जानलेवा प्रदूषण को लेकर कब गम्भीर होंगे हम

punjabkesari.in Monday, Nov 18, 2019 - 12:15 AM (IST)

वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार नैशनल एन्वायरनमैंटल एजैंसी ने पाया है कि ‘आऊटडोर पॉल्यूशन’ अर्थात घर के बाहर प्रदूषण की वजह से पहले ही प्रतिवर्ष साढ़े तीन से चार लाख लोगों की असामयिक मौत हो रही है। ‘इन्डोर पॉल्यूशन’ अर्थात घर के भीतर प्रदूषण से भी तीन लाख लोगों की जान गई है जबकि डायरिया, ब्लैडर तथा पेट के कैंसर एवं अन्य रोगों की वजह से 60,000 लोगों की मौत हुई है। इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2015 में देश में लगभग 16 लाख लोगों की मौत प्रदूषित हवा के परिणामस्वरूप ही हृदय, फेफड़े तथा आघात जैसी समस्याओं से हुई। 

पी.एम. 2.5 का दर्ज किया गया उच्चतम स्तर प्रति क्यूबिक मीटर 1000 था जबकि पोटाशियम, कैल्शियम, नाइट्रेट, सल्फेट युक्त पी.एम. 2.5 का लोगों के स्वास्थ्य पर घातक असर हो रहा है जिससे वे अस्थमा, ब्रोंकाइटिस से लेकर सांस लेने में तकलीफ जैसी गम्भीर श्वास समस्याओं से ग्रस्त होकर असामयिक मौत का शिकार हो रहे हैं। वास्तव में मस्तिष्क को क्षति तथा असामयिक मौत के अलावा फेफड़े का कैंसर बच्चों में प्रमुख जानलेवा रोग बन गया है। यह रिपोर्ट चीन के बारे में है परंतु यह भारत के हालात पर भी सटीक बैठती है। सम्पूर्ण भारत में हालात कुछ ऐसे ही बनते जा रहे हैं। 

प्रदूषण का स्तर हर राज्य में अलग-अलग हो सकता है परंतु सभी जगह इसका स्तर गम्भीर तथा चिंताजनक हो चुका है। पूछने वाला सवाल यह है कि ए.क्यू.आई.-300 अथवा 1000 (बहुत बुरे दिनों में) के स्तर पर रहते हुए क्या हम मरने या अपनी अगली पीढ़ी को मस्तिष्क क्षति, फेफड़े के कैंसर जैसी गम्भीर समस्याओं से ग्रस्त होने देने के लिए तैयार हैं। पिछले पूरे सप्ताह दिल्ली में लगातार बढ़ते प्रदूषण को देखना बहुत ङ्क्षचताजनक था जब लोगों में आंखों में जलन, गले में दर्द और सांस लेने में तकलीफ आम हो गई। स्कूल बंद कर दिए गए थे, फिर भी लगता है कि कोई भी प्रदूषण से बच नहीं सका क्योंकि ‘एयर प्यूरीफायर’ चलने के बावजूद घरों में पी.एम. 2.5 का स्तर 280 से कभी कम नहीं हुआ। 

इन परिस्थितियों के बीच विभिन्न मुख्यमंत्रियों तथा नेताओं में आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। यहां तक कि वायु प्रदूषण पर आयोजित की गई पाॢलयामैंट्री स्टैंङ्क्षडग कमेटी की बैठक से भी सांसद तथा उच्चाधिकारी नदारद रहे। वायु प्रदूषण से निपटने के लिए जिम्मेदार सरकारी एजैंसियों के अधिकारियों ने कमेटी द्वारा बुलाई गई महत्वूपर्ण बैठक से दूर रहना पसंद किया। 29 सांसदों में से सिर्फ चार ही बैठक में मौजूद थे। यदि वर्तमान स्थिति से निपटने को लेकर यह रुख है तो कल्पना ही की जा सकती है कि प्रदूषण  की समस्या से हम कब तक निपट सकेंगे। पहले ही इसे 4 वर्ष हो चुके हैं। यदि चीन का उदाहरण देखें तो उन्हें इससे निपटने में 20 वर्ष लगे।

क्या लोगों के प्राणों से भी अधिक महत्वपूर्ण कुछ है? किसी राजनीतिक मुद्दे, अर्थव्यवस्था या चुनाव का कोई अर्थ नहीं यदि भारत के नागरिकों को जीने का मूल अधिकार ही न मिले। परंतु क्या हम एक गम्भीर आपदा के रूप में इस पर विचार करने को तैयार हैं या अभी भी इसे दिल्ली में अक्तूबर-नवम्बर की समस्या ही मानते रहेंगे? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रदूषण ने जब चीन को प्रभावित किया था तो इसके परिणामस्वरूप ताइवान, जापान तथा कोरिया को भी तेजाबी बारिश का सामना करना पड़ा था। 

इस समस्या का समाधान तब तक नहीं होगा जब तक केंद्र और राज्य की सरकारें मिल बैठ कर इस पर गंभीरता से विचार नहीं करतीं। परंतु इसके साथ ही प्रदूषण की समस्या के खिलाफ मजबूत जनमत भी तैयार करने की जरूरत है। यदि देश के नागरिक किसी फिल्म के पक्ष या विरोध में आगजनी तक कर सकते हैं तो क्या वे इतनी भी संवेदनशीलता नहीं दिखाएंगे कि अपने और अपने बच्चों के जीवन की खातिर सरकारों पर अपने दबाव और प्रभाव का इस्तेमाल करें।


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