मृत्यु किसान की हुई या जनसंवेदनाओं की?

punjabkesari.in Friday, Apr 24, 2015 - 11:44 PM (IST)

(तरुण विजय): बहुत वर्ष पहले न्यूयार्क में अति धनी लोग अपने जीवन की एकरसता से ऊब कर रैगपिकर्स या कूड़ा बटोरने वाले लोगों की शैली के कपड़े पहन कर थीम पार्टियां करते थे। खूब जमकर दावतें होती थीं लेकिन कपड़े सब लोग फटेहाल कचरा बटोरने वालों जैसे ही पहन कर आते थे। 

इसी शैली में नई दिल्ली में एक राजनीतिक रैली में हजारों लोगों की उपस्थिति में एक किसान पेड़ पर लटक कर अपनी जान दे गया और तब से संसद, मीडिया, समाज में बहुत जश्न के साथ दुख प्रकट करने की होड़ लगी हुई है। किसान की मृत्यु, किसानों के प्रति संवेदना जगाने से अधिक अपने-अपने लिए राजनीतिक लाभ उठाने का विषय अधिक बन गई है। 
 
अब आरोप लगाए जा रहे हैं कि उस किसान को वक्त रहते बचाया जा सकता था। लेकिन नेताओं ने कुछ नहीं किया, पुलिस ने कुछ नहीं किया वगैरह-वगैरह। कोई यह नहीं पूछता  कि इतनी बड़ी संख्या में वहां पत्रकार, कैमरामैन, रिपोर्टर मौजूद थे। वे देख भी रहे थे कि गजेन्द्र नाम का किसान क्या करने वाला है? उनमें से कोई क्यूं नहीं सक्रिय हुआ? क्यों अखबार के लोग सिर्फ दूसरों पर आरोप लगाना अपना एकमात्र कत्र्तव्य मानते हैं? मनुष्य के नाते क्या उनमें इतनी भी संवेदना नहीं होती कि मृत्यु की ओर जा रहे व्यक्ति को देखते हुए भी उसे बचाने की कोशिश करें, न कि तमाशा देखते हुए सिर्फ फोटो खींचते रहें?
 
किसान की मृत्यु से जुड़ा प्रश्र हमारी संवेदनाओं का है। रास्ते चलते हम घायल पशु को देखते रहते हैं लेकिन उसे बचाने या उसे अस्पताल भेजने के लिए प्रयास करने का मन नहीं रखते। पशु के समान ही हम पीड़ाग्रस्त मनुष्यों के प्रति भी व्यवहार करते हैं। रेलवे स्टेशन पर, फुटपाथ पर, गर्मी, बरसात और सर्दी के समय हम उन सैंकड़ों लोगों को देखते हैं जो गर्मी से व्याकुल, बरसात में छप्परहीन और सर्दी में ठंड से मरणासन्न होते हैं। क्या करते हैं हम उनके लिए? 
 
कोई कवि होंगे तो दर्द भरी कविता लिखेंगे। पत्रकार उनकी फोटो पहले पन्ने पर छाप देंगे। फिर कहेंगे कि देखिए, प्रशासन इनकी ओर ध्यान नहीं दे रहा। विपक्ष उस फोटो समाचार को लेकर संसद और विधानसभा में शोर मचाएगा तो सत्ता पक्ष कहेगा कि यह सब आपके शासन काल से चला आ रहा है। इससे स्थिति को सुधारने में वक्त लगेगा। सारांश यह निकलेगा कि गरीब जहां था वहीं रहेगा।
 
किसान की मृत्यु के बाद भी नेता भाषण देते रहे, समाज के लोग भाषण सुनते रहे और पत्रकार भाषण की रिपोर्ट करते रहे। मीडिया के लिए जरूरी था कि मरते हुए किसान की क्षण-प्रतिक्षण तस्वीरें और वीडियो उतारा जाए ताकि चैनलों की प्रतिस्पर्धा में वे सबसे पहले ब्रेकिंग न्यूज देते हुए कह सकें कि मरते हुए किसान का आंखों देखा हाल, सिर्फ हमारे चैनल पर आ रहा है। मामला टी.आर.पी. रेटिंग का भी होता है अर्थात् किसी एक समय सबसे ज्यादा दर्शक अगर उनका चैनल देख रहे हैं तो उस संख्या बल के आधार पर अधिक विज्ञापन तथा बढ़ी हुई विज्ञापन दरें मिल जाती हैं, मुनाफा होता है और रौब बढ़ता है, सो अलग। इसलिए मीडिया का धर्म या अधर्म यही था कि वह गजेन्द्र को देखता रहे और कलम में दर्द भर कर उस घटना का विवरण अत्यंत मार्मिकता के साथ पाठकों और दर्शकों तक पहुंचाए।
 
एक मरी हुई संवेदना वाला मीडिया मर रहे किसान की रिपोर्ट ही कर सकता था, उसे बचा नहीं सकता था। नेताओं और पुलिस की तो बात ही क्या है? उनकी संवेदनाओं के अपने-अपने खूंटे होते हैं। जो उस खूंटे में पानी चढ़ा दे उसी की आवाज सुनी जाती है। रैली जिस मकसद के लिए बुलाई गई थी, उसमें किसान की आत्महत्या बाधा ही डाल सकती थी। बाधाओं की चुनौती का सामना करते हुए नेताओं के भाषण चलते रहे। किसान ने अपना काम किया, नेता अपने काम में व्यस्त रहे। 
 
वैसे भी माहौल ऐसा बन गया है कि राजनीति का संवेदना के साथ कोई रिश्ता जुड़ता नहीं है। एक ही संबंध है कि अगर तुम मेरे काम के हो तो मैं तुम्हारे काम का हूं। अगर मेरा काम तुम्हारे बिना चल सकता है तो मुझे जरूरत ही क्या है कि तुम्हारा साथ लूं या तुम्हारा साथ दूं? राजनीति का सम्पूर्ण वैश्विक दृष्टिकोण इसी बात पर टिका है। जो किसान रैली में था, वह किसके राडार पर महत्वपूर्ण बिन्दु हो सकता था?
 
जहां तक पुलिस का प्रश्र है, उसका तो सीधा सा कानूनी स्पष्टीकरण है कि मर रहे किसान की एफ.आई.आर. या प्रथम दृष्टया रिपोर्ट किसने लिखवाई? कोई तो ऐसा व्यक्ति होता जो हमें जानकारी देता कि किसान जान-बूझकर अपनी जान ले रहा है और पुलिस उसे बचाए। ऐसा तो किसी ने किया नहीं तो हम क्या करते? वैसे भी पुलिस और दिल्ली सरकार का आंकड़ा यह हो गया है कि मुख्यमंत्री अपने भाषण में पुलिस पर सवाल उठाते हैं। मानो पुलिस सत्ता में है और मुख्यमंत्री विपक्ष में।
 
हमारे सामान्य समाज की बुद्धि और विवेक की बड़ी प्रशंसा होती है। कहा जाता है कि वह सबसे महान है। नेता तो जन्मजात, प्रमाणित रूप से खराब होते ही हैं, यह किसी को बताने या इसके लिए किसी प्रमाण की भी आवश्यकता नहीं है। लेकिन जिस जनता की महानता, बुद्धिशीलता और सही तथा गलत को जांच कर उचित निर्णय लेने की तथाकथित क्षमता का बहुत बखान होता है, यह वही जनता है जो राह में पड़े विपदाग्रस्त की सहायता करने की बजाय अपना काम बदस्तूर करती रहती है। 
 
हम सबका सामूहिक पाखंड संवेदना की मृत्यु घोषित करता है। शायद भीतर दबा कोई बचा-खुचा चैतन्य कचोटता है तो हम अपने अलावा बाकी सब पर आरोप लगाने में जुट जाते हैं। पिछले दस वर्षों में अब तक एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसकी आत्मा को  इससे चोट पहुंची? तात्कालिक बहस तो सिर्फ न्यूयार्क की रैगपिकर थीम पार्टी जैसी है।
 

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