अमरीकी सैनिकों की वापसी : क्या अफगानिस्तान फिर तालिबानी हो जाएगा

punjabkesari.in Monday, Feb 11, 2019 - 01:15 AM (IST)

330 ईस्वी पूर्व में सिकंदर अफगानिस्तान पहुंचा जहां उसे कबायलियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। हालांकि उसका अफगानिस्तान के रास्ते से गुजरने का अभियान छोटा सा था क्योंकि यह उसके भारत आने के रास्ते में एक ठहराव मात्र था परन्तु उसने टिप्पणी की कि, ‘‘अफगानिस्तान में प्रवेश करना तो आसान है, इससे बाहर निकलना मुश्किल है।’’

वर्षों से अनेक राजवंशों और देशों ने यही महसूस किया है और इसे ‘मध्य एशिया का ङ्क्षहडोला’ (क्योंकि यह एशिया के सभी मार्गों को जोड़ता है) से लेकर ‘राजवंशों का कब्रिस्तान’ तक कहा गया। आधुनिक काल में चाहे ब्रिटिश हों, रूसी या अमरीकी, सब इसकी पुष्टिï करते हैं।

इस पृष्ठभूमि में ट्विन टावर पर हमले के बाद तालिबान को समाप्त करने के इरादे से अफगानिस्तान में प्रवेश करने वाले अमरीकनों को अफगानिस्तान में खर्चीला और अनवरत युद्ध छेडऩे के क्रम में दुविधापूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा है तथा ट्रम्प प्रशासन द्वारा अफगानिस्तान से अपने 14000 सैनिक हटाने की इच्छा को देखते हुए सी.आई.ए. के निदेशक ने चेतावनी दी है कि अफगानिस्तान एक बार फिर ‘आतंकवादियों का स्वर्ग बन सकता है’।

ओबामा प्रशासन के दौरान अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अमरीका के विशेष प्रतिनिधि रहे जेम डोबिन का कहना है कि ‘‘अमरीका के एक बार यहां से चले जाने के बाद अफगानी जैसे ही तालिबान से वार्ता शुरू करेंगे तो यह टूट जाएगी और युद्ध शुरू हो जाएगा तथा यदि अमरीका समझौता होने के बाद लेकिन इसके लागू होने से पहले अफगानिस्तान छोड़ेगा तब वह समझौता कभी भी लागू नहीं होगा और युद्ध शुरू हो जाएगा।’’

हालांकि अमरीकी दूत जालमे खलीलजाद अफगानिस्तान के लिए शांति समझौता तलाशने की जल्दबाजी में हैं जिससे अमरीका 17 वर्ष के युद्ध के बाद वहां से अपनी सेनाएं अप्रैल तक वापस ला सकेगा लेकिन आगे का रास्ता बाधाओं से भरा हुआ है।

तालिबान काबुल की निर्वाचित सरकार को अमरीका की कठपुतली सरकार के रूप में देखते हैं। वास्तव में यह सरकार भ्रष्टाचार से बुरी तरह ग्रस्त है और नस्ली आधार पर बुरी तरह बंटी हुई है। इसका अधिकार क्षेत्र ज्यादातर देश के प्रमुख शहरों तक ही सीमित है और तालिबान ने देश के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों पर मजबूती से कब्जा कर रखा है। अमरीका तथा नाटो की सेनाएं अभी तो अफगान सेनाओं को हवाई सहायता और अन्य महत्वपूर्ण मदद दे रही हैं परन्तु जब अमरीकी सेनाएं यहां से चली जाएंगी तब अफगान सरकार तालिबान का किस प्रकार मुकाबला करेगी?

दूसरी ओर 1996 से 2001 तक इस्लामी कानूनों के कठोर प्रावधानों के साथ देश पर शासन करने तथा ओसामा बिन लाडेन की मेजबानी करने तथा अफगान सेनाओं पर रोजाना हमले करने वाले तालिबान मजबूत पोजीशन के साथ वार्ता की मेज पर आए, ऐसे में कैसे वे किसी समझौते पर मानेंगे। तालिबान वार्ताकारों का नेतृत्व स्पष्टïत: अमरीका के अनुरोध पर 8 वर्षों की कैद के बाद गत वर्ष पाकिस्तान द्वारा रिहा किए गए वरिष्ठï कमांडर अब्दुल गनी बारदार ने किया जिनके बारे में माना जाता है कि उन्हें तालिबान के बीच अग्रिम पंक्ति के सैनिकों के साथ शांति समझौता करने के मामले में पर्याप्त सम्मान प्राप्त है।

उनके साथ शामिल वार्ताकारों में 2 ऐसे तालिबानी नेता शामिल हैं जिन्हें एक बंदी बनाए गए अमरीकी सैनिक के बदले में ‘ग्वांतानामो बे’ से 2014 में रिहा किया गया था। इस प्रकार इनमें से किसी के पास भी देने के लिए सिवाय पुरानी तालिबानी फिलॉस्फी के अलावा और कुछ भी नहीं है।

इसके साथ ही यह बात भी अस्पष्टï है कि क्या तालिबान अफगानिस्तान में, जोकि क्रूर आई.एस. का घर भी है, सक्रिय आई.एस. व अन्य सशस्त्र समूहों पर धावा बोलनेे के इच्छुक अथवा इसमें सक्षम हैं। अमरीका का कहना है कि इसने ज्यादातर अफगानिस्तान में अलकायदा का खात्मा कर दिया है लेकिन ग्रुप लीडर ऐमान अल जवाहिरी तथा बिन लाडेन के बेटे हमजा जैसी बड़ी हस्तियां इसी क्षेत्र में मौजूद मानी जाती हैं।

पेंटागन ने तालिबान नेताओं और लड़ाकुओं पर हवाई हमले और विशेष छापेमार कार्रवाइयां तेज कर दी हैं जो 2014 के बाद अपने सर्वोच्च शिखर पर हैं। अफगानिस्तान में अमरीकी मिशन के वर्तमान कमांडर जनरल आस्टिन एस. मिलर द्वारा तैयार रणनीति का उद्देश्य आतंकवादी गिरोहों को परास्त करना और फिर उन्हें वार्ता की मेज पर लाना है जिसके लिए उन्होंने क्रेमलिन में वार्ता शुरू होने के बाद 2100 हवाई और जमीनी हमले किए हैं।

यहां यह बात उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान में युद्ध का मौसम वसंत ऋतु में शुरू होता है। इसी दौरान यहां पोस्त की फसल की वार्षिक कटाई शुरू होती है जो ग्रीष्म तक चलती है और यही तालिबान की आय का मुख्य साधन भी है। इतना ही नहीं, ईरान और रूस से तालिबान को आॢथक और छोटे हथियारों की सहायता में भी भारी वृद्धि हुई है और इस प्रकार अमरीकी शांति प्रयास उलझ गए हैं, जिससे इनके सफलता पर प्रश्र चिन्ह लग गया है।

दयनीयता के इन हालातों में तालिबानी कमांडरों के साथ शांति समझौते में सहायता पाने के लिए अमरीका ने एक बार फिर पाकिस्तान से गुहार की है। इन हालात में अमरीकी कांग्रेस में रिपब्लिकन पार्टी के नेता मिक मैककोनल ने राष्ट्रपति ट्रम्प को सावधान किया है कि ‘‘इस प्रकार की टैलीग्राफिक निकासी का परिणाम हमारे शहरों में टकरावों के रूप में निकलेगा।’’

अब जबकि अफगानिस्तान में जुलाई में चुनाव होने जा रहे हैं, यदि अमरीका तब तक चला गया तो तालिबान सिर्फ भारत को ही नहीं बल्कि समूचे एशिया को एक बड़ी शक्ति के रूप में चुनौती पेश करेंगे। - विजय कुमार


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