भारत को बंगलादेश में अपने कूटनीतिक प्रयास तेज करने की आवश्यकता
punjabkesari.in Monday, Apr 21, 2025 - 04:22 AM (IST)

गत वर्ष अगस्त माह में शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग की सरकार गिरने के पहले से ही बंगलादेश में ङ्क्षहसा और कानून व्यवस्था लगातार खराब थी और वहां की अंतरिम सरकार के प्रमुख मो. यूनुस के शासन में भी बंगलादेश एक नाजुक दौर से गुजर रहा है। बंगलादेश की अंतरिम सरकार पर अक्सर अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव बरतने और उन्हें सुरक्षा न देने का आरोप है। भारत सरकार ने इस पर बार-बार ङ्क्षचता जताई है और उम्मीद थी कि मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली सरकार वहां हिंसा के दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करेगी परंतु ऐसा हुआ नहीं।
इस महीने की शुरूआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैंकाक में ‘बिम्सटेक शिखर सम्मेलन’ के दौरान मो. यूनुस के साथ अपनी बैठक में हिन्दुओं सहित बंगलादेश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का मुद्दा भी उठाया था तथा बातचीत का परिणाम बड़ा सकरारत्मक लग रहा था। परंतु अभी तक स्थिति में कोई सुधार नजर नहीं आया। इसका ताजा उदाहरण 18 अप्रैल को वहां एक हिंदू नेता की पीट-पीट कर हत्या का है। बंगलादेश में हिन्दू अल्पसंख्यकों के साथ-साथ मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अहमदिया सम्प्रदाय के सदस्यों को भी निशाना बनाया जा रहा है। बंगलादेश में इन घटनाओं का प्रतिकूल प्रभाव भारत की सीमा से लगे राज्यों में मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी पर पड़ना तय है जो कुछ हद तक शुरू भी हो गया है।
बंगलादेश के भीतर बढ़ती धार्मिक असहनशीलता और अधिक हिंसा लगभग अनिवार्य रूप से हिंदुओं को भारत में पलायन की ओर ले जाएगी। इस तरह के हालात के बीच यह समझना आवश्यक होगा कि क्या मो. यूनुस बंगलादेश के हालात को संभाल भी सकेंगे या नहीं। मो. यूनुस द्वारा बंगलादेश सरकार का नेतृत्व संभाले जाने पर बड़ी आशा बंधी थी कि एक नोबेल पुरस्कार विजेता होने के नाते वह देश की स्थिति संभालने और पड़ोसी देशों से रिश्ते सुधारने की दिशा में कुछ तो करेंगे। इस तरह के घटनाक्रम से यह बात स्पष्टï होती है कि आवश्यक नहीं कि कोई नोबेल पुरस्कार विजेता एक अच्छा प्रशासक और नेता भी हो।
वहां सत्ता का केंद्र काफी हद तक दक्षिणपंथी इस्लामवादी आतंकी संगठन ‘जमात-ए-इस्लामी’ के हाथों में चला गया है। मो. यूनुस बंगलादेश में तेजी से पैदा हो रहे इस्लामवादी कट्टïरपंथियों पर लगाम लगाने के या तो अनिच्छुक हैं या वह ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं हैं। इस कारण इस्लामवादी ताकतें सार्वजनिक जीवन में खुद को तेजी से स्थापित कर रही हैं। मो.यूनुस ने ‘जमात-ए-इस्लामी’ के प्रति काफी उदारवादी दृष्टिकोण अपना रखा है जिसमें शेख हसीना की सरकार द्वारा अपने कार्यकाल में उस पर लगाए प्रतिबंधों को हटाना भी शामिल है। अब तक की घटनाओं ने दिखा दिया है कि मो.यूनुस तथा उनके एन.जी.ओ. के उम्मीदवार उन लोगों की दया पर हैं जो बंगला देश की 1971 में पाकिस्तान से मुक्ति की विरासत को समाप्त करना चाहते हैं। यूनुस सरकार की विदेश नीति की बात करें तो वह भारत के साथ अपने ऐतिहासिक संबंधों से दूर जाने तथा अपने देश को चीन और पाकिस्तान की ओर मोडऩे के अधिक इच्छुक दिखाई देते हैं।
यूनुस ने हाल ही में चीन की यात्रा के बाद उसे लुभाने की कोशिश में यहां तक कह दिया है कि केवल बंगलादेश ही चीन को बंगाल की खाड़ी तक पहुंच प्रदान कर सकता है। उन्होंने ढाका को समुद्री पहुंच का संरक्षक बताया है। ऐसे में बंगाल की खाड़ी में बंदरगाहों पर चीन की पहुंच भारत की समुद्री सुरक्षा को प्रभावित कर सकती है। इसलिए भारत को बंगलादेश के संबंध में अधिक मजबूत भूमिका निभानी चाहिए।
यदि बंगलादेश आंशिक रूप से भी इस्लामवादियों के प्रभाव में आ गया या सक्रिय रूप से चीन के पाले में चला गया तो भारत स्वयं को अलग-थलग वाली स्थिति में पाएगा और अपने पिछवाड़े में सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का सामना करने के साथ-साथ बंगलादेश के रूप में अपना एक पारंपरिक और मूल्यवान भागीदार भी खो देगा। कुल मिलाकर नई दिल्ली बंगलादेश में अपने प्रभाव में लगातार कमी देखने का जोखिम नहीं उठा सकती। अत: भारत को बंगलादेश सरकार की चीन या पाकिस्तान के साथ नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश पर खतरे की घंटी बजाने की बजाय अपने स्वयं के प्रयास बढ़ाने की जरूरत है। ऐसा न होने पर बहुत अधिक खतरा है कि भारत और बंगलादेश के संबंध अत्यंत खराब हो जाएंगे।