2024 का चुनावी संग्राम उथल-पुथल से भरा रहेगा
punjabkesari.in Monday, Jul 31, 2023 - 05:40 AM (IST)

2024 के लोकसभा चुनावों के लिए दो प्रमुख राजनीतिक गठबंधन एन.डी.ए. और इंडियन नैशनल डिवैल्पमैंट इनक्ल्यूसिव एलाइंस (इंडिया) ने अपने-अपने राजनीतिक हथकंडे करीब-करीब स्पष्ट कर दिए हैं। एक ओर जहां मोदी के नेतृत्व वाले एन.डी.ए. ने पिछले 9 वर्षों में किए गए तीव्र आर्थिक विकास के दावों, सबका साथ, सबका विकास आदि का नारा बुलंद किया। भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने और विश्व में भारत का डंका बजाने के साथ चुनावी मुहिम का श्रीगणेश कर दिया है।
दूसरी ओर 26 राजनीतिक दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ की ओर से देश के संविधान को बचाने, धर्म निरपेक्षता, लोकतंत्र और संघात्मक ढांचे की रक्षा, धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों तथा महिलाओं के ऊपर हो रहे अत्याचारों का खात्मा करने, आर.एस.एस. की साम्प्रदायिक विचारधारा के विरुद्ध जनतक चेतना का प्रसार करने और भाजपा को सत्ता से बाहर करने का लक्ष्य तय कर लिया है। 2024 का चुनावी युद्ध बेहद अविश्वास, सामाजिक उथल-पुथल से भरे तनावपूर्ण माहौल में लड़ा जा रहा है। देश के कई भागों में धर्मों तथा जातीयों के आधार पर संघर्ष का दौर चल रहा है जिसे ‘गोदी मीडिया’ एक योजनाबद्ध ढंग से ढंकने का प्रयत्न कर रहा है परन्तु देश के लोग अपनी आंखों से देख रहे हैं कि मणिपुर के लोगों को दंगाइयों के रहमो-करम पर छोड़ दिया गया है। सरकार ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया।
प्रशासन की इस असंवेदनशीलता बारे क्या कहा जाए? देश की आर्थिक स्थिति भी बेहतर नहीं कही जा सकती क्योंकि जनसाधारण बेरोजगारी, महंगाई, कुपोषण तथा शैक्षणिक और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण नरक भरे जीवन को भोगने के लिए मजबूर है। अभी तक बसपा, बीजद और शिअद (बादल) उपरोक्त दोनों राजनीतिक गठजोड़ों से बाहर हैं। बसपा प्रमुख मायावती ने घोषणा की है कि उनकी पार्टी 2024 के लोकसभा चुनाव को अकेले ही लड़ेगी। मायावती का ऐसा कदम किस दल की मदद करेगा यह सवाल हम समस्त लोगों विशेषकर बसपा के ईमानदार नेताओं और कार्यकत्र्ताओं के ऊपर छोड़ते हैं। मनुवादी सामाजिक ढांचा कायम होने के बाद दलितों, अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों तथा महिलाओं की स्थिति कितनी दर्दनाक होगी यह बात सोच कर ही रूह कांप उठती है। ऐसी स्थिति को रोकने के लिए दलित समाज और इसके नेता होने का दावा करने वाले नेताओं को 2 प्रमुख गठबंधनों से एक ओर रहने के फैसले के लाभ और हानि को जरूर ध्यान में रखना चाहिए।
बीजद प्रमुख नवीन पटनायक जोकि एक किनारे पर बैठ कर राजनीतिक मौकापरस्ती के माध्यम से अपनी राजनीतिक दुकान चलाने में माहिर हैं, के बारे में और क्या कहा जा सकता है? समय मांग करता है कि देश के हितों को ध्यान में रखते हुए इस दल को भी ‘इंडिया’ का हिस्सा बनना चाहिए। सबसे ज्यादा तरस अकाली दल (बादल) के उन नेताओं की ओर से अपनाई जा रही राजनीतिक नीति पर आता है जो अपने आपको सिखों के निॢववाद राजनीतिक नेता होने का दावा करते नहीं थकते। किसान आंदोलन के दबाव में अकाली दल (बादल) ने भाजपा से नाता तोडऩे की घोषणा की थी तो पंजाब के भारी बहुसंख्यक लोगों ने जोकि अकाली नेताओं से नाराज चल रहे थे, एक हद तक खुशी का इजहार किया था ‘देर आए दुरुस्त आए’ कह कर गुनाहगारों को माफ कर देना पंजाबी लोगों का स्वभाव है मगर जिन अकाली नेताओं को सत्ता का स्वाद पड़ गया है और सत्ता के माध्यम से दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बनने का सपना मन में संजोए बैठे हैं उन्हें भाजपा से संबंध तोड़ कर संघर्षशील दलों के साथ कोई समझौता करना कब रास आ सकता था?
पिछला अनुभव बताता है कि अकाली दल ने अपने कार्यकालों के दौरान कभी भी राज्यों को अधिक अधिकार देने का मुद्दा नहीं उठाया और न ही दरियाई पानी को न्यायिक ढंग से बांटने, पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ को राज्य को सौंपने, पंजाबी भाषायी क्षेत्रों को पंजाब में शामिल करने जैसे मुद्दे भाजपा की उन केंद्रीय सरकारों के समक्ष नहीं उठाए जिसमें वे खुद आप सांझेदार थे। इसके अलावा अकाली नेताओं ने संघ-भाजपा के साम्प्रदायिक इरादों के समक्ष भी अपने होंठ सी लिए थे। 1984 में दिल्ली दंगों के दोषियों को सजाएं देने का नारा भी अकाली नेताओं के लिए महज चुनाव जीतने का एक औजार मात्र ही बन कर रह गया। अब जबकि अकाली दल ने भाजपा तथा एन.डी.ए. से नाता तोड़ लिया है तो उसे संघ-भाजपा और मोदी-शाह सरकार की धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ की जा रही कार्रवाइयों का खुलकर विरोध करना चाहिए। इसके अलावा अकाली दल को संघीय ढांचे के ऊपर किए जा रहे हमलों तथा पंजाब के हितों के साथ किए जा रहे खिलवाड़ का विरोध भी करना चाहिए। इन सवालों के बारे में एकजुट हो रही सियासी पार्टियों के साथ समझौता करने का अकाली नेताओं के लिए यह एक सुनहरा अवसर है।
शायद अब अकाली दल के नेताओं की ओर से एन.डी.ए. के साथ नाता तोडऩे की अपील करना अर्थहीन है। सीधे रूप में सिख जनसमूहों को अब संबोधित करने की जरूरत है जिनकी मदद से यह नेता सत्ता की मलाई खाते आ रहे हैं। केंद्र सरकार की ओर से देश का धर्मनिरपेक्ष, संघात्मक और लोकतांत्रिक ढांचा तोड़ कर एक गैर-लोकतांत्रिक धर्म आधारित राष्ट्र कायम करने का इरादा किसी से छिपा नहीं है। शिरोमणि अकाली दल (बादल) के नेताओं के लिए ही नहीं बल्कि समस्त पंजाबियों विशेषकर नानक नाम लेवा संगतों के लिए यह फैसला करने का समय है कि उन्होंने हक और सच्चाई के साथ खड़े होना है या लूट-खसूट वाले लोगों के साथ?-मंगत राम पासला