पूर्वोत्तर के ‘स्वतंत्रता सेनानियों’ को भारत सरकार क्यों भूल गई

punjabkesari.in Monday, Feb 23, 2015 - 04:00 AM (IST)

(तरुण विजय) राजनीतिक कोलाहल और ओबामामय वातावरण में हम कैसे रानी गाइदिन्ल्यू को भूल गए? नागालैंड से वह अकेली स्वतंत्रता सेनानी मानी जाती हैं। उनका जन्म 26 जनवरी, 1915 को हुआ था। इस वर्ष उनकी जन्म शताब्दी प्रारंभ हुई पर दिल्ली को दूरस्थ वीरों की याद आती नहीं।

गाइदिन्ल्यू साधारण नागा युवती थी। मणिपुर-नागालैंड से जुड़े हेराका समुदाय या वर्ग में पैदा हुई। उनका चचेरा भाई जादोनांग कुछ समय ब्रिटिश फौज में रहा पर अंग्रेजों का दमन और मणिपुर-नागालैंड में ब्रिटिश फौज के साए तले ईसाई मिशनरियों के विस्तार से वह क्रुद्ध हो अपने हेराका नौजवानों की एक गुरिल्ला सेना तैयार कर अंग्रेजों से लडऩे लगे। 13 साल की उम्र में गाइदिन्ल्यू जादोनांग की सेना में शामिल हो गई। अंग्रेज इस किशोर वय की गुरिल्ला योद्धा से परेशान हो उठे।

14 साल की उम्र में गाइदिन्ल्यू की टुकड़ी ने 100 से ज्यादा अंग्रेजी सैनिक मार गिराए। असम के गवर्नर ने रानी की गुरिल्ला टुकड़ी को पकडऩे के लिए असम राइफल्स की तीसरी और चौथी बटालियनें रवाना कीं। इस बीच गाइदिन्ल्यू के भाई और हेराका आंदोलन के जनक जादोनांग धोखे से पकड़े गए और अंग्रेजों ने उन्हें 1931 में फांसी दे दी। जादोनांग की शहादत के बाद गाइदिन्ल्यू प्रमुख बनीं। लगातार लड़ाइयां लड़ते-लड़ते 16 फरवरी 1932 को उत्तरी कछार पहाडिय़ों तथा 18 मार्च 1932 को हांग्रम गांव में गाइदिन्ल्यू की गुरिल्ला फौजों ने असम राइफल्स से भयानक लड़ाई लड़ी और उनके छक्के छुड़ा दिए। उस समय नागा हिल्स के डिप्टी कमिश्नर जे.पी. मिल्स ने रानी को पकडऩे में मदद देने वालों को 10 साल तक गांव के टैक्स से छूट की घोषणा की। ऐसा कभी तत्कालीन असम के इतिहास में  हुआ नहीं था। गाइदिन्ल्यू की कार्रवाइयां बढ़ती ही जा रही थीं और उनकी गुरिल्ला फौज में भर्ती होने वाले नौजवान भी दूर-दूर से आने लगे थे। गाइदिन्ल्यू 2 मोर्चों पर लड़ रही थीं-एक अंग्रेजों की गुलामी और दूसरा उनके साए में आने वाले ईसाई मिशनिरयों द्वारा भोले-भाले ग्रामीण नागाओं का धर्मांतरण। समूचे तत्कालीन असम क्षेत्र में ब्रिटिश फौज के साथ ईसाई मिशनरी भी अपने मत के प्रचार के लिए आते।

पश्चिमी देशों में उन्होंने प्रचारित किया हुआ था कि नागा क्षेत्र हैड हंटर्स यानी सर काटकर उसे अपने गांव के सजाने वाले वहशी और असभ्य लोगों का इलाका है जिन्हें सभ्य बनाने के लिए ईसाई मत का प्रचार किया जा रहा है। ईसाई मत का प्रचार अंग्रेजों की राजनीतिक आवश्यकता भी थी। गाइदिन्ल्यू का कहना था कि नागा काली के उपासक हैं। उनका अपना महान इतिहास है। उन्हें सभ्यता का पाठ सिखाने वाले ये लोग कौन हैं जो विदेशी फौज के सहारे हमारे समाज का स्वरूप बदलने आ रहे हैं। उन्होंने अपने समाज को एक करने के लिए जिल्यिांगरांग आंदोलन भी शुरू किया ताकि सभी भिन्न-भिन्न प्रकार की नागा जातियां एक सूत्र में बंध सकें।

अपने युद्ध अभियान की सफलता के लिए गाइदिन्ल्यू को एक बड़े केन्द्र की आवश्यकता हुई और उसके लिए उन्होंने पुलोमी नामक गांव चुना। वहां सैंकड़ों कार्यकर्त्ता आसपास के जंगलों से लकड़ी काटकर एक बड़ा काष्ठ दुर्ग बनाने में जुट गए। उधर अंग्रेजों ने अपनी 4 बटालियनें गाइदिन्ल्यू को पकडऩे के लिए पूरे असम में भेजी  हुई थीं जो कैप्टन मैकडोनाल्ड के नेतृत्व में अचानक पुलोमी गांव के पास हो रही हलचल से सचेत होकर रात के अंधेरे में पुलोमी पहुंचे और गाइदिन्ल्यू को उसके साथियों सहित पकड़ लिया। यह 17 अक्तूबर, 1932 की बात है। गाइदिन्ल्यू का पता किसने बताया? बहुत जल्दी मुखबिर का भी पता चल गया। दिसम्बर 1932 में गाइदिन्ल्यू के अनुयायियों ने उस मुखबिर को भी मार डाला। उस समय गाइदिन्ल्यू की आयु सिर्फ 16 वर्ष थी।

गाइदिन्ल्यू को गिरफ्तार कर अंग्रेज सेना मणिपुर ले आई जहां उन पर मुकद्दमे का नाटक किया गया और 10 महीने बाद गाइदिन्ल्यू को अंग्रेजों के पॉलिटिकल एजैंट की अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुना दी। पूरे नागा क्षेत्र ही नहीं असम में इस घटना से आक्रोश उपजा और छोटी-छोटी टुकडिय़ां अंग्रेजों पर लगातार हमले करती रहीं लेकिन प्रभावी नेतृत्व के अभाव में नागाओं का यह स्वतंत्रता संग्राम अधिक लम्बा नहीं चल पाया।

1933-1947 तक 14 वर्ष गाइदिन्ल्यू ने गुवाहाटी, शिलांग, आईजोल और तुरा की जेलों में बिताए। सैंकड़ों गांवों के नागा अपने भीतर स्वतंत्रता की अलख जगाए गाइदिन्ल्यू की प्रेरणा से अंग्रेजों के खिलाफ किसी न किसी रूप में लड़ते रहे और इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने अंग्रेजों को टैक्स भी देने से मना कर दिया। 1933 में गाइदिन्ल्यू के 2 बड़े सेनापति डिकेओ तथा रामजो भी पकड़ लिए गए।

गाइदिन्ल्यू की वीरता और स्वातंत्र्य समर की ख्याति गांधी जी और पंडित नेहरू तक पहुंची। 1937 में पंडित जवाहर लाल नेहरू गाइदिन्ल्यू से मिलने शिलांग जेल गए और बहुत प्रभावित होकर लौटे। उन्होंने अपनी जीवनकथा में भी लिखा है कि 22 साल की वह गुरिल्ला योद्धा इतनी तेजस्वी और सुन्दर थी कि उसे ‘रानी’ कहना ही ठीक होगा। बाद में उनका हिन्दुस्तान टाइम्स में गाइदिन्ल्यू के बारे मे ऐसा बयान भी छपा और तब से गाइदिन्ल्यू के साथ रानी शब्द जुड़ गया। पंडित नेहरू ने उन्हें गाइदिन्ल्यू से रानी गाइदिन्ल्यू बना दिया।

26 जनवरी, 1915 को वर्तमान मणिपुर के लुंगकाओ गांव में जन्मी गाइदिन्ल्यू अपने माता-पिता की 8 संतानों में से 5वीं संतान थीं। उनके पिता अपने गांव के प्रमुख थे। वे अपनी आस्था और विश्वास पर खुलकर हिन्दू धर्म का प्रभाव मानते थे। इंदिरा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम की रजत जयंती पर रानी गाइदिन्ल्यू को ताम्रपत्र दिया था। बाद में उन्हें पद्म-भूषण से भी अलंकृत किया गया।

भारत में जब 1946 में स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार बनी तो पंडित नेहरू के आदेश से रानी गाइदिन्ल्यू को जेल से मुक्त किया गया परन्तु तब तक नागा क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों का बहुत  प्रभाव बढ़ चुका था और दुर्भाग्य से रानी गाइदिन्ल्यू को अपने गांव नहीं लौटने दिया गया। 1952 में पंडित नेहरू के हस्तक्षेप से रानी अपने पैतृक गांव लुंगकाओ पहुंची और जब 1953 में पंडित नेहरू इम्फाल पहुंचे तो रानी गाइदिन्ल्यू की उनसे भेंट हुई। बाद में पंडित नेहरू ने उन्हें दिल्ली बुलाकर नागा क्षेत्र के विकास पर चर्चा भी की।

रानी गाइदिन्ल्यू चर्च समर्थित नागा नैशनल कौंसिल की विरोधी थीं। बाद में उन्होंने अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद की सदस्यता भी ली। 17 फरवरी, 1993 को 78 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। जनजातीय पद्धति के अनुसार उनका अंतिम संस्कार 29 फरवरी 1993 को हुआ। उनके निधन पर राज्य में शोक घोषित हुआ। यह दुख की बात है कि एक ऐसी नागा स्वतंत्रता सेनानी की जन्म शताब्दी सन्नाटे से गुजर रही है।


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