कश्मीर में टार्गेट किलिंग का तोड़ विकास

punjabkesari.in Sunday, Jun 05, 2022 - 05:39 AM (IST)

विजय बेनीवाल का कश्मीर घाटी के कुलगाम जिले में बैंक की शाखा में 3 दिन पहले ही ट्रांसफर हुआ था, लेकिन तीसरे दिन ही उसकी हत्या कर दी गई। सी.सी.टी.वी. की फुटेज में एक आतंकवादी बैंक में दाखिल होता है। उसके पास साइलैंसर लगी रिवाल्वर है। वह सीधे विजय बेनीवाल पर गोलियां दागता है और फरार हो जाता है। अब यहां कई सवाल उठते हैं। 

एक, आतंकवादियों को कैसे इतनी जल्दी पता चला कि विजय बेनीवाल नाम का गैर-कश्मीरी शख्स बैंक की इस शाखा में आया है? दो, इतनी जल्दी कैसे हत्यारा तलाश लिया गया? तीन, हत्यारे को विजय बेनीवाल को पहचानने में कोई दिक्कत क्यों नहीं आई? चार, हत्यारे ने बैंक में घुसकर इधर-उधर नजरें क्यों नहीं दौड़ाईं, यानी हत्यारे को यहां तक पता था कि बैंक में विजय बेनीवाल कहां बैठता है। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो बताते हैं कि कश्मीर में आतंकवादियों और पाकिस्तानी सेना, आई.एस.आई. के साजिशकत्र्ताओं ने कैसे अपनी रणनीति बदल ली है। 

सूत्र बतातेे हैं कि अब ऐसे ‘वन टाइम’ आतंकी ऑनलाइन भर्ती किए जाने लगे हैं। जिसकी हत्या करनी है उसकी तस्वीर के साथ पूरा ब्यौरा ऑनलाइन भेजा जाता है, रिवाल्वर कोई भिजवाता है, लेकिन हत्यारे को गूगल देख कर निशाना साधना सीखना होता है। हत्या के बाद का हत्यारे का एस्केप रूट (सुरक्षित बच निकलने का रास्ता) भी पहले से तय होता है। अगर हत्यारे को कहीं कुछ दिन छुपाने की जरूरत है, तो ऐसा सुरक्षित घर भी पहले से तय होता है। उसके अकाऊंट में क्रिप्टोकरंसी से पैसा भिजवा दिया जाता है। 

चूंकि ऐसे वन टाइम हत्यारों का कोई क्रिमिनल रिकार्ड पुलिस के पास नहीं होता, ऐसे लोग पकड़ में भी नहीं आ पाते। अब ए.के. 47 लेकर निकलना, उसे छुपाना, गोली दागने के बाद सुरक्षित निकाल कर ले जाना मुश्किल होता है, लेकिन एक छोटी-सी रिवाल्वर कहीं भी आसानी से छुपाई जा सकती है, सस्ती भी पड़ती है। ड्रोन से भी भिजवाई जा सकती है। यानी कुल मिलाकर इलाके विशेष के किसी गली-मोहल्ले से कोई एक नवेला आतंकी निकलता है, हत्या करता है और घर आकर न्यूज चैनल पर अपनी हरकत के बारे में देखता-सुनता है। 

सेना सूत्रों का कहना है कि धारा 370 हटने से पहले स्थानीय इलाकों में क्या हो रहा है, जनता क्या सोच रही है, युवा वर्ग में किसी बात को लेकर किस हद तक असंतोष है, मोहल्ले में कोई संदिग्ध गतिविधियां हुई हैं या नहीं आदि-आदि सूचनाएं पुलिस सेना को दे देती थी, लेकिन धारा 370 हटने के बाद पुलिस की तरफ से ऐसा सहयोग मिलना कम या फिर बंद हो गया है। अगर यह सही है तो यह सहयोग तत्काल बढ़ाया जाना जरूरी है। इसी तरह बीट पुलिसिंग की व्यवस्था पर जोर दिया जाना जरूरी है। वोकल फॉर लोकल की तर्ज पर खुफिया एजैंसियों का लोकल आतंकियों पर नजर रखना और उस पर वोकल होना (सूचना अन्य एजैंसियों से शेयर करना) समय की जरूरत है। 

अब ऐसे लोगों को तलाशना है, जिन्हें पुलिस अपराधी के रूप में जानती तक नहीं है। जाहिर है कि लोकल स्तर पर इंटैलीजैंस को चाक-चौबंद करके ही कुछ ठोस हासिल किया जा सकता है। जम्मू-कश्मीर पुलिस के अनुसार 1 जनवरी से 31 मई, 2022 तक कश्मीर घाटी में 100 के करीब हाइब्रिड मिलिटैंट पकड़े गए और इनके कब्जे से 90 से ज्यादा पिस्तौलें और ग्रेनेड बरामद हुए। 

पिछले साल भी 150 के करीब पिस्तौलें सुरक्षाबलों ने पकड़ीं। इसके बाद से ही यह आशंका जताई गई थी कि आतंकी टार्गेट किलिंग कर सकते हैं और अक्तूबर 21 में आशंका सच में बदल गई जब एक के बाद एक 9 लोगों को मार दिया गया। इनमें कश्मीरी पंडित, हिन्दू, सिख और प्रवासी मजदूर शामिल थे। उसके बाद सुरक्षाबलों के ऑप्रेशन ऑल आऊट में इन शूटर गैंग्स के बहुत से आतंकियों को मार गिराया गया, लेकिन आतंकवाद जड़ से खत्म नहीं हुआ और अब एक बार फिर से ये लोग कश्मीरी हिन्दुओं और प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाने लगे हैं। 

ऐसा नहीं है कि घाटी में हत्याओं का सिलसिला अचानक बढ़ा है। इस साल 31 मई तक 17 आम नागरिक मारे गए। पिछले साल 36 मारे गए थे। 2020 में 33, 2019 में 42, 2018 में 86 और 2017 में 54 आम नागरिक मारे गए थे। इसी तरह 2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने और कश्मीर में कुछ तगड़ा करने की बात की जा रही थी, तब 28 आम नागरिक मारे गए थे। अगले साल यह आंकड़ा कम होकर 19 पर आया और उसके अगले साल तो सिर्फ 14 आम नागरिक मारे गए। लेकिन उसके बाद के 2 सालों में यह संख्या तेजी से बढ़ी। 2019 में धारा 370 हटाई जाती है और घाटी में 42 आम नागरिक मारे जाते हैं। 

इस साल कश्मीर में 10 लाख सैलानी आए, अमरनाथ यात्रा के लिए अढ़ाई लाख से ज्यादा रजिस्ट्रेशन हो चुका है। जाहिर है कि कुछ लोगों को ये सब पसंद नहीं आ रहा और वे टार्गेट किलिंग कर रहे हैं। यही वजह है कि प्रशासन कश्मीरी पंडितों और गैर-कश्मीरी नौकरीपेशा लोगों को सुरक्षा देने की बात तो कर रहा है, लेकिन उन्हें कुछ समय के लिए डैपुटेशन पर जम्मू भेजे जाने पर सहमत नहीं है।

शायद यह डर है कि अगर ऐसा किया तो आतंकियों की जीत होगी, पाकिस्तान अपने मकसद में कामयाब होगा और मोदी सरकार की कड़ी नीतियों की कमजोरी सामने आएगी। लेकिन दूसरे वर्ग का कहना है कि अपनी शान के लिए ऐसे सरकारी कर्मचारियों की जान जोखिम में डालना कोई समझदारी भरा कदम नहीं। ऐसे लोगों की संख्या 10,000 के आसपास है। सबको व्यक्तिगत सुरक्षा देना संभव नहीं। 

इस बीच 80 फीसदी से ज्यादा कश्मीरी पंडित जम्मू जा चुके हैं। यह अपने आप में शर्मनाक है। जम्मू-कश्मीर में एल.जी. का शासन है। वहां न विधानसभा है, न पंचायतें ही काम कर पा रही हैं। डी.डी.सी. के चुनाव जरूर हुए, लेकिन अभी अधिकार सीमित हैं। कहा जा रहा है कि घाटी में सरकार नाम की कोई चीज नहीं है। विधायक अफसरशाही और जनता के बीच संवाद का काम करते हैं। तो क्या यह माना जाए कि जम्मू-कश्मीर में जल्द से जल्द विधानसभा चुनाव कराने और राज्य का दर्जा दिए जाने की जरूरत है? आर्थिक पैकेज पर भी श्वेत पत्र लाया जाना जरूरी है।-विजय विद्रोही
 


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