लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव ‘एक साथ’ हों

punjabkesari.in Wednesday, Jul 29, 2015 - 12:34 AM (IST)

(मास्टर मोहन लाल): 1967 में पार्लियामैंट की स्टैंडिंग कमेटी से लेकर स्वर्गीय जय प्रकाश नारायण की ‘सिटीजन फार डैमोक्रेसी’ 1974 तक चुनाव सुधारों की जो शृंखला चली वह 2015 तक आते-आते मुख्य चुनाव आयुक्त एच.एस. ब्रह्मा तक भी रुकी नहीं। चुनाव-सुधारों के लिए कभी तारकुण्डे कमेटी बनी तो कभी 1990 में दिनेश गोस्वामी की रिपोर्ट आई। जस्टिस जीवन रैड्डी ने भी कई सुझाव दिए तो 1994 में संविधान बिल भी पास किया गया।

इंद्रजीत गुप्त कमेटी भी 1998 में चुनावी सुधारों बारे अपनी रिपोर्ट लेकर आई। अदम्य साहसी टी.एन. शेषन ने चुनावी सुधारों के लिए मृतप्राय: केंद्रीय चुनाव आयोग में नई जान फूंकी। यही काम उनके उत्तराधिकारी एम.एस.गिल और लिंगदोह ने किया। टी.एस. कृष्णामूर्ति, एन. गोपाला स्वामी और नवीन बी. चावला चुनावी सुधारों की वकालत कर चलते बने पर चुनावों में धन-बल की फिजूलखर्ची कम नहीं हुई। बाहुबलियों, अपराधियों का चुनावों में दमखम कम न हुआ। चुनावों पर खर्च बढ़ता चला गया। 
 
आए दिन देश चुनावों के शोर में दबता चला गया। आम वोटर ठगा-सा महसूस करने लगा। कभी एक चुनाव तो कभी दूसरा। देश में चुनावी माहौल खत्म होता ही नहीं। इतनी कमेटियां, इतने कमीशन सरकार ने चुनाव सुधारों बारे बनाए पर बना क्या? चुनावी खर्च तो घटा नहीं।
 
चलो कोई बात नहीं। बहुत कुछ नहीं तो कम से कम चुनाव कमीशन देश में एक करिश्मा तो कर दिखाए-लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव ही एक साथ करवा दे। जानते हो इस एक चुनावी सुधार से देश का 45,000 करोड़ रुपया बच जाएगा। हमारा देश इस 45,000 करोड़ रुपए से दस नए भाखड़ा डैम बना लेगा। एक नया दिल्ली जितना बड़ा आधुनिक शहर बस जाएगा। न किसी नेता को, न किसी राजनीतिक दल को कोई नुक्सान होगा। मुख्य चुनाव आयोग लोकसभाऔर विधानसभा के चुनाव में एकसारता, एक ही अवसर लाकर दिखाए। यह सबसे बड़ा चुनाव सुधार होगा।
 
देश 1952 से 1967 तक ऐसा कर चुका है। 1967 से 1970 के तीन वर्षों में कुछ विधानसभाएं क्या भंग हुईं कि तब का बिगड़ा यह चुनावी गणित कोई चुनाव कमीशन ठीक ही नहीं कर सका। नित चुनाव। राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमाचल और छत्तीसगढ़ से चुनाव हुए तो भारतीय जनता पार्टी की बांसुुरी बजती लोग सुनते रहे। चुनाव ने दिल्ली में दस्तक दे दी। झाड़ू चला तो बिहार का शोर सुनाई देने लगा। नीतीश-लालू के दमगजों के बाद 2017 में पंजाब में चुनाव आ धमकेगा। उधर यू.पी. में मुलायम सिंह यादव चुनावी हुंकार भरने लगे हैं। यहां से निकलेंगे तो पश्चिमी बंगाल दहाडऩे लगेगा। ममता बनर्जी और वामपंथी टकराने लगेंगे। चल सो चल। चुनाव दर चुनाव। एक चुनाव आया तो दूसरा तैयार-बर-तैयार। 
 
देश को सांस लेने का मौका ही नहीं मिल रहा। हिंदुस्तान चुनावी मुल्क हो गया। प्रधानमंत्री से लेकर छोटे से छोटे पार्टी कार्यकत्र्ता तक एक प्रांत से निकलेंगे तो दूसरे प्रांत में चुनावी प्रचार में लग जाएंगे। चुनाव कमीशन रोके इस प्रचलन को।
 
चुनावी माहौल से नेता निकलें तो देश के विकास की सोचें। ‘कोड आफ कंडक्ट’ का कम से कम 90 दिन तो सरकारों को चुनावों में पालन करना ही पड़ेगा। नित्य चुनावी माहौल में धन, समय और मानवीय संसाधनों का कितना अपव्यय हो रहा है? मुख्य चुनाव कमीशन इसका पता तो लगाए? चुनावों में कर्मचारी की कितनी रगड़ाई होती है, उसे कितने तनाव से गुजरना पड़ता है, इसका आकलन मुख्य चुनाव कमीशन पहल के आधार पर करे। फिर चुनाव में नित्य लगे रहने वाले कर्मचारियों के पीछे के दफ्तरों, स्कूलों, कालेजों में काम ठप्प रहने से देश में जो अराजकता का वातावरण बनता है उस पर चुनाव कमीशन गंभीरता से विचार करे।
 
चुनाव का एक महीना फरवरी नियुक्त करना है, सारे देश में निश्चित कर दो। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव इसी एक महीने में चुनाव कमीशन करवा ले, फिर पांच सालों में राजनीतिक पार्टियां अपना-अपना घोषणा पत्र लागू करवाएं। चुनाव कमीशन साक्षी बने कि राजनीतिक दलों ने अपना-अपना घोषणा पत्र कितना लागू किया है, नहीं किया तो क्या दंड? 
 
फरवरी के चुनावी दंगल में  बाहुबली, धन कुबेर, अपराधी तत्व जो-जो जौहर दिखाना चाहते हैं दिखा लें। आगामी पांच वर्ष चुनी हुई सरकार उन्हें कैसे सैट करना है, इसकी योजना लागू करें। चुनाव ही होते रहेंगे तो ऐसे तत्व और पनपेंगे। चुनाव ही होते रहेंगे तो ऐरा-गैरा पियक्कड़ रोज दो-दो बोतलें डकार जाएगा। इस एक महीने में जो होना है, होने दो। पांच साल सरकारों को काम करने दो। नित्य-रोज चुनाव। कभी एक स्टेट में कभी दूसरी स्टेट में, तो काम कब होगा? लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाओ, एक ही महीने में करवाओ। सब मुसीबतों से चुनाव कमीशन बच जाएगा। किसी का कोई नुक्सान नहीं होगा। न किसी नेता का, न राजनीतिक दल का। देश सुधर जाएगा। 45,000 करोड़ रुपया मुफ्त में देश का बच जाएगा। 
 

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