मन में रखें इस महान राजा जैसी भावना, वचन के लिए दान किया अपना शरीर

Sunday, Sep 11, 2016 - 03:50 PM (IST)

राजा शिबि की कथा महाभारत में दी गई है, अरण्य पर्व, अध्यायास 130-131 एक बार इंद्रदेव को राजा शिबि के उच्च चरित्र की परीक्षा करने की इच्छा हुई। ऐसा करने के लिए इंद्रदेव ने एक बाज का रूप धारण किया और एक सफेद कबूतर को हत्या करने के उद्देश्य से परेशान करने लगा। इस संकट से त्रस्त होकर वह सफेद कबूतर राजा शिबि के पास सहायता मांगने गया। अत्यंत दयालु राजा शिबि ने उस कबूतर को उसकी सुरक्षा करने का वचन दिया। जो बाज उस सफेद कबूतर के पीछे पड़ा था, वह भी राजा शिबि के पास आया और बोला कि कबूतर तो उसका प्राकृतिक आहार है और वह भूखा था। इसी कारण से उस बाज ने राजा को उस सफेद कबूतर को उसे सौंप देने का निवेदन किया परंतु चूंकि राजा उस कबूतर को पहले ही संरक्षण का वचन दें चुका था। उसने उस बाज को इस संदर्भ में मदद न कर पाने की अपनी मजबूरी दर्शाई। 

 

राजा के इस भाष्य को सुनकर उस बाज ने (जो कि बाज के भेष में इंद्रदेव थे) राजा शिबि को उस कबूतर के वजन जितना उनके खुद के शरीर का मांस काटकर उसे उसकी क्षुधा क़ो मिटाने हेतु देने के लिए कहा। बाज की इस इच्छा को सुनते ही राजा शिबि ने अविलंब ही उसकी इच्छा पूर्ति करने का इरादा कर खुद की जांघ का हिस्सा काटना शुरू कर दिया और उस हिस्से का वजन सफेद कबूतर के वजन से तोलने लगा परंतु हर बार उसके शरीर के मांस का वजन कबूतर के वजन से कम ही प्रतीत होने लगा। इसी कारण अंत में राजा ने स्वयं को ही उस बाज के समक्ष प्रस्तुत कर दिया ताकि वह उसके पूरे शरीर के मांस का भक्षण कर सके। यह देखकर उस बाज ने इंद्रदेव के अपने सत्य रूप में प्रत्यक्ष होकर राजा शिबि की उसके इस वीरतापूर्ण त्याग के लिए बहुत प्रशंसा की। इंद्रदेव ने उसे असीम प्रतिष्ठा एवं सूक्ष्म जगत में अभिगम कर पाने का वरदान दिया। 

 

वह काल ऐसा था जब हर कोई न केवल हर जीव के प्रति अशर्त प्रेमभाव रखता था अपितु हर जीव की स्वयं की जान खतरे में डालकर भी रक्षा करने को उस काल के लोग उनका उच्चतम कर्तव्य मानते थे।

 

दुर्भाग्य से आज के दौर में मनुष्य के स्वार्थी भाव और स्वार्थी वर्तन से परिस्थिति कुछ इस तरह विपरीत हो गई है कि तकरीबन 500 से भी ज्यादा पंछियों की उपजातियों पर इसका बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। लाखों की तादाद में पंछियों को भोजन और पैसे की लालसा से मार दिया जाता है। उन्हें जाल में कैद कर लिया जाता है और फिर देश में सर्वत्र स्वादिष्ट भोजन के रूप में उनका मांस परोसा जाता है।

 

मैं जब लोगों को स्वार्थी से नि:स्वार्थ बनने के लिए कहता हूं, तो कोई समझ नहीं पाता। उनकी बुद्धि व इन्द्रियां उन्हें यह समझने का अवसर ही नहीं देते। हमें यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि पूरी सृष्टि स्वार्थ से नहीं अपितु नि:स्वार्थ भाव के आधार पर चल रही है। सृष्टि में हर चीज सृष्टि के चलन में सहाय्य करने के लिए मौजूद है। हर जीव जो सृष्टि के विरुद्ध जाकर स्वार्थ से अपना जीवन व्यतीत करता है, उसे बहुत भारी संकटों का सामना करना अनिवार्य है। दुनिया का हर धर्म एवं संप्रदाय यही बात कहता है कि दान में ही प्राप्ति होती है।

 

ध्यान आश्रम में हम इस तथ्य का अनुभव हर कदम पर करते हैं। मैं आपको मेरे एक शिष्य का अनुभव बताता हूं जो कि मीडिया के क्षेत्र में अपना एक स्थान बनाना चाहता था। वह नियमित रूप से गौसेवा करता है और एक बार उसने एक पांच पैरों वाली एक गाय को देखा जिस पर उसने एक लेख लिखा। उस लेख के प्रकाशन से उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त हुई और केवल 6 महीने के उसके इस पेशे के अंतराल में वह उस चैनेल का प्रोड्यूसर बन गया। यह कर्म की शक्ति और बल का एक वास्तविक उदाहरण है।

 

आप इस तथ्य की स्वयं भी परीक्षा कर सकते हैं। आपके इलाके के लावारिस श्वानों एवं गायों को रोज खाना खिलाना अौर पंछियों के लिए पानी रखना शुरू कर दीजिए।देवलोक की यज्ञों द्वारा सेवा करने का कर्म सबसे सशक्त कर्म होता है। इसे करने के लिए केवल एक तांबे का कटोरा लीजिए, उसमें कुछ तिल के दाने डालिए, गाय के गोबर से बने उपले का टुकड़ा डालिए, कपूर और गुग्ल डालिए, अग्नि क़ो प्रज्वलित कर उसमें देसी गाय के घी की आहुति देते हुए कुछ निर्धारित मंत्रों का उच्चारण कीजिए। 

योगी अश्विनी जी 

dhyan@dhyanfoundation.com

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