नीतीश कुमार कभी यहां-कभी वहां

punjabkesari.in Monday, Jan 29, 2024 - 02:45 AM (IST)

एन.डी.ए. में वापसी को लेकर कई दिनों की अटकलों के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जद (यू) विधायक दल की बैठक में 28 जनवरी को मुख्यमंत्री पद से अपने इस्तीफे की घोषणा करने के मात्र एक घंटे में ही नौवीं बार राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। इस घटनाक्रम से बिहार का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया क्योंकि नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा के साथ जुड़ गए हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने नीतीश कुमार पर निशाना साधते हुए कहा कि नीतीश कुमार ‘आया राम गया राम’ जैसे नेता हैं। 

बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार की पकड़ काफी मजबूत है। जिसके कई कारण हैं। पहला यह कि नीतीश ने कभी भी दूसरे नम्बर के नेता को उभरने नहीं दिया। फिर चाहे उनके पुराने मित्र राजीव रंजन सिंह हों जिन्हें ललन सिंह के नाम से भी जाना जाता है या नौकरशाह से नेता बने आर.सी.पी. सिंह हों, किसी को भी संगठनात्मक जिम्मेदारी के अलावा कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं दी गई है।

दूसरी बात यह कि एक प्रशासक के रूप में नीतीश कुमार की साख राज्य भर में निॢववाद बनी हुई है। 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही जद (यू) उनकी छवि के इर्द-गिर्द घूम रही है। यह भाजपा नेता अरुण जेतली ही थे जिन्होंने 2005 के चुनावों से पहले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने का विचार रखा था और वह काम कर गया। 2005 और 2010 के बीच बिहार में बदलाव की पटकथा लिख कर नीतीश कुमार लगातार मजबूत होते चले गए और ‘सुशासन बाबू’ का टैग उनके साथ चिपक गया। 

तीसरा यह कि भाजपा और जद (यू) के पास कमोबेश पूरक मतदाता आधार है। जहां भाजपा उच्च जाति और गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों ओ.बी.सी. और अत्यंत पिछड़े वर्गों (ई.बी.सी.) पर ध्यान केंद्रित करती हैं और नीतीश ई.बी.सी. और यादव ओ.बी.सी. के साथ-साथ कुर्मी-कोइरी के अपने ओ.बी.सी. के निर्वाचन क्षेत्र के आसपास काम करते हैं। नीतीश के भाजपा के साथ फिर से जुड़ जाने के कारण ‘इंडिया गठबंधन’ को गहरा आघात लगा है। यह नीतीश ही थे जिन्होंने इस गठबंधन को आगे बढ़ाने के लिए दावपेंच खेला था। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले ही अपने दम पर राज्य में चुनाव लडऩे का मन बना चुकी हैं। वहीं पंजाब की बात करें तो वहां ‘आप’ का आधार मजबूत दिखाई देता है। 

केरल में कांग्रेस और लैफ्ट का गठबंधन तो होने से रहा। यदि बात यू.पी. की करें तो वहां अखिलेश यादव के लिए ‘कभी खुशी कभी गम’ वाली बात चल रही है। इंडिया गठबंधन का नामकरण तो बहुत धूमधड़ाके से हुआ था। संयोजक बना नहीं, घोषणा पत्र रचा नहीं गया और गठबंधन की कहानी को आगे बढ़ाया नहीं गया। जहां तक नीतीश कुमार का संबंध है, तो सत्ता में बने रहने के लिए उनको पता होता है कि हवा का रुख किस ओर बह रहा है। अब सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस अपने दम पर इंडिया गठबंधन का रथ आगे बढ़ा पाएगी? जो भी हो एक बात तो साफ है कि इस बार नीतीश कुमार के फिर से पलटी मारने के कारण उनकी छवि धूमिल जरूर होगी। उनकी मौकापरस्ती को देखते हुए क्या अब  सुशासन बाबू के समर्थक उनके साथ बिहार विधानसभा के अगले चुनावों तक जुड़ पाएंगे? यह तो वक्त ही बताएगा। 


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