बहुत बढिय़ा नहीं रही सरकार की ‘प्रथम वर्ष में कारगुजारी’

punjabkesari.in Thursday, Jul 02, 2015 - 03:12 AM (IST)

(जॉन दयाल): 26 मई 2014 को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को भारतीय जनता पार्टी नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के मुखिया के रूप में भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी। हाल ही के वर्षों मेें राष्ट्र जीवन में भ्रष्टाचार के बढ़ते बोलबाले के विरुद्ध घृणा और आक्रोश के जनांदोलन पर सवार होकर श्री मोदी ने युवा मतदाताओं की महत्वाकांक्षी पीढ़ी से ‘विकास’ का वायदा किया। लेकिन अन्य किसी भी काम से बढ़कर उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और संघ परिवार के अनगिनत संगठनों के कार्यकत्र्ताओं की सशक्त ‘सेना’ को ऐसा चुनाव अभियान छेडऩे के लिए प्रयुक्त किया था, जिसने मुस्लिमों और ईसाइयों को चुन-चुन कर लक्ष्य बनाते हुए मतदाताओं का ध्रुवीकरण कर दिया था। 

एक वर्ष बाद सरकार यह स्वीकार कर रही है कि कार्पोरेट क्षेत्र को दी गई भारी-भरकम रियायतों के बावजूद  विकास प्रक्रिया का अभी तक श्रीगणेश नहीं हुआ है। नए रोजगार अभी सृजित नहीं हो पा रहे हैं। पूर्व सरकार द्वारा शुरू की गई जो परियोजनाएं सम्पूर्ण होने के करीब पहुंची हैं, उन्हीं के चालूकरण को वर्तमान सरकार फोटो ङ्क्षखचवाकर प्रचार करने के लिए प्रयुक्त कर रही है। ग्रामीण गरीबों एवं अन्य वंचित लोगों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए कई बड़ी परियोजनाएं तैयार की गई थीं, जिनकी धार अब काफी कुंद कर दी गई है। उनके नाम जिस प्रकार परिवर्तित कर दिए गए हैं उसमें से पूर्व प्रधानमंत्रियों के प्रति नफरत की बू आती है। 
 
कर्ज के बोझ तले पिस रहे किसानों की आत्महत्याएं पहले की तरह ही जारी हैं और भ्रष्टाचार समाप्त करने एवं स्विट्जरलैंड व अन्य देशों के बैंकों में जमा ‘काले धन’ को वापस लाने  के वायदे साकार होते दिखाई नहीं दे रहे। 
 
देश के लिए बहुत ही अधिक महत्व रखने वाली कुछ बातें नकारात्मक दिशा में परिवर्तित हो गई हैं। यह बदलाव हुआ है भारतीय सामाजिक परिदृश्य में। 2014 के आम चुनाव के लिए चले अभियान दौरान मुजफ्फरपुर में मुस्लिमों की हत्याओं और बलात्कार जैसा कोई नरसंहार नहीं हुआ था, लेकिन मई 2014 से मई 2015 दौरान केन्द्र की मोदी सरकारतथा भाजपा शासित राज्य सरकारों का संघ परिवार केकार्डर के साथ हाड़-मांस का मजबूत रिश्ता बन गया है। 
 
इसके परिणाम केन्द्र सरकार के स्तर पर गवर्नैंस के भगवाकरण से लेकर मजहबी अल्पसंख्यक समूहों  के उत्पीड़ऩ व अलग-थलग करने से भी आगे बढ़ते हुए प्रशासकीय ढांचे, पुलिस और शिक्षा में घुसपैठ के संघ के एजैंडे को मूर्तिमान करने के रूप में सामने आए हैं। हिंसा को हवा देना उत्पीड़ऩ का एक पहलू है। दूसरा पहलू है सामूहिक योग शिविरों में अनिवार्य सूर्य नमस्कार, राष्ट्रीय अकादमिक संस्थानों का पुनर्गठन और मध्य प्रदेश में बाल पौष्टिकता कार्यक्रम में अंडे प्रयुक्त करने पर प्रतिबंध जैसे संघ के आदेश लागू करना। 
 
चुनाव अभियान दौरान जिस नफरत  की शुरूआत हुई थी वह नए-नए रूप धारण करके अब अधिक पीड़ादायक और चुनौतीपूर्ण बन गई है और यह परिदृश्य एक ओर हमारे विश्वविद्यालयों और कालेजों में जड़ें जमा रहा है तो दूसरी ओर देश के बड़े भाग में गांवों और छोटे कस्बों में। एक गुट ने तो यह कहते हुए ‘हिन्दू हैल्पलाइन’ स्थापित की है कि बहुसंख्य समुदाय से संबंध रखते किसी भी व्यक्ति को यदि मुस्लिमों द्वारा तंग किया जाता है या किसी हिन्दू अभिभावक को संदेह हो कि उसकी बेटी किसी मुस्लिम लड़के से मिलती है तो इसके कार्यकत्र्ता उसकी सहायता करेंगे। 
 
पूर्व प्रशासक, भारत सरकार की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य और जाने-माने एक्टीविस्ट हर्ष मंढेर का कहना है: ‘‘वास्तव में मोदी की राजनीति में किसी प्रकार की अस्पष्टता की गुंजाइश नहीं। वह भाजपा से संबंधित प्रथम प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह कविता का सहारा नहीं लेते और न ही सब लोगों से एक जैसे व्यवहार की नौटंकी करते हैं। वाजपेयी स्वयं ही समय-समय पर मुस्लिम व ईसाई विरोधी शब्दजाल बुनने से बाज नहीं आया करते थे। लेकिन फिर भी उन्हें मोदी की तुलना में उदारवादी नेता समझा जाता था, हालांकि वाजपेयी के उदारवाद की चासनीके अंदर सदा ही साम्प्रदायिक जहर की अलामतें होती थीं।
 
वर्तमान सत्तारूढ़ गठबंधन के मंत्रियों और सांसदों ने देश के सार्वजनिक जीवन में जैसा जहर घोला है वैसा स्वतंत्र भारत में पहले कभी नहीं हुआ था। भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने मदरसों को ‘लव जेहाद’ तथा ‘आतंकवाद की शिक्षा’ देने वाले ‘दहशत के गढ़’ करार दिया है। उन्होंने यह कहते हुए हिन्दू महिलाओं को 4-4 बच्चे पैदा करने का आह्वान किया है कि मोदी युग में ‘4 पत्नियां 40 बच्चे’ का मुस्लिम आचरण जबरदस्ती रोका जाना चाहिए। इससे भी आगे बढ़ते हुए उन्होंने गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ और शहीद करार दिया है।
 
एक अन्य भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ घोषणा करते हैं कि राम के बिना भारत की कल्पना ही नहीं की जा सकती और जो लोग कथित तौर पर दंगे करके हिन्दुओं को तंग करते हैं उन्हें इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा। इससे भी आगे बढ़ते हुए उन्होंने कहा कि ‘यदि एक हिन्दू को मुस्लिम बनाया जाता है तो इसके बदले में 100 मुस्लिम लड़कियों को धर्मांतरण करके हिन्दू बनाया जाएगा।’ एक मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने राम की पूजा न करने वालों को ‘हरामजादे’ करार दिया। एक शिवसेना सांसद ने तो रमजान के महीने में कैंटीन के एक मुस्लिम कर्मचारी के मुंह में जबरदस्ती भोजन ठूंस दिया और शिवसेना से ही संबंधित संजय रावत ने मुस्लिमों का वोट का अधिकार रद्द करने की वकालत की।’’
 
इस प्रकार की घृणा अटल रूप में ङ्क्षहसा का मार्ग प्रशस्त करती है। गिरजाघरों पर हमले और उनकी पवित्रता भंग करना, पादरियों पर हमले, गिरजाघर के कर्मियों को पुलिस द्वारा अवैध हिरासत में लेना तथा मजहबी स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकारों से इन्कारी होना उस आतंक व उत्पीड़ऩ में और भी वृद्धि करते हैं जो ‘घर वापसी’ और ‘लव जेहाद’ ने बेलगाम छोड़ दिया है। छत्तीसगढ़ में गांव स्तर पर ऐसे आदेश पारित किए जा रहे हैं जिनके अनुसार हिन्दू धर्म को छोड़कर अन्य किसी सम्प्रदाय के प्रचारकों और खास तौर पर पादरियों का प्रवेश वजत  करार दिया जाता है।
 
26 मई 2014 से लेकर 13 मई 2015 के बीच यानी कि नरेन्द्र मोदी की राजग सरकार के प्रथम वर्ष के दौरान हिंसा के 600 से भी अधिक मामलों में कम से कम 43 लोगों की मौत हुई है। इनमें से 194 मामलों में ईसाइयों को लक्ष्य बनाया गया है, जबकि शेष में मुस्लिमों को। 
 
मरने वालों की यह संख्या असम में सशस्त्र कबाइली राजनीतिक गुटों के हमलों में मारे गए 108 मुस्लिमों से अलग है। ाम्प्रदायिक हिंसा में मरने वालों की संख्या वास्तव में बहुत अधिक है, लेकिन इन सभी का सरकारी रिकार्ड उपलब्ध नहीं। बहुत से आपराधिक मामलों को तो पुलिस दर्ज ही नहीं करती। हमले के शिकार लोगों को भी डरा-धमकाकर/फुसलाकर अपने आक्रांताओं के साथ समझौता करने के लिए मजबूर किया जाता है। 
 
मोदी सरकार के अपने ही आंकड़ों के अनुसार इसके सत्तासीन होने के प्रथम सप्ताहों दौरान देश के विभिन्न भागों मेें 113 साम्प्रदायिक घटनाएं हुईं। मई-जून 2014 केवल दो ही महीनों दौरान 15 लोग मारे गए, जबकि 318 घायल हुए। गृह मामलों के राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने राज्यसभा में यह खुलासा किया था। हिंसा की बहुत-सी घटनाएं मुस्लिम समुदाय के धर्म स्थलों या मुस्लिम व्यक्तियों के विरुद्ध ही लक्षित थीं। सरकार सिविल सोसाइटी को लक्ष्य बनाकर यदा-कदा चुनिंदा आधार पर मीडिया को जानकारियां लीक करती रहती है लेकिन साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा के संबंध में मासिक रिपोर्टें जारी नहीं करती।  
 

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