कृष्णावतार

punjabkesari.in Thursday, Aug 20, 2015 - 04:16 PM (IST)

‘‘खैर, जो चाहे कह लो। यदि वह मुझसे कुछ चाहेंगे तो वह उन्हें नहीं मिलेगा। यदि दुर्योधन धरती पर पड़ा होगा और तुम उसके सिर पर गदा की चोट लगाने के लिए तैयार खड़े होगे तब भी यदि चाचा और चाची आकर अपने पुत्र के प्राणों की भीख मुझसे मांगेंगे तो उन्हें ऐसी भिक्षा भी नहीं मिलेगी।’’  

फिर श्री युधिष्ठिर द्वारा बड़ी गंभीरता से यह कहने पर कि, ‘‘जिसे हितैषी समझा जाए यदि वह 3-3 बार पीठ पर छुरा घोंपे तो वह हितैषी न रह कर शत्रु माना जाता है।’’

भीम प्रसन्न हो गए और कहने लगे कि, ‘‘यदि आप ऐसा सोचते हैं तो हमें और क्या चाहिए।’’ 

अभी यह चर्चा चल ही रही थी कि महर्षि वृहदाश्व आते दिखाई दिए। महाराज युधिष्ठिर ने तीनों भाइयों और द्रौपदी सहित आगे जाकर उन्हें दंडवत की और उनकी पूजा करने के बाद उन्हें अपने साथ लाकर आसन पर बिठाया। 

जब महर्षि स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ और भोजन आदि से निपट चुके तो बातें शुरू हुईं और युधिष्ठिर ने उनसे अपना वृतांत कहा। ‘‘महाराज, दुर्योधन आदि कौरवों ने कपट से मुझे बुला कर छल के साथ जुए में मेरा राज-पाट छीन लिया है। इतना ही नहीं, उन्होंने द्रुपद सुता को घसीट कर भरी सभा में अपमानित किया। उन्होंने हमें काली मृगछाल ओढ़ा कर वन में भेज दिया। महर्षि, आप यह बताने की कृपा करें कि मुझ जैसा भाग्यहीन राजा इस पृथ्वी पर और कौन होगा?’’ युधिष्ठिर ने उनसे पूछा।

‘‘ऐसी बात तो नहीं है महाराज। आप तो फिर भी भाग्यशाली हैं कि अर्जुन और भीम, नकुल तथा सहदेव जैसे आपके भाई हैं और आपको बड़ा मान कर भगवान कृष्ण तक आपके चरण छूते हैं। इस जुए के कारण राजा नल आपसे भी अधिक दुखी रहे हैं। उन्हें तो एक समय का भोजन भी प्राप्त नहीं था। तन ढांपने के लिए वस्त्र भी नहीं रहा था उनके पास।’

यह कह कर महर्षि ने उन्हें नल और दमयंती की कथा विस्तारपूर्वक सुनाई और कहा कि, ‘‘जब तक मनुष्य ऊंचे में देखता रहता है तब तक वह दुखी रहता है और जब वह अपने से अधिक दुखी जनों को देखता है तो उसे कुछ न कुछ संतोष अवश्य होता है। जिस प्रकार राजा नल ने राजपाट, धन, सम्पत्ति सब कुछ फिर से प्राप्त कर लिया उसी प्रकार आप भी कर लेंगे।’’ 

(क्रमश:)


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