लिखे कुछ पत्रों का पर्दाफाश करते हुए दावा किया कि डांगे ब्रिटिश इंटैलीजैंस से जुड़े थे। इसे सी.पी.आई. की आखिरी दरार माना जा सकता है। इस युद्ध के कारण सी.पी.आई. के भीतर जो दरारें गहरा गई थीं, खाइयों की तरह दिखीं और सी.पी.आई. दोफाड़ हो गई। 31 अक्तूबर से 7 नवंबर 1964 के बीच माक्र्सवादी गुट यानी सी.पी.आई. (एम) की स्थापना हुई। 

किसान आंदोलन ,पंजाब और कम्युनिस्ट  
किसान आंदोलन के घटनाक्रम को ध्यान से देखने वाले इसे माओवादी व खालिस्तानी तत्वों का षड्यंत्र मानते हैं। पंजाब में माओवादी तत्वों ने किसान आंदोलन के बहाने अपने मजबूत   नैटवर्क एवं समाज विरोधी विध्वंसक इरादों से एक बार फिर पंजाब को सुलगाने का प्रयास किया है। इस आंदोलन में किसान के कंधे पर बंदूक रख कर माओवादी व खालिस्तानी तत्व खुल कर खेले हैं। किसानों के आक्रोश को इन लोगों ने कुशलता से अपने एजैंडे को आगे बढ़ाने में उपयोग कर लिया है। यह आंदोलन रातों रात कैसे इतना बड़ा हो गया? पंजाब के गांव-गांव से आन्दोलन के लिए संसाधन व राशन कैसे एकत्र होने लग पड़ा? अचानक विदेश से पैसे बरसने कैसे शुरू हो गए? ये सब प्रश्न समाज के साथ-साथ सरकार व सुरक्षा एजैंसियों की नींद खराब करने के लिए पर्याप्त है। 

किसान का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना गलत नहीं है। सरकार को किसानों की उचित मांगें माननी चाहिएं। लेकिन मोदी, अम्बानी, अडानी को मर्यादाहीन गालियों की बौछार, समाज मेें ङ्क्षहसा फैलाना, परस्पर द्वेष उत्पन्न करने की भाषा, टैलीफोन के टॉवर एवं अन्य सरकारी सम्पत्ति को नुक्सान पहुंचाना, क्या संकेत करता है? किसान एवं उनके  नेतृत्व को माओवादियों व खालिस्तानी तत्वों के मंसूबों को समझना होगा। सरकार से तार्किक चर्चा न कर कृषि बिलों को खत्म करने की जिद्द क्या सही है? 

इस समय देश परिवर्तन के पलों में से गुजर रहा है। देश को सतत, मजबूत स्थापित करना चाहते हैं और जो इस की मजबूती को खतरा मानते हैं, उन में वैचारिक संघर्ष के निर्णायक पल हैं। अपने तत्कालीन लाभ के लिए देश की अखंडता को खतरे में डालने वाले लोगों को बेनकाब करना ही होगा। भारत निकट भविष्य में अवश्य ही आत्मनिर्भर होगा और हम सब का वैश्विक महाशक्ति बनने का स्वप्र अवश्य ही पूरा होगा।-सुखदेव वशिष्ठ


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