शक्तिपीठों को विवादों से बचाकर ही आस्था व विश्वास को बनाए रखा जा सकता है

punjabkesari.in Sunday, Jul 12, 2020 - 01:03 PM (IST)

हिमाचल प्रदेश में स्थित विश्व प्रसिद्ध प्रत्येक शक्तिपीठ के पीछे कोई न कोई पौराणिक महत्व जरूर रहा है। मांँ चामुंडा देवी, मांँ चिंतापूर्णी देवी, मांँ बज्रेश्वरी देवी, मांँ नयना देवी व मांँ ज्वालाजी आदि ऐसे पांच प्रसिद्ध शक्ति पीठ हैं जहाँ दुनियाभर से प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु अटूट विश्वास व आस्था से अपनी मनोकामना पूरी करने यहां आते हैं, लेकिन कई बार इस विश्वास और आस्था पर समाज के चंद लोग चोट पहुंचाने का काम कर देते हैं, हो सकता है उनके जीवन में आस्था व विश्वास का कोई विशेष महत्व न हो परंतु वह भूल जाते हैं कि ऐसे भी बहुत से लोग हैं जिनके जीवन-मरण में आस्था व विश्वास एक ऐसा तत्व है जिसके बिना न तो उनके दिन की शुरुआत होती और न ही अंत।

ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना हाल ही में विश्व प्रसिद्ध शक्तिपीठ श्री ज्वालामुखी मंदिर और गोरख डिब्बी मंदिर प्रबंधन के बीच पनपे भूमि विवाद को लेकर देखने को मिली। अखबारों व मीडिया के माध्यम से लोगों को पता चला कि गोरख डिब्बी मंदिर प्रबंधन और ज्वालामुखी मंदिर न्यास के बीच भूमि के किसी हिस्से पर निर्माण को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। इस संवेदनशील मुद्दे पर प्रशासन ने हरकत में आते देर न लगाई और विवाद के निपटारे के लिए अपनी तरफ़ से भी प्रयास शुरू कर दिए। समाज में जब भी ऐसी घटनाएँ सामने आती हैं तो सच-झूठ का भले ही बाद में पता चलता हो लेकिन ऐसी घटनाएं घटित होने से उन लोगों को जरूर मानसिक पीड़ा पहुंचती है जो ऐसे विवादों से मीलों दूर रहने के वाबजूद आस्था व विश्वास के बल पर हमेशा पास होते हैं। आस्था और विश्वास का भले ही कोई सार्वभौमिक नियम न हो लेकिन सभी के लिए इसके अपने अलग-अलग नियम होते हुए भी श्रद्धा व आदर भाव का नियम एक समान होता है।

बात ज्वालामुखी मंदिर व गोरख डिब्बी मंदिर के बीच भूमि के किसी टुकड़े पर हो रहे निर्माण की ही नहीं, बात है उन लोगों की जो विश्वभर से दूर-दराज के क्षेत्रों से यहां सिर्फ़ और सिर्फ़ उम्मीदों के उन सपनों के लेकर आते हैं जिनकी शायद कहीं और पूरे होने की उम्मीदें ख़त्म हो जाती हैं। मेरी तरह जो भी श्रद्धालु जब ज्वालामुखी जाते हैं तो वह इस विश्वास व सोच को लेकर नहीं जाते कि यह मंदिर सिर्फ़ मांँ ज्वाला जी का है या केवल गोरख डिब्बी का ही यहां विशेष महत्व है। जो भी यहां आता है वह सच्चे मन से आता है उनके लिए दोनों एक दूसरे के पूरक हैं दोनों का अपना-अपना और एक दूसरे के साथ ही महत्व है। मंदिर की विशेषता यही है कि यहां मांँ की कोई मूर्ति नहीं बस मांँ ज्वाला की ज्योति बिना रुके, बिना किसी ईंधन के जलती रहती है। कहते हैं कि इस मंदिर की खोज सर्वप्रथम पांडवों ने की थी। पूरे ब्रह्माण्ड को संकट से बचाने के लिए जहां-जहां भगवान विष्णु के चक्र से कटकर माता सती के अंग गिरे थे वहां-वहां सारे शक्ति पीठ बन गए। शास्त्रों के अनुसार ज्वालाजी में माता सति की जीभ गिरी थी तभी से इसे ज्वालामुखी भी कहा जाता है। ऐसा भी मत है कि मंदिर के साथ ऊपर की तरफ गोरख डिब्बी के दर्शनों के बिना आपकी यात्रा अधूरी मानी जाती है। गोरख डिब्बी और मांँ ज्वालामुखी के आपसी अध्यात्मिक संबंध का एक पौराणिक कथा से पता चलता है कि यहाँ इन दोनों का अपने-अपने स्थान पर क्या विशेष महत्व है।

त्रेता युग में जब गुरु गोरखनाथ भिक्षा मांगते हुए मांँ ज्वाला देवी जी के पास आए तो मांँ ने सिद्ध योगी को देखते हुए भोजन करने का आग्रह किया। लेकिन गुरु जी ने नाना प्रकार के व्यंजन देखते ही भोजन ग्रहण करने से इंकार करते हुए कहा कि वे केवल चावल और दाल की खिचड़ी ही खाएंगे। मांँ ज्वाला ने इच्छा का सम्मान करते हुए कहा कि अभी तो दाल चावल नहीं हैं फिर भी वे प्रबंध करते हैं परंतु गुरु गोरखनाथ ने कहा कि माता आप चूल्हा जलाएं हम अभी भिक्षा से दाल-चावल का प्रबंध करते हैं लेकिन हम तभी लौट कर आएंगे जब हमारा खप्पर (पात्र) भर जाएगा मांँ ने कहा कि यह खप्पर तो एक घर की भिक्षा से ही भर जाएगा। गुरु गोरख नाथ जी ने निकलने से पहले वहां एक कुण्ड बनाया यह वही कुण्ड है जिसे आज गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है। आज भी इस जल से खिचड़ी पकाई जा सकती है देखने में यह जल उबलता हुआ प्रतीत नजर आता है लेकिन जल को स्पर्श करने पर पता चलता है कि यह तो शीतल जल है। किसी को नहीं पता था कि गुरु गोरखनाथ की माया से उनका खप्पर न तो कभी भरेगा और न ही कोई भर पाएगा क्योंकि गुरु गोरखनाथ मांँ से अपने लिए ही खिचड़ी नहीं बनवाना चाहते थे वे तो पूरी दुनिया के लिए माँ का चूल्हा चिरकाल तक जलाकर रखना चाहते थे। सभी द्वारा अन्न डालने पर भी जब खप्पर नहीं भरा तो लोगों ने योगी के चमत्कार को मानते हुए अपने शीश श्रद्धा भाव से झुका लिए। उसदिन से ही यहाँ पर खिचड़ी दान की परंपरा शुरु हुई जो आज तक उसी आस्था व श्रद्धा के साथ चल रही है। आज भी माँ ज्वाला देवी जी का चूल्हा गुरु गोरखनाथ जी के इंतजार में जल रहा है और कहते हैं कि सतयुग में गुरु गोरखनाथ जी वापस लौटकर जरूर आएंगे।

आज जो विवाद श्री ज्वालामुखी मंदिर न्यास और गोरख डिब्बी मंदिर के बीच में पनपा है उससे लोगों को गहरा अघात लगा है। दोनों ही मंदिर एक ही जगह स्थित हैं श्रद्धालुओं के लिए यह मायने नहीं रखता कि कौन सी भूमि एक के नाम है और कौन सी दूसरे के नाम उनके लिए माँ ज्वाला जी ही गोरख डिब्बी है और गोरख डिब्बी ही माँ ज्वाला जी। कितना अच्छा होता प्रशासन को निशानदेही के लिए परेशान करने से पूर्व ही इस विवाद को दोनों पक्षों द्वारा मिलजुल कर हल कर लिया जाता लेकिन शायद वे ये भूल गए कि अकबर ने माँ की ज्वाला बुझाने के लिए जो नहर मंदिर के इर्द-गिर्द खुदवा दी थी उसके 'निशान' भी यहीं मौजूद हैं, ज्वाला तो आजदिन तक नहीं बुझ पाई, लेकिन ऐसे विवादों के चलते आस्था व विश्वास की ज्योति जरूर कम होती है। यह भी हो सकता है कि किसी के लिए यह विवाद अहम और वहम का मुद्दा हो लेकिन वे ये क्यों भूल गए कि इसी अंहकार में अकबर द्वारा चढ़ाया गया सवा मन सोने का छत्र भी ऐसी धातु में बदल गया था जिसका आजदिन तक विज्ञान भी पता नहीं लगा सका कि यह कौन सी धातु है। सबको जीतने वाला मुगल शासक अकबर माँ ज्वालाजी में आकर हार गया लेकिन आज भूमि विवाद के मुद्दों से लोगों की आस्था को क्यों हराया जा रहा है? दोनों पक्षों को यह बात भी समझनी चाहिए कि जिन श्रद्धालुओं ने कभी भी दोनों मंदिरों को अलग-अलग नहीं समझा फिर क्यों उनके दिलों में विभाजन किया जा रहा है? आपका भूमि विवाद तो किसी न किसी निशानदेही से ख़त्म हो जाएगा लेकिन लोगों के दिलों में जो निशान रह जाएंगे क्या वह कभी मिट पाएंगे यह सोचने वाली बात होगी।

(राजेश वर्मा)


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Riya bawa

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