क्या अब लोकतंत्र नए-नए नारों पर चलेंगे

Monday, Apr 12, 2021 - 01:52 AM (IST)

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पिछले सोमवार को एक कानून पर हस्ताक्षर किए जिससे उन्हें सन् 2036 तक सत्ता में बने रहने की अनुमति मिल गई है। 68 वर्षीय पुतिन दो दशकों से अधिक समय से सत्ता में हैं  और यह पूर्व सोवियत तानाशाह जोसेफ स्टालिन के बाद किसी भी क्रैमलिन नेता की तुलना में अधिक लम्बा शासन काल होगा। अपने इस फैसले के बारे में पुतिन ने तर्क दिया है कि संभावित उत्तराधिकारियों की तलाश में अपना समय गंवाने की बजाय अपने काम पर ध्यान केंद्रित रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक था। 

ऐसा नहीं कि पुतिन के विरुद्ध कोई नहीं है, अलेक्सी नवलनी, जो आजकल जेल में कोरोना से बुरी तरह संक्रमित हैं और जिंदगी तथा मौत के बीच जूझ रहे हैं, के साथ ज्यादातर रूसियों की सहानुभूति और विश्वास है। रेटिंग की बात करें तो केवल 32 प्रतिशत लोगों का कहना है कि वे पुतिन पर भरोसा करते हैं। यह क्रीमिया युद्ध से पहले के समान है। क्रीमिया को जीतने के बाद 2014 में उनकी रेटिंग 88 से 89 प्रतिशत थी। 

वास्तव में इस महामारी के दौरान दुनिया भर की सरकारों में एक प्रवृत्ति बन गई है, जो न केवल विकसित राष्ट्रों में फैल गई है बल्कि विकासशील लोकतंत्रों में भी अपनाई जा रही है। निश्चित रूप से तुर्की और रूस जैसे निरंकुश देशों में राष्ट्रपति / प्रधानमंत्री ने इसकी शुरूआत की है। चुनाव जीतने के लिए सरकारें अब अच्छी आर्थिक नीतियों या शांति संधियों की तलाश करने की बजाय केवल नारों की तलाश कर रही हैं। 

कुछ दशक पहले आर्थिक क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन न करने वाली सरकारों को आमतौर पर वोट नहीं दिया जाता था लेकिन अब अगर कोई पार्टी ‘पहचान’ के संकट के मुद्दे को उठा लेती है और देशभक्ति की भावनाओं को बढ़-चढ़ कर आगे लाती है, तो वह आसानी से चुनाव जीत सकती है। रूस का उदाहरण लें जो आर्थिक तौर पर अभी भी उतना मजबूत नहीं जितना कभी हुआ करता था। हालांकि, उसके विदेशी मुद्रा भंडार में काफी वृद्धि हुई है परन्तु आम आदमी की आय अभी भी बहुत कम है। तो फिर ऐसा क्यों है कि रूसी लोग अब भी पुतिन को वोट करने को तैयार हैं? इसी प्रकार तुर्की में रिसेप तैयब एर्दोगन के लम्बे शासनकाल में न केवल मौलिक अधिकारों का हनन हुआ बल्कि वहां आई आर्थिक गिरावट के कारण भी लोग बहुत परेशान हैं। 

याद रहे कि यह वही देश है जिसने न सिर्फ इतने वर्षों तक अपने धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बनाए रखा बल्कि 100 वर्षों से न केवल सुदृढ़ लोकतंत्र का उदाहरण है बल्कि एक मजबूत विकसित राष्ट्र भी रहा है परंतु अब ऐसा नहीं है और एर्दोगन अब तुर्की को एक इस्लामी देश बनाने में जुटे हैं। दो दिन पहले ही उन्होंने सेना और नौसेना का इस्लामीकरण करने की पेशकश रखी क्योंकि उनका कहना है कि देश की ‘पहचान’ खतरे में है। ऐसे में लोगों के अंदर राष्ट्रवाद की भावना उमड़ आनी स्वाभाविक है। अब कोई आर्थिक मंदी की ओर नजर नहीं उठा रहा, अनेक लेखकों-पत्रकारों को जेल में क्यों डाला गया इसकी बात नहीं कर रहा। ऐसे में इस राष्ट्रपति का कार्यकाल यदि और बढ़ जाता है तो आश्चर्य की बात नहीं। 

दूसरी ओर पुतिन के हाथों में जैसे जादू की छड़ी लग गई है। रूसी सरकारी टी.वी. के दर्शकों के लिए अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के ए.बी.सी. न्यूज के साथ 16 मार्च का साक्षात्कार, जिसमें उन्होंने सहमति व्यक्त की थी कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन एक ‘हत्यारे’ थे, युद्ध को प्रज्ज्वलित करने वाला और देशभक्ति के उन्माद को भड़काने का बड़ा कारण बन गया है। अब तो मार्च के महीने में पुतिन की रेटिंग बढ़ कर 63 प्रतिशत हो गई है और ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं कि रूस की सेना यूक्रेन की ओर बढ़ रही है। सुनने को यह भी आ रहा है कि ‘यूक्रेन का अंत’ अब निश्चित है। यदि ऐसा होता है तो पुतिन दोबारा से 80 प्रतिशत से ऊपर की पसंदीदा रेटिंग में आ जाएंगे। 

ऐसे में यह सोचना गलत होगा कि एक पुराने लोकतंत्र में ऐसा नहीं हो सकता। सबसे अधिक पुराने लोकतंत्र ब्रिटेन में भी ब्रेग्जिट यानी यूरोपियन यूनियन से अलग होने की प्रतिक्रिया भी इसलिए हुई थी क्योंकि अंग्रेजों को लगा कि ई.यू. के साथ जुड़े रहना उनके लिए ‘आइडैंटिटी क्राइसिस’ (पहचान के संकट) का मुद्दा था। ऐसे में अमरीका को कैसे भूला जा सकता है जहां ट्रम्प गरज-बरस कर चले गए परंतु श्वेत अमरीकी मूल निवासियों के दिलों में अपनी पहचान बाहर से आने वाले प्रवासियों के कारण संकट होने का भय छोड़ गए। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिरकार नागरिकों की पहचान इतनी नाजुक और कच्ची क्यों हो गई है कि आर्थिक प्रगति का स्थान नारों ने ले लिया है? क्या यह लोगों की नासमझी है या नेताओं की कारीगरी।

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