‘साक्षर’ हिमाचल प्रदेश में सरकारी शिक्षा की दयनीय स्थिति

Sunday, May 14, 2017 - 12:18 AM (IST)

केंद्र एवं राज्य सरकारों की उदासीनता के कारण स्वतंत्रता के 70 वर्ष बाद भी देश के आम लोग अच्छी और सस्ती स्तरीय शिक्षा तथा चिकित्सा के लिए तरस रहे हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में प्रगति का एकमात्र माध्यम शिक्षा ही हो सकती है और इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2009 में भारत में ‘राइट टू एजुकेशन’ का प्रावधान किया गया था। 

इसका मुख्य उद्देश्य पूरे भारत में शत-प्रतिशत साक्षरता हासिल करना है और इसके लिए 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य की गई है परंतु अधिकांश सरकारी स्कूलों में बुनियादी ढांचे का अभाव है और उनकी अपनी इमारतें तक नहीं हैं तथा स्टाफ एवं अन्य सुविधाएं भी पर्याप्त नहीं हैं। दूसरी ओर अध्यापक-अध्यापिकाओं द्वारा दायित्व निर्वहन में लापरवाही और हेराफेरी बरती जा रही है। यहां तक कि विधिवत नियुक्त अध्यापक-अध्यापिकाओं द्वारा अपनी जगह बाहरी लोगों को ‘प्रॉक्सी’ टीचरों के रूप में लगाया जा रहा है। 

ऐसे ही कारणों से वर्ष 2010 से 2016 के बीच भारत के 20 राज्यों के सरकारी स्कूलों में दाखिल होने वाले छात्रों की संख्या में 1.3 करोड़ की भारी गिरावट आई है जबकि अधिक फीस होने के बावजूद प्राइवेट स्कूलों में छात्रों के दाखिले की दर लगातार तेजी से बढ़ती जा रही है। प्रसिद्ध ‘प्यू रिसर्च सैंटर’ (जो कि न्यूयार्क स्थित ‘जॉन टैम्पलटन फाऊंडेशन’ का एक भाग है) द्वारा विश्व के 151 देशों में किए गए एक शोध में भारत में शिक्षा की चिंताजनक स्थिति का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि ‘‘जहां विश्व में बच्चे औसतन 7.7 वर्ष स्कूल में बिताते हैं वहीं भारत में बच्चे सिर्फ 5.6 वर्ष ही स्कूलों में बिता पाते हैं।’’ 

ऐसे ही एक अन्य शोध के अनुसार, ‘‘शिक्षा के मामले में भारत अनेक अफ्रीकी देशों से भी बहुत पीछे रह गया है। मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा के प्रावधान के बावजूद यहां स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या बहुत अधिक है और देश की 74.04 प्रतिशत जनसंख्या ही साक्षर है।’’ हालांकि हिमाचल प्रदेश शत-प्रतिशत साक्षरता का दावा करता है परंतु यहां भी शिक्षा की हालत खस्ता है। प्रदेश के 1200 से अधिक स्कूलों में मात्र एक ही अध्यापक सभी कक्षाओं को संभाल रहा है। प्रदेश के स्कूलों में शिक्षा की असंतोषजनक स्थिति के कारण ही इस वर्ष प्रदेश के 2500 सरकारी हाई स्कूलों का 10वीं कक्षा का परीक्षा परिणाम निराशाजनक रहा। कुछ स्कूलों का पास प्रतिशत तो 25 प्रतिशत से भी कम रहा है तथा पहले 10 रैंक प्राप्त करने वाले 33 टॉपरों की सूची में स्थान पाने में प्रदेश के सरकारी स्कूलों में से मात्र एक ही छात्र सफल हुआ है। 

इसी को देखते हुए जहां शिक्षा जगत द्वारा पांचवीं और सातवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षाएं दोबारा शुरू करने की मांग की जा रही है वहीं यह भी कहा जा रहा है कि निजी स्कूलों के अध्यापकों की भांति ही सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को भी सिर्फ छात्रों की पढ़ाई तक ही सीमित रखा जाए तथा उनसे अन्य ‘नॉन टीचिंग काम’ न लिए जाएं। बहरहाल अब सरकारी स्कूलों के 10वीं कक्षा के निराशाजनक परीक्षा परिणाम के दृष्टिïगत हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड ने खराब परिणाम देने वाले अध्यापकों के विरुद्ध कार्रवाई करने के विचार से सभी स्कूलों के नौवीं से लेकर 12वीं तक के परीक्षा परिणामों का विवरण तलब किया है। 

निश्चय ही यह अच्छा पग है परंतु इतना ही काफी नहीं है। जैसे पंजाब के पूर्व शिक्षा मंत्री दलजीत सिंह चीमा ने लंबी छुट्टी लेकर विदेशों में बैठे 1200 अध्यापकों के विरुद्ध कार्रवाई करके बड़ी संख्या में टीचरों की सेवाएं समाप्त कीं और सेवारत अध्यापकों की नियमित क्लास लेने तथा ‘प्रॉक्सी’ पर रखे हुए बोगस टीचरों का पता लगा कर दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई करने का सिलसिला शुरू किया था, वैसे ही हिमाचल सरकार को भी तुरंत ऐसा करने का सिलसिला शुरू करना चाहिए। इसके साथ ही सभी सरकारी स्कूलों के अध्यापक-अध्यापिकाओं, नेताओं तथा कर्मचारियों के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाएंगे। ऐसा करके ही सरकारी स्कूलों और उनके शिक्षा स्तर में सुधार लाया जा सकेगा।—विजय कुमार 

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