गठबंधन से पहले खुद को मजबूत करेगी कांग्रेस

punjabkesari.in Wednesday, Mar 01, 2023 - 04:55 AM (IST)

रायपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने कोई बड़ा ऐलान भले न किया हो, पर अपनी राजनीतिक रणनीति तय कर ली है। अधिवेशन से पहले दो ही सवाल थे, आंतरिक गुटबाजी और विपक्षी गठबंधन बनाने की चुनौती। गुटबाजी पर खुलकर कुछ नहीं कहा गया। ऐसे मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से ज्यादा बोला भी नहीं जाता लेकिन राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे तक ने पार्टी में एकजुटता पर जोर दिया तो संदेश साफ है कि भविष्य में आलाकमान गुटबाजी पर सख्त रुख अपनाएगी।

यह जरूरी भी है क्योंकि भाजपा की आक्रामक संगठित राजनीतिक चुनौती के अलावा कांग्रेस के लिए दूसरी बड़ी और आत्मघाती  समस्या क्षत्रपों की सत्ता महत्वाकांक्षाओं से उपजी गुटबाजी ही है। राजस्थान से लेकर कर्नाटक तक और हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक कांग्रेसियों की कलह से लगता है कि राजनीतिक विरोधियों से लडऩे से पहले उनकी प्राथमिकता आपस में लडऩा है। इस समस्या का समाधान किए बिना कांग्रेस राजनीतिक चुनौतियों का सामना नहीं कर सकती।

गुटबाजी पर अंकुश के बाद कांग्रेस को संगठन की भी सुध लेनी होगी। कमजोर सेना के सहारे चुनावी रण नहीं जीते जाते, जबकि कांग्रेस का आलम यह है कि हरियाणा में पिछले लगभग 9 साल से प्रदेश संगठन ही नहीं बन पाया। फिर कांग्रेस की प्राथमिकता इस साल हो रहे विधानसभा चुनावों में अपना जोर दिखाना है। त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड के नतीजों का अपना महत्व होगा, पर असली चुनावी जंग अप्रैल-मई में कर्नाटक विधानसभा चुनावों के साथ शुरू होगी, जो राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनावों तक चलेगी।

पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम को अगर अपवाद मान लें तो पहले चार राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होगा, जबकि पांचवें राज्य तेलंगाना में दोनों ही दल सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति से मुकाबले में अपना शक्ति प्रदर्शन करेंगे। राहुल गांधी के अध्यक्षकाल में कांग्रेस हारी तो अनगिनत चुनाव, पर जीती सिर्फ 2018 के राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में। लेकिन इस जीत का खास महत्व इसलिए रहा कि उसने शक्तिमान भाजपा से सत्ता छीनी।

यह भी कांग्रेस की गुटबाजी का ही परिणाम रहा कि मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के चलते 2020 में कमलनाथ की सरकार धराशायी हो गई और शिवराज सिंह चौहान की अगुवाई में भाजपा की सत्ता में वापसी हुई। सचिन पायलट की संभावित बगावत से वैसे ही संकट के बादल राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार पर भी मंडराए थे, पर मध्य प्रदेश की सत्ता गंवा चुकी कांग्रेस आलाकमान की तंद्रा तब तक टूट चुकी थी।

इसलिए वह संकट तो टल गया, पर गुटबाजी बरकरार है, जिसका साया आगामी विधानसभा चुनाव पर पड़ा तो देश की सबसे पुरानी पार्टी की मुश्किलें बढेंग़ी ही। छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टी.के. सिंहदेव के बीच छत्तीस का आंकड़ा किसी से छिपा नहीं है। इन राज्यों में भाजपा भी गुटबाजी की शिकार है। इसलिए कहा जा सकता है कि अगर कांग्रेस अंतर्कलह पर काबू पा ले तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अच्छा प्रदर्शन कर सकती है।

अगर यह अच्छा प्रदर्शन सत्ता दिलाने वाला रहा, तब स्वाभाविक ही भविष्य में बनने वाले विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व के लिए कांग्रेस की दावेदारी सबसे मजबूत हो जाएगी। ध्यान रहे, पिछले दिनों ही उसने हिमाचल प्रदेश में भाजपा से सत्ता छीनी है। पर पहले कर्नाटक में चुनावी जंग होगी और वहां भी कांग्रेस को कमजोर नहीं आंका जा सकता। पिछले विधानसभा चुनाव में भी उसने वहां भाजपा को बहुमत पाने से वंचित कर दिया था।

सबसे बड़े दल के नेता के नाते येद्दियुरप्पा मुख्यमंत्री तो बने, पर बहुमत जुटाने में नाकाम रहने पर इस्तीफा देना पड़ा। उसके बाद बनी जनता दल सैक्युलर और कांग्रेस की सरकार भी जोड़-तोड़ के चलते सवा साल ही टिक पाई और भाजपा की सत्ता में वापसी हो गई। अगर जनता दल सैक्युलर के साथ गठबंधन कर कांग्रेस अपने अध्यक्ष खरगे के इस गृह राज्य में भाजपा को शिकस्त दे पाती है तो उसके हौसलों को पंख लग जाएंगे। वे पंख कांग्रेस को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की चुनावी हवा में भी मददगार साबित होंगे।

तेलंगाना में लगता नहीं कि इस बार भी भाजपा या कांग्रेस महत्वाकांक्षी के. चंद्रशेखर राव की सत्ता को चुनौती दे पाएंगी। लेकिन अगर कांग्रेस वहां अपना प्रदर्शन सुधार लेती है, तो विपक्षी गठबंधन की अगुवाई के लिए उसका दावा के.सी.आर. से लेकर अरविंद केजरीवाल तक की महत्वाकांक्षाओं पर भारी पड़ेगा, जिनका भविष्य कांग्रेस की कमजोरी पर ज्यादा निर्भर करता है। उसने तमाम मुद्दों पर भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए समान विचार वाले दलों से तालमेल की बात तो कही, पर नेतृत्व पर मौन रही क्योंकि जब अपने क्षत्रप कमजोर नेतृत्व को आंखें दिखाने से नहीं चूकते तो प्रतिस्पर्धी उसे क्यों स्वीकार कर लेंगे?

कांग्रेस के स्वाभाविक नेता राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य की दृष्टि से भी यह रणनीति उचित लगती है। रायपुर का संदेश साफ है- भाजपा-विरोध में क्षेत्रीय दलों के समक्ष समर्पण करने की बजाय कांग्रेस खुद को मजबूत कर विपक्षी एकता की पहल करेगी। जाहिर है, अगर राज्यों के चुनावी नतीजे कांग्रेस की उम्मीदों के मुताबिक नहीं आए तो बाजी पूरी तरह पलट जाएगी और फिर उसके समक्ष किसी क्षेत्रीय नेता की पालकी उठाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं रह जाएगा। -राज कुमार सिंह


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