पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही परम्पराओं में छिपे ज्ञान-विज्ञान, आस्था या अंधविश्वास

Wednesday, Jul 06, 2016 - 03:03 PM (IST)

अक्सर हमें अपने बुजुर्गों से कदम-कदम पर वर्जनाएं मिलती रहती हैं, यह न करो, वह न करो, ऐसा करने से अशुभ होगा, ऐसा करोगे तो शुभ होगा, सफलता मिलेगी आदि-आदि। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही इन पारंपरिक बातों एवं रीति-रिवाजों से शायद ही किसी का दैनिक जीवन अछूता हो। कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि हमारे जीवन के एक बड़े हिस्से पर इनका अंकुश लगा हुआ है। 
 
यदि हम गहराई से विचार करें तो यह पता चलता है कि ये परम्पराएं या रीति-रिवाज यों ही नहीं बना दिए गए हैं। इनके पीछे स्पष्ट कारण होते हैं। इनसे जुड़े कुछ मूल्य होते हैं। कुछ बातें अवश्य होती हैं जिनकी मनाही के पीछे कोई समुचित कारण समझ में नहीं आता परंतु कई बातें ऐसी हैं जो तर्क की कसौटी पर पूर्णत: खरी उतरती हैं। सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण होने पर घर में रखे भोजन को फैंक देने की परम्परा है। अब वैज्ञानिक शोधों से यह बात साबित हो चुकी है कि ग्रहण के दौरान निकलने वाली किरणें हानिकारक होती हैं तथा पदार्थों को नुक्सान पहुंचाती हैं।
  
भारतीय समाज में पेड़-पौधों को लेकर अनेक मान्यताएं हैं। ऐसी मान्यता है कि पीपल के वृक्ष पर 33 करोड़ देवी-देवता वास करते हैं, अत: लोग पीपल की पूजा करते हैं। इसकी मूल वजह यह है कि पीपल का पेड़ रात को भी अॉक्सीजन छोड़ता है जो प्राणी मात्र के लिए आवश्यक है। इसे ‘प्राण वायु’ कहा जाता है। अत: हमारे ऋषि-मुनियों ने पीपल की सुरक्षा के लिए उस पर 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास होना बताया। 
 
बिना स्नान किए भोजन न करने के लिए कहा जाता है। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण है कि स्नान करने से शरीर के रोम कूपों का सिंचन हो जाता है अर्थात शरीर से निकले पसीने से जो पानी की कमी हो जाती है, स्नान करने से उसकी पूर्ति हो जाती है। शरीर में शीतलता और स्फूर्ति आ जाती है तथा खुलकर भूख लग जाती है। बिना स्नान किए भोजन कर लें तो हमारी जठराग्रि उसे पचाने के कार्य में लग जाती है। उसके बाद स्नान करने पर शरीर शीतल पड़ जाता है और पाचन शक्ति मंद पड़ जाती है। 
 
भारतीय संस्कृति में मंदिर में अथवा पूजा-उपासना में घंटा-नाद की प्रथा है। घंटा मंगल ध्वनि का प्रतीक है। घंटे के स्वर वातावरण में पवित्रता का भाव भरते हैं। मन में आध्यात्मिकता के भाव जगाते हैं। घंटा-ध्वनि अन्य ध्वनियों एवं विचारों को भूलकर मन को एकाग्र करने के लिए प्रेरित करती है। हमारे यहां की सामाजिक परम्पराओं में ब्राह्मणों और ब्रह्मचारियों को संयमित जीवन जीने को कहा गया है। इसका मूल कारण यही है कि वे उत्तेजना से बचें। यहां ब्राह्मण का तात्पर्य जाति विशेष से नहीं, ज्ञान के उपासकों से है। 
 
भारत में कोई भी धार्मिक अनुष्ठान करते समय कलश स्थापना की परम्परा है। यह संपूर्णता एवं समृद्धि का प्रतीक है। आम्र पल्लवों से युक्त कलश ही परिपूर्ण होता है। आम एक सदाबहार वृक्ष है। यह सृजन के पश्चात जीवन की निरंतरता का बोधक है। इसलिए धार्मिक अनुष्ठानों में सर्वप्रथम कलश की स्थापना होती है और मृत्यु हो जाने पर जीवन की समाप्ति के प्रतीकात्मक घट को फोड़ दिया जाता है। इसका वैज्ञानिक पक्ष यह भी है कि मंगल कलश ब्रह्मांडीय ऊर्जा को अपने में केंद्रित कर आसपास वितरित कर वातावरण को दिव्य बनाता है।
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