शनिदेव से भी ज्यादा खतरनाक है उनकी सात पैरों वाली बहन, कहीं आप पर तो नहीं उसका साया

Friday, Nov 20, 2015 - 04:12 PM (IST)

ज्योतिषशास्त्र में विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। जिन तिथियों के पूर्वार्द्ध या उत्तरार्द्ध में विष्टि नामक करण विद्यमान हो, उस तिथि को ‘भद्राक्रांत’ तिथि कहा जाता है। अतः भद्रा की जानकारी "करण" पर आधारित है। वैदिक काल में पंचांग की प्रक्रिया मात्र एकांग ‘तिथि’ पर आधारित थी। नक्षत्र समावेश से यह ‘द्वयांग’ बना। धीरे-धीरे योग, करण, व वार को ग्रहण करके पंचांग सार्थक हुआ। पंचांग के पांच अंगों की उपयोगितानुसार तिथियों के प्रयोग से व्रत व पर्व द्वारा मुहूर्त का मार्ग प्रशस्त हुआ। सातों वारों में दैनिक कार्य-कलाप हेतु महूर्त का उपयोग किया जाने लगा। करणों का प्रयोग कार्य-सिद्धि हेतु किया जाता था। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज व विष्टि ये सात करण चर संज्ञक हैं अर्थात हर महीने में हर करण की 8 आवृत्तियां पूर्ण होती हैं। इसके अतिरिक्त चार स्थिर करण भी हैं जो मास में केवल एक बार ही आते हैं। इनकी तिथियां और उनके भाग निश्चित (स्थिर) हैं। इनके नाम क्रमशः शकुनि, चतुष्पाद, नाग तथा किस्तुघ्न हैं। इस प्रकार कुल ग्यारह करण प्रचलित हैं। 
 
शास्त्र "मुहूर्त गणपति" अनुसार पूर्वकाल में देवासुर युद्ध में महादेव के अंग से भद्रा उत्पन्न हुई। दैत्यों के संहार हेतु गर्दभ के मुख व लंबी पूंछ वाली भद्रा तीन पैरों वाली है। सिंह जैसी गर्दन, शव पर आरूढ़, सात हाथों व शुष्क उदर वाली, भयंकर, विकरालमुखी, पृथुदृष्टा तथा समस्त कार्यों को नष्ट करने वाली अग्नि ज्वाला युक्त यह भद्रा देवताओं की भेजी हुई प्रकट हुई है। ‘श्रीपति’ के अनुसार फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि रविवार को मूल नक्षत्र, शूलयोग में रात्रि में भद्रा का उद्भव भगवान शंकर के शरीर से हुआ। महाभारत के युद्ध के बीच धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्न करने पर भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा भद्रा सूर्य व छाया से उत्पन्न शनि की बहन है जो थोड़े से पूजन-अर्चन से संसार के प्राणियों का अनिष्ट दूर कर उनका भला करती है। भगवान श्री कृष्ण ने भद्रा के बारह इस प्रकार बताए हैं। 1. धन्या, 2. दधिमुखी, 3. भद्रा, 4. महामारी, 5. खर-आनना, 6. कालरात्रि, 7. महारुद्रा, 8. विष्टि, 9. कुलपुत्रिका, 10. भैरवी, 11. महाकाली, 12. असुर-क्षयकरी
 
मुहूर्त ग्रंथों ने संस्कारों, दैनिक कृत्यों व पर्व के क्रियान्वयन जैसे कार्यों में भद्रा को त्याज्य घोषित किया है। खगोलीय दृष्टिकोण से भद्रा आकाश का अंश है जो पृथ्वी के भ्रमण व घूर्णनवश कभी पृथ्वी के नीचे अधः कपाल में, कभी ऊपर ऊर्ध्व कपाल में व कभी समानांतर स्थित रहता है। ज्योतिष ग्रन्थों के अनुसार विभिन्न राशियों में चंद्र के संचार से भद्रा का निवास स्वर्ग या पाताल या पृथ्वी में होता है। शास्त्रनुसार चंद्र के मेष, मिथुन व वृश्चिक में गोचर पर भद्रा का वास स्वर्ग में, कन्या, तुला, धनु व मकर के चंद्र में इसका वास पाताल में तथा कर्क, सिंह, कुंभ व मीन के चंद्र समय में इसका वास भूलोक में होता है। स्वर्ग निवासी भद्रा ‘ऊर्ध्वमुखी’, पाताल वासिनी ‘अधोमुखी’ व पृथ्वी वासिनी भद्रा ‘सम्मुख’ कहलाती है। महूर्त चिंतामणि अनुसार भद्रा मेष, वृष, कर्क व मकर के चंद्र में स्वर्ग, सिंह, वृश्चिक, कुंभ व मीन के चंद्र में पृथ्वी व मिथुन, कन्या, तुला, धनु के चंद्र में भद्रा का वास पाताल में बताया गया है।
 
कृत्याकृत्य के उद्देश्य से स्वर्ग निवासिनी, पाताल निवासिनी भद्रा समस्त कार्यों में शुभदायी तथा पृथ्वी वासिनी भद्रा समस्त कार्यों की नाशक और कष्टप्रद होती है। भद्रा में अनेक काम और अनेक पर्व मनाना वर्जित कहे गए हैं। जैसे की रक्षा बंधन पर्व में भाद्र काल में बहनों को भाइयों की कलाई में राखियां बांधना वर्जित कहा गया है। श्रावण मास की पूर्णिमा पर श्रावणी (उपाकर्म) शुभ कार्य भद्राकाल में करने का पूर्ण निषेध बताया गया है। फाल्गुन मास की पूर्णमासी को अर्थात होलिका-दहन पर्व को भी भद्रा के दोष काल में मनाने का ज्योतिषीय दृष्टिकोण से पूर्ण निषेध रहता है। 
 
प्रत्येक पंचांग और कैलेंडर में भद्रा के प्रारंभ होने व समाप्त होने का समय उल्लिखित रहता है। उसका अनुसरण करते हुए निज-कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए। स्वर्ग और पाताल में वास करने वाली भद्रा का 67 प्रतिशत समय पूर्ण भद्राकाल में से शुभ है, इसमें कार्य किए जा सकते हैं। शनिवासरीय वृश्चिकी भद्रा को छोड़कर देखें तो दिन के हिसाब से 85.7 प्रतिशत भद्रा शुभ रहती है।
 
आचार्य कमल नंदलाल
ईमेल: kamal.nandlal@gmail.com 
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