एशिया में एक नया शीत युद्ध शुरू हो गया

punjabkesari.in Sunday, Oct 10, 2021 - 05:26 AM (IST)

एक महीने से भी कम समय पहले आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन तथा अमरीका ने ‘ऑकुस’ नामक एक तिहरे समझौते की घोषणा की। इसके उद्देश्यों में 2031-2040 के बीच ऑस्ट्रेलियाई नौसेना को पारंपरिक हथियारों के साथ-साथ परमाणु शक्ति सम्पन्न पनडुब्बियों से लैस करना शामिल है। इसका स्पष्ट उद्देश्य अत्यंत युद्धग्रस्त चीन को काबू में करना है। हालांकि सभी गलत कारणों से इसने फ्रांस को आग-बबूला कर दिया। इसके परिणामस्वरूप फ्रांस का अब तक का सबसे बड़ा, आस्ट्रेलिया को डीजल ऊर्जा से चालित पनडुब्बियों की आपूर्ति का 56 अरब यूरो का सौदा रद्द हो गया है। 

फ्रांसीसी कम्पनियों को उत्पादन का एक छोटा-सा हिस्सा प्राप्त होगा क्योंकि अब रद्द हुई फ्रैंकों-आस्ट्रेलियन पनडुब्बी परियोजना मुख्य रूप से आस्ट्रेलिया में आगे बढ़ेगी और वह भी स्थानीय सहयोगियों के साथ, जैसे कि लॉकहीड मार्टीन आस्ट्रेलिया। इस सारे प्रकरण का फ्रांस की आर्थिक बाध्यताओं के अतिरिक्त इसकी अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में छवि पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। 

महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि अमरीका ने क्यों अपने नाटो सहयोगी फ्रांस को इस तरह से अलग-थलग कर दिया?  और भी महत्वपूर्ण यह कि इसमें आस्ट्रेलिया की क्या भूमिका रही है? एक अनुमान के अनुसार आस्ट्रेलिया ने फ्रांस द्वारा 2016 में अनुबंध प्राप्त करने के बाद से परियोजना पर 2.4 अरब आस्ट्रेलियन डालर (1.8 अरब अमरीकी डालर) खर्च किए हैं। और इस कार्रवाई की ङ्क्षहद-प्रशांत  तथा नाटो दोनों पर क्या बाध्यताएं होंगी? पहली यह कि इस कार्रवाई में भू-रणनीति को लेकर हठधर्मिता के लिए कोई जगह नहीं है। बाइडेन प्रशासन ने अफगानिस्तान से वापसी करके एक  संदेश दिया है कि वह केवल अपनी पूर्ववर्ती ट्रम्प सरकार द्वारा किए गए वायदों का ही अनुसरण कर रही है। यद्यपि ‘वापसी समझौते’ की शर्तों पर दोहा में चर्चा की गई लेकिन विकल्प संभवत: परिप्रेक्ष्य से कहीं अधिक खराब थे। 

हालांकि नए हिंद-प्रशांत रक्षा समझौते पर बाइडेन प्रशासन एक स्पष्ट संकेत दे रहा है कि जहां ट्रम्प केवल बोलते और गुस्से का प्रदर्शन कर रहे थे, उनका कार्य एकमात्र सबसे बड़ी राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौती यानी चीन के खिलाफ कार्रवाई शुरू करना है। आस्ट्रेलिया कई कारणों से इस प्रयास में एक स्वाभाविक सांझेदार था जैसे कि वह एक एंग्लो-सैक्सन देश है, यहां अंग्रेजी बोली जाती है, यह फाइव-आईज समझौते का एक हिस्सा है, इसका ब्रिटेन के साथ एक विशिष्ट संबंध है जिसके साथ अमरीका का ‘विशेष संबंध’ है, यह आकार में एक महाद्वीप है और इससे भी बढ़ कर अमरीका के मुकाबले चीन के साथ इसकी पर्याप्त नजदीकी है क्योंकि यह प्रशांत महासागर में है। 

अतीत में भी इस व्यवहार के लिए  एक आदर्श है, कम से कम अमरीकी नजरिए से। साढ़े 7 दशक पूर्व, जब दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ तथा अमरीका के लिए अखंडित सोवियत संघ एक खतरा था, इसने इसी तरह ब्रिटेन को भी परमाणु हथियारों तथा अन्य आयुध की पेशकश की थी जिससे वह एक विशेष संबंध बना जिसके इर्द-गिर्द बाद में नाटो का निर्माण हुआ।

आखिरकार यदि आपने सोवियत संघ से लडऩा है और वह भी यूरोप में तो आपको मित्रों तथा सहयोगियों की जरूरत होगी जिन्हें आप उनकी जमीन पर प्रोत्साहन दे सकते हैं। 70 वर्ष बाद जब अमरीका अब चीन को अपने मुख्य विरोधी के तौर पर देखता है, इसने हिंद प्रशांत क्षेत्र में वैसी ही यूरोपियन प्रतिक्रिया की है। चूंकि वैचारिक तथा सैन्य चुनौती के तौर पर अखंडित सोवियत संघ का तीन दशक पूर्व अंत हो गया था अमरीका के लिए अब नाटो प्राथमिकता नहीं रहा। बेशक सोवियत संघ के प्रमुख उत्तराधिकारी रूस ने फिर से खुद को मजबूत कर लिया है लेकिन अभी भी यह अपने उन पहले जैसे दिनों से बहुत दूर हैं। 

इस तिहरे गठजोड़ के एशिया प्रशांत की शांति तथा सुरक्षा पर क्या असर होंगे तथा यह देखते हुए कि एक एशियन नाटो सीधा उसके चेहरे पर घूर रहा है, उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? 20 वर्षों से अधिक समय से अमरीका तथा इसके सहयोगी चीन को घेरने के लिए एक एशियन नाटो बनाने के प्रयास कर रहे हैं। चीन की युद्ध भावनाओं को देखते हुए, विशेषकर कोविड-19 के दौरान दक्षिण चीन सागर, हांगकांग, पूर्वी लद्दाख तथा ताईवान के वायु क्षेत्र में उसकी बार-बार घुसपैठ को देखते हुए ऐसा लगता है कि अमरीका ने हथियार उठा लेने का निर्णय किया है। इसने ऑकुस के माध्यम से एशियन नाटो के एंग्लो-सैक्सन बिल्डिंग ब्लॉक्स खड़े किए हैं जैसा कि इसने 1949 में यूरोप में किया था। एशिया में एक नया शीत युद्ध शुरू हो गया है।-मनीष तिवारी
 


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