रक्षाबंधन का पौराणिक रिश्ता उन बहनों ने डाला, जो सगी नहीं थीं लेकिन आज भी...

Thursday, Aug 18, 2016 - 07:00 AM (IST)

बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है, प्यार के दो तार से संसार बंधा है
 
भाई की कलाई पर राखी बांधने का सिलसिला बहुत पुराना है। रक्षाबंधन का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा हुआ है। वह भी तब जब आर्य समाज में सभ्यता की रचना की शुरूआत मात्र हुई थी। रक्षाबंधन पर्व पर जहां बहनों को भाइयों की कलाई में रक्षा का धागा बांधने का बेसब्री से इंतजार रहता है, वहीं दूर-दराज बसे भाइयों को भी इस बात का इंतजार रहता है कि उनकी बहना उन्हें राखी भेजे। 
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उन भाइयों को निराश होने की जरूरत नहीं है, जिनकी अपनी सगी बहन नहीं है क्योंकि मुंहबोली बहनों से राखी बंधवाने की परम्परा भी काफी पुरानी है। असल में रक्षाबंधन की परम्परा ही उन बहनों ने डाली थी, जो सगी नहीं थीं। भले ही उन बहनों ने अपने संरक्षण के लिए ही इस पर्व की शुरूआत क्यों न की हो लेकिन उसकी बदौलत आज भी इस त्यौहार की मान्यता बरकरार है। 
 
देवराज इंद्र और शची की कथा 
एक समय देवताओं के राजा इंद्र अपने शत्रु वृत्रासुर से पराजित हो गए थे। तब वह देवों के गुरु बृहस्पति के पास गए। तब देवगुरु बृहस्पति की सलाह से विजय प्राप्ति के लिए इंद्र की पत्नी देवी शची ने इंद्र को राखी बांधी और तब इंद्र वज्र के निर्माण के लिए ऋषि दधीचि की अस्थियां लेने के लिए गए। इंद्र ने उनसे उनकी अस्थियां प्राप्त करके वज्र नामक शस्त्र बनाया। फिर वृत्रासुर पर आक्रमण करके उसे हराया और अपना स्वर्ग का राज्य पुन: प्राप्त किया। 
 
संतोषी माता और भगवान गणेश 
माता संतोषी के अवतार की कथा में यह कहा जाता है कि एक समय की बात है। राखी के त्यौहार पर भगवान गणेश की बहन ने गणेश को राखी बांधी परंतु भगवान गणेश के दोनों पुत्रों शुभ और लाभ को कोई राखी बांधने वाला नहीं था, क्योंकि उनकी  कोई बहन नहीं थी। इस बात से शुभ और लाभ बहुत निराश हुए। तब दोनों ने भगवान गणेश और माता रिद्धि व सिद्धि से एक बहन के लिए बहुत प्रार्थना की। 
 
भगवान गणेश ने दोनों पुत्रों शुभ और लाभ की प्रार्थना स्वीकार की और तब माता रिद्धि-सिद्धि द्वारा दैवीय ज्योति से संतोषी माता का अवतार हुआ। तब संतोषी माता ने शुभ और लाभ को राखी बांधी। 

सिकंदर और पुरु
सिकंदर व पुरु के बीच की रक्षा-सूत्र का बहुत पुराना नाता था। हमेशा विजयी रहने वाला सिकंदर भारतीय राजा पुरु की प्रखरता से काफी विचलित हुआ। इससे सिकंदर की पत्नी काफी तनाव में आ गई थी। उसने रक्षाबंधन के त्यौहार के बारे में सुना था। सो, उन्होंने भारतीय राजा पुरु को राखी भेजी। तब जाकर युद्ध की स्थिति समाप्त हुई थी क्योंकि भारतीय राजा पुरु ने सिकंदर की पत्नी को बहन मान लिया था।
 
भगवान श्री कृष्ण और द्रौपदी 
इतिहास में भाई-बहन के रिश्ते को सार्थक करता है भगवान श्री कृष्ण और द्रौपदी का रिश्ता। कृष्ण भगवान ने दुष्ट राजा शिशुपाल को मारा था। युद्ध के दौरान कृष्ण के बाएं हाथ की उंगली से खून बह रहा था। इसे देख कर द्रौपदी बेहद दुखी हुईं और उन्होंने अपनी साड़ी का टुकड़ा चीरकर कृष्ण की उंगली पर बांधा जिससे उनका खून बहना बंद हो गया। तभी से कृष्ण ने द्रौपदी को अपनी बहन स्वीकार कर लिया था। वर्षों बाद जब पांडव द्रौपदी को जुए में हार गए थे और भरी सभा में उसका चीरहरण हो रहा था तब श्री कृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाई थी।
 
राजा बलि और माता लक्ष्मी 
एक पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि दैत्यों का राजा बलि भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। भगवान विष्णु राजा बलि से इतने प्रसन्न थे कि एक बार वह वैकुंठ धाम छोड़ कर राजा बलि के साम्राज्य की रक्षा के कार्य में लग गए। माता लक्ष्मी वैकुंठ धाम में अकेली रह गईं। जब भगवान विष्णु बहुत समय तक वापस वैकुंठ धाम को नहीं लौटे तब माता लक्ष्मी ने एक साधारण स्त्री का रूप धारण किया और राजा बलि के यहां पहुंच गईं। वहां माता लक्ष्मी ने अपने आपको एक निराश्रित महिला बताया जो अपने पति से बिछुड़ गई है और पति के मिलने तक राजा बलि की शरण में रहना चाहती है। इस प्रकार लक्ष्मी ने बलि के यहां आश्रय पा लिया।
 
तत्पश्चात श्रावण मास की पूर्णिमा को माता लक्ष्मी ने राजा बलि की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा और राजा बलि से अपनी रक्षा का वचन लिया। तब बलि ने माता लक्ष्मी से सारा सच जानना चाहा तो माता लक्ष्मी ने सब बात बलि को सच-सच बतला दी।
राजा बलि ने माता लक्ष्मी की सारी बात सुन कर उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया और भगवान विष्णु से माता लक्ष्मी के साथ वैकुंठ धाम लौटने की प्रार्थना की। ऐसा कहा जाता है कि तब से ही रक्षाबंधन के दिन राखी बंधवाने के लिए बहन को भाई द्वारा अपने घर आमंत्रित करने की प्रथा चल पड़ी।

राजा हुमायूं और रानी कर्णवती 
राखी से संबंधित राजस्थान अंचल की यह बहुत ही प्रसिद्ध कहानी है। जब बहादुर शाह ने राजस्थान के चित्तौड़ पर आक्रमण किया तो विधवा रानी कर्णवती ने देखा कि वह स्वयं को तथा अपने राज्य को बहादुर शाह से बचा पाने में सक्षम नहीं है। तब कर्णवती ने हुमायूं को राखी भेजकर अपनी रक्षा की प्रार्थना की। हुमायूं ने उसकी राखी को पूरा सम्मान दिया और प्रण किया कि वह राखी की लाज रखेगा।
 
अपना प्रण निभाने के लिए हुमायूं एक विशाल सेना साथ लेकर तुरंत चित्तौड़ के लिए निकल पड़ा परंतु जब वह चित्तौड़ पहुंचा तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बहादुर शाह चित्तौड़ पर कब्जा कर चुका था। राजस्थान के इतिहास में 8 मार्च1535 का वह दिन हमेशा एक घाव के रूप में रिसता है जब रानी कर्णवती ने बहुत-सी महिलाओं सहित जौहर किया। तब राखी की लाज रखते हुए हुमायूं ने चित्तौड़ का राज रानी कर्णवती के पुत्र विक्रमजीत सिंह को सौंप दिया।
 

रानी कर्णवती और हुमायूं की इस राखी की पवित्रता को राजस्थान की मिट्टी कभी नहीं भुला सकेगी। रानी कर्णवती और हुमायूं के इस पवित्र रिश्ते और राखी के महत्व को राजस्थान के अनेक कथाकारों और कवियों ने अपनी वाणी देकर अमर कर दिया। 

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