गुरु व स्वामी की सेवा न करने वालों का संसार में जन्म लेना व्यर्थ

punjabkesari.in Wednesday, Feb 28, 2018 - 12:59 PM (IST)

श्री राम चरित मानस गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा 16वीं सदी में रचित एक महाकाव्य है। इस ग्रंथ को हिंदी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है। इसे सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत रामायण' भी कहा जाता है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। 

श्लोक- (रामचरित- 2/70, 2/41/7, 2/46/2, 2/71/1, 2/74)


यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम्।
न तस्य निष्कृतिर्शक्या कर्तु वर्षशतैरपि।।


मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करिंह सुभायं।
लहेहु लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायं।। 
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। 
जो पितु मातु वचन अनुरागी।। 
चारि पदारथ करतल ताकें। 
प्रिय पितु मातु प्राण सम जाकें।। 
अस जियं जानि सुनहूं सिख भाई। 
करहु मातु पितु पद सेवकाई।। 
अनुचित उचित बिचारु तजि जे पाल्हिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।।


अर्थात: श्री रामचरित मानस में भगवान श्रीराम अनुज लक्ष्मण को माता-पिता और गुरु की आज्ञा का पालन का फल बताते हुए कहते हैं कि जो माता-पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ है- 


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