‘दिल्ली की तरक्की’ के लिए हो मजबूत व टिकाऊ सरकार

punjabkesari.in Monday, Feb 02, 2015 - 02:26 AM (IST)

खुदा-न-ख्वास्ता उनकी सरकार बन भी गई तो वह कैसी होगी इसका अंदाजा लगाना इसलिए मुश्किल नहीं कि इस दरम्यान अरविन्द मंडली की चाल-ढाल में कोई खुशनुमा फर्क आया नहीं दिखता। मतदाताओं को अभी से बेईमानी का पाठ पढ़ाया जा रहा है-नोट दूसरी पार्टियों से ले लो मगर वोट ‘आप’ को ही देना।
(अरुण भोले) इस बार भी अरविन्द केजरीवाल के कारण दिल्ली का चुनाव दिलचस्प बन गया है। उनकी ओर लक्ष्य करते हुए अपने एक भाषण में नरेन्द्र मोदी ने जब कहा कि यह चुनाव अराजकता और सुशासन के बीच होगा तो अपना पक्ष मजबूत करने की गरज से केजरीवाल ने मीडिया वालों को बताया कि गांधी ने भी खुद को अराजकतावादी कहा था। पाठक बंधुओ! अल्पज्ञान जब वाचाल बन जाता है तब आप ऐसी ही अनर्गल बातें सुनेंगे। क्या आपके गले यह बात उतरती है कि महात्मा गांधी जैसे परम आत्मानुशासित व्यक्ति ने खुद को कभी अराजकतावादी बताया होगा? यह सवाल सार्वजनिक रूप से खासकर भाई राजमोहन गांधी से मैं इसलिए पूछना चाहूंगा क्योंकि विगत लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के वह भी एक उम्मीदवार थे। उनसे मेरा पुराना नेह-नाता रहा है और हम दोनों समवयस्क भी हैं।

उस जमाने की बहुत सारी बातें वैसे तो मुझे भी मालूम हैं लेकिन मेरे मुकाबले वह ज्यादा विश्वसनीय माने जाएंगे क्योंकि वह गांधी जी के पौत्र हैं, देश के जाने-माने विश्लेषक हैं तथा गांधी सहित कई राष्ट्रीय नेताओं के प्रामाणिक जीवनीकार भी। वह बताएं कि गांधी जी ने कब कहा था कि वह अराजकतावादी हैं? हां, किसी प्रसंग में उन्होंने इतना जरूर कहा था ‘इफ कंसिस्टैंसी मीन्स परसिस्टैंस इन एरर, आई एम नॉट कंसिस्टैंट’(सुसंगत होने का अर्थ यदि किसी भूल के साथ चिपके रहना है तो मैं सुसंगत नहीं हूं)। यह मैंने पढ़ा भी है और सुविज्ञों से सुना भी, लेकिन गांधी के इस कथन का अराजकता से दूर-दूर का कोई नाता नहीं। इन शब्दों द्वारा गांधी केवल दुराग्रह से मुक्त रहने की बात कर रहे हैं।
उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को सनातन मूल्य-मान्यताओं के साथ सतत प्रयोग मान रखा था इसलिए अपने आचार-विचार अथवा क्रिया-कलापों में जब कभी उन्हें कोई खोट नजर आती तो बेहिचक आवश्यक सुधार कर लेते। यही कारण था कि अपनी आत्मकथा को उन्होंने ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ नाम देना उपयुक्त समझा। गांधी के भाव-जगत में प्रवेश कर पाना केजरीवाल जैसे लोगों के लिए अत्यंत कठिन है। बेहतर होगा कि ओछी राजनीति का औचित्य ठहराते समय गांधी का हवाला वह न दिया करें।

कालांतर में अन्ना की मर्जी के खिलाफ अरविन्द मंडली ने ‘आम आदमी पार्टी’ गठित कर ली। किरण बेदी उसमें शामिल नहीं हुईं, तथापि केजरीवाल से लोगों की उम्मीद बंधी कि राजनीतिक कदाचारों से मुक्ति दिला कर मूल्य आधारित राजनीति की वह शुरूआत  करेंगे। उन्होंने बढ़-चढ़कर वायदे भी किए। उन दिनों सरकार चलाने का जो नमूना दरपेश आया वह निहायत अफसोसनाक था। धरना, प्रदर्शन, हंगामा यही सब निजामी जलवे थे। इस बार भी पूरे दम-खम के साथ चुनाव मैदान में वे लोग कूद पड़े हैं। खुदा-न-ख्वास्ता उनकी सरकार बन भी गई तो वह कैसी होगी इसका अंदाजा लगाना इसलिए मुश्किल नहीं कि इस दरम्यान अरविन्द मंडली की चाल-ढाल में कोई खुशनुमा फर्क आया नहीं दिखता। मतदाताओं को अभी से बेईमानी का पाठ पढ़ाया जा रहा है-नोट दूसरी पाॢटयों से ले लो मगर वोट ‘आप’ को ही देना।

आम आदमी पार्टी की एक सह-संस्थापिका शाजिया इल्मी की मानें तो चुनाव कोष इकठ्ठा करने की खातिर एक ही नंबर-सीरीज की कई जिल्दें जारी की गई हैं। शाजिया का खुलासा अगर सही है तो इसे नंबर दो का धंधा नहीं तो और क्या माना जाएगा? इन तरीकों से भारत क्या भ्रष्टाचार मुक्त बन पाएगा? मूल्य आधारित राजनीति पनपेगी? ये सब ऐसे बड़े सवाल हैं जिन पर दिल्ली के मतदाताओं को गंभीरता से विचार करना पड़ेगा।

यह बात मेरी समझ के बिल्कुल बाहर है कि आम आदमी के हुजूम में किसकी इतनी औकात है जो 20,000 की मोटी रकम अदा कर केजरीवाल के सहभोज का स्वाद चख सके? कहां है वह कंगाल शौकीन जो 10,000 खर्च कर उनके साथ अपना फोटो खिंचवाने को बेताब हो? वैसे आयोजनों में जो भाग्यवान कृतार्थ हुए होंगे क्या उन्हें ‘आम आदमी’ माना जाएगा? दुर्भाग्यवश आम आदमी पार्टी का असली चेहरा तो यही है! मतदाताओं को उसे ठीक-ठीक पहचान लेना चाहिए।

उम्मीद तो यही की जा सकती है कि मतदाता अपनी गलती नहीं दोहराएंगे और इस बार कोई एक पार्टी प्रबल बहुमत से विजयी होगी। दिल्ली की तरक्की के लिए मजबूत, टिकाऊ सरकार वक्त का तकाजा है। दिल्ली के लोग इतने सजग और समझदार तो जरूर हैं कि केन्द्र और राज्य सरकार के अच्छे रिश्तों का फायदा समझ सकें। बेशक सरकार की सफलता बहुत हद तक मुख्यमंत्री की लगन और क्षमता पर निर्भर करेगी। किरण बेदी की लोक छवि और कार्य कुशलता से ‘आप’ के लोग भी इतने प्रभावित रहे हैं कि पिछली बार उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने की पहल खुद केजरीवाल ने ही की थी। किरण जी से आशा की जा सकती है कि विकास और सुशासन की राह पर दिल्ली को वह दूर तक ले जाएंगी।

एक बात नरेन्द्र मोदी और उनके निकटवर्ती नीतिकारों को भी समझ लेना जरूरी है। देश को पूरी तरह कांग्रेस मुक्त बनाने की अपेक्षा वे लोग अवांछित क्षेत्रीय पार्टियों को निर्बल और निष्प्रभावी बनाने की ओर अधिक ध्यान दें। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि कांग्रेस को ध्वस्त करने की दिशा में लोहिया और जे.पी. के पूर्वकालीन प्रयासों का नतीजा अच्छा नहीं निकला। उससे आंचलिक राजनीति को तेजी से पांव पसारने का अनुकूल अवसर मिल गया।

क्षेत्रीय दलों की सारी राजनीति मुख्यत: जातिगत भावनाओं को उभार कर व्यक्ति और वंश विशेष की महत्ता को मजबूत बनाए रखना है। सैकुलरिज्म और सामाजिक न्याय की आड़ में चलाई जा रही उनकी राजनीतिक कुरीतियों के कारण बिहार-यू.पी. जैसे बड़े राज्यों का भविष्य गहन अंधकार में डूबता जा रहा है। अपनी तमाम खामियों के बावजूद कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। वह एक ऐसा अखिल भारतीय राजनीतिक संगठन है जिसे दीर्घकालीन संघर्ष और राष्ट्र निर्माण दोनों के पर्याप्त अनुभव हैं। लोकतंत्र के हितैषियों को इस बात की चिंता अवश्य रहनी चाहिए कि देश में राष्ट्रीय स्तर का एक उपयुक्त विकल्प सदा उपलब्ध रहे। इस बात की उम्मीद केवल एक राष्ट्रीय दल से की जा सकती है कि उसकी नीतियों और कार्य-कलापों का परिवेश इतना व्यापक हो जिसमें सबके साथ और सबके विकास का समावेश हो सके।

नि:संदेह विगत अनेक वर्षों से कांग्रेस दोषग्रस्त होती चली आई है लेकिन अब भी उसमें भाजपा की भांति एक स्पष्ट ‘चेन ऑफ कमांड’ है जिसके कारण कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय किसी एक व्यक्ति की बजाय एक निर्धारित व्यक्ति-समूह द्वारा लिया जाता है, भले ही वह समूह मुट्ठी भर लोगों का ही क्यों न हो। एक जमाने में कांग्रेस के अन्दर आंतरिक लोकतंत्र इतना क्रियाशील था कि पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे प्रभावशाली प्रधानमंत्री को मैंने कहते सुना था ‘सब कुछ अपना चाहा तो मैं भी नहीं कर पाता हूं’। और यह उन दिनों की बात है जब सरदार पटेल का निधन हो चुका था और पार्टी के अन्दर पंडित जी पर भारी पडऩे वाला कोई था भी नहीं। अतएव अपने परिष्कृत रूप में कांग्रेस का पुनरुत्थान भारतीय गणतंत्र के लिए निश्चय ही शुभ होगा।


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