‘बंगाल चुनाव में 180 बनाम 90 सीटों का दिलचस्प खेल है’

punjabkesari.in Wednesday, Jan 13, 2021 - 04:54 AM (IST)

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं लेकिन सियासत चरम पर है। मुख्य मुकाबला ममता बनर्जी की टी.एम.सी. और  भाजपा के बीच है लेकिन कांग्रेस वाम मोर्चे के गठजोड़ के हाथ में सत्ता की चाबी है जो उसे ममता बनर्जी या अमित शाह को सौंपनी है। आप कहेंगे यह क्या गणित हुआ। इसके अलावा एक और खेल चल रहा है। ममता बनर्जी की नजरें 9 जिलों की 180 सीटों पर है। 

उधर भाजपा बाम से राम के भरोसे तो है ही साथ ही शबरी के जूूठे बेर में वोट बैंक तलाश रही है। यह हो रहा है 90 सीटों पर। कुल मिलाकर बंगाल का चुनाव बेहद दिलचस्प हो चला है। पहले समझते हैं ममता बनर्जी की 180 सीटों का खेल। बंगाल में कुल सीटें हैं 294। जीतने के लिए चाहिएं 148 सीटें। बंगाल में कुल 23 जिले हैं लेकिन 23 में से 9 जिले बड़े हैं जहां 180 सीटें आती हैं। 

बंगाल चुनाव  को लेकर शुरू में ही दो-तीन बातें साफ कर दें। एक, चुनाव बड़ा संघर्षपूर्ण रहेगा। दो, भाजपा और ममता के बीच बहुत कड़ा मुकाबला है। और तीन, ममता ने पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को हल्के में लिया था लेकिन इस बार वह ऐसी कोई गलती करने वाली नहीं हैं। चुनाव बहुत संभव हैं कि मई में हों लेकिन उग्र और आक्रामक चुनाव प्रचार अभी से शुरू हो गया है। पिछले 6-8 महीनों में एक दर्जन से ज्यादा राजनीतिक हत्याएं हो चुकी हैं। भाजपा ने मोदी मंत्रिमंडल के 10-10 मंत्रियों की ड्यूटी वहां लगा दी है तो ममता ने भी पूरी ताकत झोंक दी है। लेकिन चुनाव में विकास हाशिए पर है। दोनों तरफ अपने-अपने वोट बैंक के हिसाब से ध्रुवीकरण हो रहा है। 

ममता बनर्जी को लग रहा है कि 9 जिलों की 180 सीटें  सत्ता की सीढ़ी का काम कर सकती हैं। ये वे जिले हैं जहां मुस्लिम आबादी बीस फीसदी से ज्यादा है या फिर ममता की पार्टी की जमीनी पकड़ बहुत ज्यादा मजबूत है। ये जिले हैं मुर्शिदाबाद, 24 नार्थ परगना, हुगली, नादिया, साऊथ 24 परगना, बर्दमान, पश्चिमी मिदनापुर, पूर्वी मिदनापुर और हावड़ा। इसके अलावा मालदा, दीनाजपुर जैसे जिले हैं जहां मुस्लिम आबादी हिंदुओं से ज्यादा है। 

कुल मिलाकर ममता के सियासी तरकश में दो तीर बचे हैं। करीब तीस फीसदी मुस्लिम वोट और कूच बिहार उत्तरी बंगाल में भाजपा का संगठन के लिहाज से कमजोर होना। यहां ममता को यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा ने 2016 के विधानसभा चुनाव से लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव के तीन सालों में लंबी छलांग लगाई है। 2016 में करीब दस फीसदी वोट और 6 सीट लेकिन 2019 में चालीस फीसदी से ज्यादा वोट और 18 लोकसभा सीटें जिन्हें विधानसभा में बदले तो 121 सीटें। ऐसे में क्या ममता का 9 बनाम 180 का फार्मूला चलेगा। 

हमें यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि इन 180 सीटों में से 125 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोटर निर्णायक भूमिका निभाता रहा है। 2006 में वाम मोर्चे के हिस्से 230 सीटें आई थीं। इनमें से करीब 100 सीटें तो मुस्लिम इलाकों वाली 125 सीटों में से आई थीं। इसी तरह 2016 के विधानसभा चुनावों में ममता ने अकेले चुनाव लड़ा था। 294 में से 211 सीटों पर कब्जा जमाया था और वोट मिले थे 45 फीसदी। इन 211 सीटों में से ममता ने 98 सीटें उन 125 सीटों में से जीती थी जो मुस्लिम इलाकों में गिनी जाती हैं। इसी आधार पर ममता को लग रहा है कि नौ जिले 180 सीटों का फार्मूला भाजपा पर भारी पड़ सकता है। वैसे जानकारों का कहना है कि इस बार कांग्रेस और वामदल मजबूती के साथ चुनाव लड़ते हैं तो इन 125 सीटों में उनकी भी हिस्सेदारी होगी जो ममता को परेशानी में डाल सकती है। 

भाजपा और कांग्रेस को लगता है कि ममता फार्मूला नहीं चलेगा लेकिन हमें ये बात ध्यान रखनी होगी कि ममता और भाजपा के बीच अभी भी तीन प्रतिशत वोट का अंतर हैं। इस अंतर को पाटना इतना आसान नहीं क्योंकि पिछले दस सालों से ममता का वोट 43-44 फीसदी के नीचे नहीं आया है। भाजपा को जितना भी बड़ा हुआ वोट मिला है वो वाम दलों और कांग्रेस के खाते से मिला है खासतौर से वाम दलों से इसलिए वहां नारा दिया जा रहा है वाम से राम का। वाम यानि वाम मोर्चा। यानि भाजपा ममता के वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब नहीं हुई है। 2011 में विधानसभा चुनाव ममता ने कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था। तब 184 सीटें मिली थीं। 

ममता को चालीस फीसदी वोट मिला था और कांग्रेस को 9 फीसदी। इस 9 फीसदी में से भी आधा वोट तो ममता का था जो कांग्रेस को ट्रांसफर हुआ था। 2011 में सी.पी.एम. को 40 सीटें और 30 फीसदी वोट मिला था। उधर  2011 में भाजपा को चार फीसदी वोट मिला था और वह खाता भी नहीं खोल पाई थी। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 17 फीसदी वोटों के साथ दो सीटें जीती थीं। लेकिन 2016 के विधानसभा चुनावों में ममता ने कहानी पलटी थी। तब ममता अकेले चुनाव लड़ीं। 211 सीटें जीतीं और 45 फीसदी वोट हासिल किए। तब सी.पी.एम. और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था। सी.पी.एम. को बीस फीसदी और कांग्रेस को 12 फीसदी वोट मिला था। 

कुल मिलाकर दिलचस्प हाल है। ममता मुस्लिम शरणार्थियों की शरण में है और भाजपा हिंदू शरणार्थियों की शरण में जीत का आसरा तलाश रही है। कांग्रेस वाम दलों के गठजोड़ से दिलचस्प स्थिति बन रही है। इस बार एंटी ममता वोट भाजपा और कांग्रेस वाम महाजोत के बीच बंटा तो फायदा ममता को होगा और भाजपा को नुकसान। लेकिन यह तब होगा जब महाजोत मजूबती से चुनाव लड़ता है।

अगर लोगों ने महाजोत को नकार दिया तो भाजपाको सियासी फायदा मिलना तय है और वह बाजी भी मार सकती है। वैसे जानकारों का कहना है कि अगर कांग्रेस वाम महाजोत मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने में कामयाब रहा और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी कुछ हिस्सा अपनी झोली में डालने में कामयाब हुई तो ममता को झटका लगा सकता है। भाजपा भी यही उम्मीद कर रही है। उसे लगता है कि हिंदू दलित ओबीसी आदिवासी वोट इकतरफा उसके पास आएगा और मुस्लिम कार्ड पिट जाएगा। लेकिन भाजपा को याद रखना चाहिए कि पिछले लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस और वामदलों को कुल मिलाकर 12 फीसदी वोट मिला था।

अगर इस बार ये बढ़कर 15 भी पहुंच गया तो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। जानकारों का कहना है कि भाजपा के लिए अपने वोट प्रतिशत में दो प्रतिशत की कमी का मतलब पचास सीटों पर हाथ धोना है। अलबत्ता अगर महाजोत का वोट सात-आठ फीसदी पर आ जाता है तो भाजपा चमत्कार की उम्मीद कर सकती है।-विजय विद्रोही
 


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