मोह-माया बना रही है कमजोर तो बचें, होगा आपके साथ भी कुछ ऐसा...

Saturday, Sep 10, 2016 - 12:41 PM (IST)

भरत ऋषि वन में आश्रम बनाकर रहते थे। मोह-माया से मुक्त परम वैराग्य भाव से संध्या-वंदन, तप करते रहते थे। आश्रम में विचरने वाले पशु-पक्षियों से भी उन्हें कोई मोह नहीं था। 
 
चाहे साधारण मनुष्य हो, चाहे ऋषि-मुनि हों, सबके मन की अवस्था सदा एक जैसी नहीं रहती। एक दिन किसी व्याघ्र ने एक हिरणी का शिकार कर लिया। उसका छोटा-सा बच्चा असहाय-सा भागता हुआ भरत ऋषि के आश्रम में आ गया। अचानक उस मातृविहीन मृग-शिशु को देखकर ऋषि के मन में ममता उमड़ आई।
 
जीवों के प्रति दया का भाव ऋषियों-मुनियों का धर्म ही होता है। भरत भी उस मृग छौना की ममता में ऐसे फंस गए कि अपने संध्या-वंदन का नित्य धर्म ही भूल गए। जब देखो तब उस शिशु की सेवा में लगे रहते। उसकी देखभाल करते। उसके साथ खेलते। उनकी सारी दिनचर्या का मुख्य कर्म वह मृग छौना ही हो गया। जीवन में वैराग्य के स्थान पर मोह-ममता की प्रधानता हो गई। वह मृग छौना ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, त्यों-त्यों भरत उसी के मोहपाश में बंधते गए। उसको ही खिलाने-पिलाने, देखभाल करने तथा उसके साथ समय बिताने में भरत का जीवन बीतने लगा। वह एक तपस्वी थे, आश्रम में रहते थे, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन, जप-तप, यम-नियम सब भूल गए।
 
जब वह मरने लगे तब भी उनका चित्त ईश्वर के प्रति उन्मुख न होकर उसी हिरण में लगा रहा कि मैं मर जाऊंगा तो कौन इसकी रक्षा करेगा, कौन इसके चारे-पानी का ध्यान रखेगा, कौन हिंसक पशुओं से इसे बचाएगा, यही चिंता करते-करते एक दिन उनके प्राण निकल गए।
 
कहते हैं, आदमी मरते समय जिस पर आसक्ति रखता है, अगले जन्म में उसी भाव में जन्म लेना पड़ता है। ऋषि भरत के साथ भी यही हुआ। अगले जन्म में वह मृग-योनि में पैदा हुए। शरीर भले ही मृग का था, जीव तो ऋषि भरत का ही था। उन्हें पूर्व-जन्म की स्मृति थी, पर कुछ बता नहीं पाते थे।  समय आने पर इस मृग की मृत्यु हो गई। फिर महर्षि भरत अंगिरा ऋषि के गोत्र में पैदा हुए। पहले के पूर्व जन्मों की स्मृति उन्हें थी।
 
मोह ममता के कारण इन्हें बार-बार जन्म लेना पड़ता था। विचार करते-करते उन्हें अद्वैत भाव का पूर्ण ज्ञान हो गया। ईश्वर और जीव भिन्न-भिन्न नहीं हैं। उस परब्रह्म परमात्मा का ही एक अंश यह आत्मा है वह चाहे जिस योनि में जिस रूप में, जन्म ले, है ईश्वर का ही अंश। 
 
इस प्रकार उनके विचार तथा कर्म ब्रह्मस्वरूप हो गए। वह जड़वत ज्ञान-शून्य भाव से व्यवहार करते थे। उन्हें शरीर, आत्मा, पशु, पक्षी तथा मनुष्य में कोई भेद ही ज्ञात नहीं होता था। उनकी इसी जड़-भाव स्थिति के कारण उनका नाम ‘जड़ भरत’ हो गया। 
 
 
एक बार सौबीर नरेश कुछ ज्ञान प्राप्त करने के लिए महर्षि कपिल के आश्रम जाना चाहते थे। पालकी तैयार की गई। उसे ढोने वाले तीन कहार थे। चौथे की खोज थी कि राजा के सेवकों ने हट्टे-कट्टे जड़ भरत को देखा तो उन्हें पकड़कर पालकी ढोने के काम में लगा दिया।
 
जड़ भरत अन्य सेवकों की तरह पालकी ढोने लगे। उसके चेहरे से लगता ही नहीं था कि उन्हें किसी काम में लगाया गया था। इसलिए वह अपने भाव में ज्ञान-शून्य जैसे होकर रह रहे थे। इससे अन्य कहारों की गति में असुविधा हो रही थी तथा विलंब भी हो रहा था। राजा सौबीर ने पालकी से बाहर सिर निकाल कर देखा तो सोचा कि यह नया कहार इस तरह से कंधे पर पालकी को उठा रखे चल रहा था जैसे वह इस काम में लगा ही नहीं है।
 
राजा ने पूछा, ‘‘अरे ओ नए कहार! तू देखने में इतना हट्टा-कट्टा है, स्वस्थ भी खूब है। अभी तूने थोड़ी ही दूर पालकी ढोई, क्या थक गया है जो चला नहीं जाता?’’
 
जड़ भरत ने कहा, ‘‘कौन थका है, कौन मोटा-ताजा है, कौन किसकी पालकी ढो रहा है। यह तो शरीर चल रहा है।’’
 
राजा ने कहा, ‘‘तुझे दिखाई नहीं देता? मैं पालकी में बैठा हूं और पालकी की डांडी तेरे कंधे पर है।’’
 
जड़ भरत ने कहा, ‘‘राजन! किसी पर किसी का भार नहीं है। पृथ्वी पर मेरे दोनों पैर हैं, पैर पर कमर, उदर और कंधों का भार है। कंधे पर पालकी में आप हैं। मैं पृथ्वी पर चलकर आपकी पालकी ढो रहा हूं, ये सब मिथ्या है, भ्रम है। आप, मैं तथा अन्य जीव जड़-चेतन सब पंच भूतों के सम्मिलित तत्व हैं। सबके भार पंचभूत-क्षिति, जल, पातक, गगन, समीर ही ढो रहे हैं। यदि आप समझते हैं कि पालकी मेरे लिए भार है तो यही बात आप पर भी है। जिन द्रव्यों से यह पालकी बनी है उन्हीं द्रव्यों, तत्वों से इस जगत तथा समस्त जड़-चेतन का निर्माण हुआ है, इसलिए किसी से कोई भेद मत देखिए।’’
 
कहार बने इस ब्राह्मण की बात सुनकर सौबीर नरेश चौंके। उन्हें लगा कि किस ऐसे परम ज्ञानी को हमारे सेवक पकड़कर ले आए और पालकी ढोने के काम में लगा दिया। यह तो स्वयं ब्रह्मस्वरूप है तथा इसकी दृष्टि में समस्त ब्रह्मांड और इसमें व्याप्त जड़-चेतन सब ब्रह्ममय है। 
 
सौबीर अपराध-भाव से दुखी होकर पालकी से उतर पड़े और कहा, ‘‘ब्राह्मण-देवता! अपराध क्षमा हो। मैं आत्मज्ञान की प्राप्ति करने के लिए ही महर्षि कपिल के पास जा रहा था, पर ऐसा ब्रह्ममय आत्मज्ञान मुझे आप से इस रूप में मिला, यह मेरा परम सौभाग्य है। आप कौन हैं? मुझे और ज्ञान देकर मेरा कल्याण करें।’’
 
जड़ भरत ने राजा सौबीर को बताया, ‘‘मैं कौन हूं, आप कौन हैं? बताने पर सब संज्ञा में होगी। जैसे तुम केवल राजा ही नहीं हो, पिता हो, पुत्र हो, पति हो, शत्रु हो, मित्र हो। यह तुम्हारा मस्तक है, पेट है, हाथ-पांव, आंख, कान हैं। क्या तुम इनमें से कोई एक हो? ये सब संज्ञाएं हैं, इन सबसे अलग होकर विचार करोगे तब पता चलेगा कि तुम कौन हो। राज्य, धन, सम्पत्ति से कल्याण नहीं होगा। परमार्थ की कामना करो।’’
 
जड़ भरत से सौबीर नरेश ने ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त किया कि वे सम्पूर्ण प्राणियों को अपने साथ अभिन्न देखने लगे तथा इस तत्वज्ञान का बोध होते ही वे संसार के समस्त विकारों से मुक्त हो दिव्य जीवन बिताने लगे।
 
(अग्नि पुराण से)
(‘राजा पाकेट बुक्स’ द्वारा प्रकाशित ‘पुराणों की कथाएं’ से साभार)
—गंगा प्रसाद शर्मा 

 

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