भारतीय मूल के सी.ई.ओ. के उदय के पीछे की कहानी

punjabkesari.in Monday, Feb 27, 2023 - 05:26 AM (IST)

भारतीय मूल के लोगों की वैश्विक कंपनियों और संस्थानों के शीर्ष पर पहुंचने की हाल की कई कहानियां हैं। अरिस्टा में जयश्री उल्लाल, ओल्ड नेवी में सोनिया सिंघल, चैनल में लीना नायर, यू-ट्यूब पर नील मोहन से लेकर हाल ही में अजय बंगा को अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा विश्व बैंक के अध्यक्ष के रूप में नामित किए जाने की खबर से भारत के लिए जश्र मनाने के लिए बहुत कुछ है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवासी भारतीय कई क्षेत्रों में अपनी पहचान प्राप्त कर रहे हैं।

जैसे प्रबंधन, शिक्षाविद्, वैश्विक संस्थान और राजनीतिक शासन। अब स्पष्ट प्रवृत्ति में योगदान करने वाले कारक क्या हो सकते हैं। हमारे प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में बढ़ती लैंगिक विविधता को देखते हुए हमें आने वाले वर्षों में भारतीय मूल की और अधिक महिलाओं को वैश्विक स्तर पर देखने की संभावना है। सत्य नडेला, शांतनु नारायण,अरविंद कृष्णा और इंदिरा नुयी जैसे बहुचर्चित लोग पहले से ही इस श्रेणी में आते हैं।

हम इसे भारतीय मूल के प्रबंधकों की किसी एक विशिष्ट विशेषता से नहीं जोड़ सकते बल्कि यह कारकों का एक साथ आना था जिसने एक गुप्त कार्यक्रम बनाया। जीव विज्ञान और सिस्टम सिद्धांत से उधार लेते हुए हमने इसे एक उभरती हुई घटना के रूप में पहचाना। एक ऐसी गुणवत्ता जो एक दिलचस्प तरीके से एक साथ आने वाले कई कारकों से उभरी।

अत्यधिक प्रतिस्पर्धी, अत्यधिक अकांक्षी वातावरण में बड़ा होना : जन्म प्रमाण पत्र से लेकर मृत्यु प्रमाण पत्र तक, स्कूल में प्रवेश से लेकर आई.आई.टी./आई.आई.एम. में प्रवेश तक भारत में रहने के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती पेश करते हैं। यहां लगातार रहने वाले ही सफल होते हैं। आई.आई.टी., आई.आई.एम. में एक सीट के लिए कितने लोग प्रतिस्पर्धा करते हैं और एक एस.बी.आई. प्रोबेशनरी अधिकारी की नौकरी के आंकड़े स्तब्ध कर देने वाले हैं।

उज्ज्वल छात्रों के ऐसे उदाहरण हैं जो आई.आई.टी. में सीट सुरक्षित नहीं कर सके लेकिन कॉर्नेल या प्रिस्टंन में प्रवेश कर गए। इसका तात्पर्य यह है कि कठिन परिस्थितियां इन लोगों को विचलित नहीं करती हैं क्योंकि वे पहले से ही सामना की गई और दूर की गई चुनौतियों से कम हैं। प्रत्येक छात्र को शुरूआती असफलताओं का सामना करना पड़ता है जैसे अपर्याप्त अंक, कालेज में प्रवेश खो देना या नौकरी का सीमित विकल्प।

इसका मतलब यह है कि इसे अस्पष्टता और असफलताओं को केवल दूर की जाने वाली चुनौतियों के रूप में देखा जाता है। पांच साल पहले जब हमारी किताब प्रकाशित हुई थी तो ‘द टाइम्स लंदन’ में समीक्षा थोड़ी तीखी थी। समीक्षक भारतीय मूल के व्यक्ति थे लेकिन ‘मेड इन इंडिया’ नहीं थे। उन्होंने महसूस किया कि हमने कुछ छिटपुट मामलों के बारे में बहुत कुछ किया है। यदि भारतीय प्रबंधक इतने ही अच्छे थे तो वे अपनी राष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था को बेहतर ढंग से प्रबंधित क्यों नहीं कर पाए?

यह एक उचित प्रश्न था लेकिन उत्तर सुलझने वाला है। भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार और भारतीय शेयर बाजार का आकार दुनिया के शीर्ष पांच में जगह बना रहा है। तथ्य यह है कि भारतीय जीनियस नहीं हैं, जैसे पूर्व ब्रिटिश और अमरीकी प्रबंधक जीनियस नहीं थे। वे एक विशेष वातावरण में कड़ी मेहनत और लगातार काम करते हैं जो उनके कार्यों को संचयी रूप से मिश्रित करने की अनुमति देता है।

प्रत्येक वर्ष उत्पादकता के कुछ प्रतिशत बिंदुओं में सुधार करें जिससे कई वर्षों के बाद संचयी प्रभाव नाटकीय रूप से दिखेगा। जब तक भारतीय स्वतंत्रता सदी के निशान को छू लेगी तब तक चीजें शायद पूरी हो चुकी होंगी। याद रखें यह केवल भारत को उन देशों की लीग में पुन: स्थापित करेगा जहां यह 1800 के दशक में था। -आर. गोपाला कृष्णन एवं रंजन बनर्जी (साभार ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’)


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