कृष्णावतार

Sunday, Jul 31, 2016 - 01:04 PM (IST)

पांडवों ने ऋषि वृषपर्वा के आश्रम में आकर परम धर्मात्मा राजर्षि वृषपर्वा के चरणों में प्रणाम किया। राजर्षि ने पांडव पुत्रों के सम्मान के अनुरूप उनका स्वागत किया। पांडवों ने 7 दिन वहीं निवास किया और 8वें दिन सुबह-सवेरे सब लोगों ने ऋषि के चरणों में प्रणाम करके उनसे आगे जाने की अनुमति मांगी। राजर्षि ने उन्हें उचित उपदेश देकर विदा किया। 

 

वहां से चल कर सब लोग माल्यवर्ण पर्वत पर और फिर वहां से गंधमादन पर्वत पर पहुंच गए। पहुंचने के बाद उन्होंने निकटवर्ती वन में वृक्षों और लताओं से घिरा हुआ एक आश्रम देखा। सबने अपना नाम-धाम बता कर वहां रहने वाले मुनिवर को प्रणाम किया। जिन्होंने उन्हें आशीर्वाद देने के उपरांत बैठने के लिए कहा।  

 

युधिष्ठिर ने ऋषि को बताया,‘‘ हमारे छोटे भाई ने संदेश भेजा है कि वह इंद्र लोक से लौट कर हमें गंधमादन पर्वत पर मिलेगा। उसकी प्रतीक्षा में इस क्षेत्र में हम घूम रहे हैं।’’

 

यह सुनकर ऋषि बोले, ‘‘तो तुम यहीं रह कर अपने छोटे भाई की प्रतीक्षा करो। वैसे भी आगे जाने में संकट आ सकता है। कुबेर के यक्ष और राक्षस बड़े बलवान हैं। वे उधर जाने वाले लोगों को मार डालते हैं। वैसे भी सर्दियों में मनुष्य का यहां से आगे जाना असंभव है, इसलिए आप लोग यहीं रह कर सर्दियों की रातें बिताएं।’’

 

ऋषि की आज्ञा अनुसार पांडव वहीं ठहर गए। वहां वे प्रतिदिन धर्मोपदेश सुन लिया करते। पांडवों के वहां रहते हुए वनवास का 5वां वर्ष बीत गया। उनके वहां ठहरने का निश्चय सुनकर भीम को यह कह कर घटोत्कच राक्षसों के साथ अपने देश को लौट गए कि जब आप यहां से लौटने का विचार करें तो मुझे संदेश भिजवा दें, मैं फिर आ जाऊंगा।

 

चारों भाई प्रतिदिन शाम को पर्वतों पर भ्रमण के लिए निकल जाते और कुछ दूर जाकर लौट आते। एक दिन भीम अकेले ही मौज में आकर भ्रमण को चल दिए। उत्तर की ओर चलते-चलते वह दूर निकल गए।

(क्रमश:)

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