केजरीवाल को ‘परेशान’ क्यों किया जा रहा है

punjabkesari.in Monday, May 25, 2015 - 12:51 AM (IST)

(रतन अग्रवाल ): शुरू से ही दिल्ली का सिंहासन विविध प्रयोगों, कहानियों, हठधर्मियों व आकर्षणों का केन्द्र रहा है। मुगलिया सल्तनत हो या अंग्रेजी राज हर समय कुछ न कुछ नया होता ही रहा है। स्वतंत्र भारत में भी यह सिलसिला थमा नहीं। केजरीवाल के रूप में दिल्ली की राजनीति में हुए एक नए प्रयोग को जो एजैंसियां सफल नहीं होने देना चाहतीं उन्होंने उपराज्यपाल नजीब जंग तथा मुख्यमंत्री केजरीवाल के परस्पर संबंधों को विवाद का रूप दे दिया है।
 
सवाल सीधा-सा है कि यदि दिल्ली पूर्णरूपेण राज्य नहीं है तो इसका तात्पर्य है कि इसके मुख्यमंत्री और मंत्री क्या केवल पैट्रोल फूंकने और वेतन लेने तक ही सीमित हैं? एक ओर तो केन्द्र और राज्य सरकारों के झगड़े, राज्य बनाम राज्य के झगड़े, जल बंटवारा, टैक्सों में भारी अंतर, बार-बार के चुनावों पर करोड़ों-अरबों रुपए का खर्च इत्यादि मुद्दे लोगों को परेशान कर रहे हैं और दूसरी ओर यदि जनता ने सत्तारूढ़ पार्टियों से लगभग 95 प्रतिशत सीटें छीन कर स्वयं इन समस्याओं को हल करने का प्रयास किया है तो अरुण जेतली इसे ‘बहुत महंगा प्रयोग’ बता रहे हैं।
 
यदि जेतली जी को स्वयं इस सवाल का जवाब देना पड़े कि पराजित होने के बावजूद वह केन्द्र में वित्त मंत्री क्यों बने हुए हैं और उनके एक वर्ष के वित्तमंत्रित्वकाल में दालों की कीमतों में 20-30 रुपए प्रति किलो की वृद्धि क्यों हो गई है, अन्तर्राष्ट्रीय मार्कीट में कच्चे तेल की कीमतें 50 प्रतिशत गिरने के बावजूद पैट्रोल और डीजल महंगा क्यों हुआ है, किसानों का आलू मुफ्त के भाव क्यों खरीदा जा रहा है, बासमती व गेहूं का कोई खरीदार क्यों नहीं-तो उनके पास क्या उत्तर है? इन सवालों का भी उनके पास क्या उत्तर है कि काले धन को वापस लाने तथा डालर का रेट 38 रुपए तक लाने के वायदों का क्या बना; सर्विस टैक्स बढ़ाकर 14 प्रतिशत क्यों किया गया, आयकर में छूट क्यों नहीं दी गई तथा साधारण लोगों द्वारा प्रयुक्त होने वाले चिप्स जैसे उत्पाद महंगे क्यों हुए?
 
आम जनता कांग्रेस नीत गठबंधन की सरकारों से संतुष्ट नहीं थी और उसने मोदी नीत गठबंधन को बहुमत देकर उन सरकारों के विरुद्ध अपना फतवा सुना दिया। दिल्ली में भाजपा के पास कोई काबिल नेता नहीं था तो जनता ने केजरीवाल का दामन थाम लिया। आखिर इस बात से भाजपा में इतनी बेचैनी क्यों है?
 
इस बात में कोई संदेह नहीं कि बहुमत तो बहुमत ही है चाहे एक सीट का ही हो या 70 में से 67 सीटों का, लेकिन दिल्ली की जनता का फतवा जहां कई अन्य बातें भी स्पष्ट कर देता है वहीं इस बहस को भी विराम देता है कि जनता क्या चाहती है। फिर भी यदि भाजपा बेचैन है तो कोई क्या करे? 
 
आखिर वह उपराज्यपाल के कंधे पर बंदूक रख कर चांदमारी क्यों कर रही है? जब दिल्ली की जनता का फतवा स्पष्ट है कि वह केजरीवाल के साथ है और मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल ही जनता के समक्ष जवाबदेह हैं तो भी उन्हें हर रोज नए-नए ढंग से परेशान क्यों किया जा रहा है। चीफ सैक्रेटरी हो या फिर नौकरशाह, वह केजरीवाल की मर्जी का क्यों नहीं हो सकता?
 
पिछली बार भी जब केजरीवाल 49 दिन के लिए मुख्यमंत्री बने थे तो आपको स्मरण होगा कि उनकी बहुमत प्राप्त सरकार ने विधानसभा में जनलोकपाल बिल प्रस्तुत किया था। उस समय यही उपराज्यपाल महोदय कहते थे कि पहले मुझ से और फिर स्टैंडग कमेटी से पास करवाओ। परन्तु जब सांसदों-विधायकों ने अपने वेतन, भत्ते और अन्य सुविधाओं में वृद्धि करनी हो तो रात के 11-11 बजे भी विधेयक पारित हो जाते हैं।
 
एक चुनी हुई सरकार और 95 प्रतिशत सीटें जीत कर बने इसके मुख्यमंत्री को पंगु बनाने का प्रयास क्या लोकतांत्रिक है? टैलीविजन पर संविधान व कानून के विशेषज्ञ अपनी राय देते रहते हैं। उनके अनुसार कानून के अन्दर भी बहुत-सी धाराएं ऐसी हैं जिनकी कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश विभिन्न स्थितियों के अनुसार इनकी अलग-अलग व्याख्या करते हैं। 
 
मूल बात है भावना को समझने की। और भावना पूरी तरह स्पष्ट है कि दिल्ली के लोगों ने कांग्रेस के 15 साल के शासन को रद्द करने के साथ-साथ नरेन्द्र मोदी के महान सिपहसालारों को भी ठुकरा दिया और नवोदित अरविन्द केजरीवाल को 95 प्रतिशत सीटें जिता दीं। अब किसी को यह अधिकार नहीं कि वह जनतांत्रिक भावनाओं को पैरों तले रौंदे। अरविन्द केजरीवाल को मुख्यमंत्री के रूप में दिल्ली का शासन अपने तरीके से चलाने की खुली छूट होनी चाहिए।
 

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