बड़े से बड़ा गुरु क्यों न हो, वह चेले का कल्याण कभी नहीं कर सकता

punjabkesari.in Friday, Jun 24, 2016 - 12:06 PM (IST)

शिष्य का क्या मतलब है? शिष्य वह है जो अपने जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाए, जो मोह और अज्ञान से अपने आपको बाहर निकालना चाहता है, ऐसे शिष्य को गुरु यदि उपदेश देता है तो उसे कुछ लाभ भी होता है। जिस शिष्य को जीवन में ऊपर उठने की तमन्ना ही नहीं है और जो न अज्ञान को दूर करना चाहे, उसे गुरु के पास रहने पर भी कोई लाभ नहीं होता। चेला गलत कारणों से गुरु के पास जाता है और शिष्य सही कारणों से जाता है। 

 

शिष्य की पहली सिद्धि यह है कि वह अपने जीवन में श्रेष्ठता, ज्ञान, प्रेम, भक्ति और सात्विकता बढ़ाना चाहता है। इसके लिए वह किसी सद्गुरु संत के पास जाता है। जिसकी अभी भी वृत्तियां बहिर्मुखी हैं वह शिष्य नहीं है जिसका मन अंतर्मुखी नहीं, जो ध्यान, साधना, प्रार्थना के लिए समय नहीं निकालता है वह शिष्य नहीं है।

 

शिष्य का दूसरा लक्षण है शिक्षा मिली, ज्ञान मिला और इस ज्ञान को प्राप्त कर उसकी बहिर्मुखता बंद हो गई और वह अंतर्मुखी हो गया तो इसे शिष्य कहते हैं जिसे उपदेश दिया जाए वह शिष्य है। पूरी बात तो यह है कि उपदेश सुनने के बाद जिसके अंदर अंतर्मुखता बढ़े और बाहर की दौड़ जिसकी बंद हो जाए वह शिष्य है। यदि बहिर्मुखता वैसी की वैसी बनी रहे, वह तो चेला ही होगा। ऐसे चेले का कभी कल्याण नहीं होगा। गुरु तो कल्याण शिष्य का ही करेगा। चाहे बड़े से बड़ा गुरु क्यों न हो, वह चेले का कल्याण कभी नहीं कर सकता।

 

शिष्य का तीसरा लक्ष्ण है जो ज्ञान के मार्ग पर बहना चाहता है, बरसना चाहता है, फैलना चाहता है, विस्तृत होना चाहता है जो पूरी तरह से शिष्य हो जाता है, सही मायने में गुरु भी वही हो पाता है। 

 

जो शिष्य नहीं हो पाया, वह गुरु कैसे होगा? जो गुरु हो जाता है, वह अभी भी अपने आपको शिष्य ही जानता है। एक स्थिति हालांकि ब्रह्मवेत्ता की है, जहां वह न गुरु है और न शिष्य। गुरु-शिष्य के द्वंद से वह पार है लेकिन व्यवहार की स्थिति में मेरे मतानुसार गुरु वही है जो अभी भी अपने भीतर से शिष्य ही है।


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